Friday, December 16, 2011

तब भी नहीं हंसोगे क्या?


तुम्हें हमेशा शिकायत रहती है ना कि मेरा लिखा हमेशा ही बडा उदास रहता है. जानते हो क्यों? क्योंकि मैं केवल तब ही लिखती हूं कि जब तुम उदास होते हो, जब मेरी सुनने के लिए तुम मुझे नहीं मिलते तब ही तो कागज़ों का रुख करती हूं.

देखो जी... तुम चाहे नाराज़ हो जाओ या खमोश मगर यूं उदास मत हो जाया करो. तुम्हारी आवाज़ की उदासी मेरे चेहरे, मेरे ख़यालों पर धुंध बन कर छा जाती है और लगता है कि क्या ही फायदा खिलखिलाने का जो तुम ये भी ना कहो कि, "तुम्हारी हंसी में एक खनक-सी है, मानो कई घुंघरू हाथ से गिर कर दूर तक बिखर गये हों."

लेकिन मेरी हंसी को अकेले बाहर निकलते डर सा लगता है अब. तुम्हारे ठहाकों के हाथ में हाथ डाल कर चलने की आदत हो चली है इसे. सच मानो, तुम्हारी वो बेफिक्र, जानदार हंसी बडा सुकून देती है. हां, घुंघरुओं की सी खनक तो नही मगर किसी नौसिखिये के छेडे साज़ के तारों की झंकार-सी है. या शायद ना भी हो... जो लोग कहते हैं कि प्यार मे आंखों पर पट्टी बंध जाती है, उन्होंने कानों के बारे में कुछ नहीं कहा तो हो सकता है कि प्यार मे कानों पर भी रूई के नर्म फाहे बंध जाते हों.

वज़ह चाहे जो भी हो, मुझे तुम्हारी हंसी में कोई धुन सुनाई देती है जिसे सुन कर मेरी दबी-छुपी हंसी सारे दरवाज़े खोल कर (और कई बार तोड कर भी...), शर्म के सुर्ख दुपट्टे को पांव तले रौंद कर मेरे होठों पर थिरकने चली आती है. और मेरी उदासी को शायद संगीत की समझ नहीं तो वो आंसुओं का बोरिया-बिस्तर समेट कर जाने कहां चली जाती है... शायद उसके पास जिसका प्रियतम उस रोज़ मुस्कुराये बिना ही घर से निकल गया हो.

खैर.... ये सब जिरह मैं उस पल एक तरफ रख कर तुम्हारी जादुई हंसी के असर तले खो जाना चाहती हूं और ठीक तब ही मुझे तुमसे एक बार फिर प्यार हो जाता है. एक बार फिर ये भरोसा हिलोरें लेने लगता है कि बस तुम्हारा साथ काफी है मौत से अगली सांस छीन लाने के लिये. एक बार फिर अंधेरे मे भी सब उजला और निखरा नज़र आने लगता है. एक बार फिर बेफिक्री ज़िन्दगी के सलीके से टक्कर लेने को तैयार हो जाती है...

अब बताओ ग़र मैं कहूं कि तुम्हारी एक मुस्कुराहट से इतना सब संवर जाता है तब तुम दो-एक बार मेरे लिये अपनी इस जानलेवा उदासी की जान नहीं ले लोगे क्या???

Wednesday, November 30, 2011

मासूम धोखे...


परत दर पर्त उधेडते हुये जब तुम मेरे जिस्म को धागा-धागा खोल रहे होते हो, उस पल मैं बहुत चाहती हूं कि ना सोचूं लेकिन ये खयाल आता ही है कि क्या हो जो किसी एक परत के नीचे तुम्हें वो हिस्सा दिख जाये जिसमें मैंने अपनी बेवफाईयां छुपा रखी हैं???

यूं तो उस परत को मैं ने तुम्हारे लिये अपने स्नेह, तुम्हारी जागती रातों की फिक्र, तुम्हारे परिवार के लिए अपने समर्पण से खूब अच्छी तरह ढक रखा है मगर इन सब को छितरा कर बिखेर देने के बाद जब तुम मेरे मन के चोर से पहली बार मिलोगे तब क्या इनमें से मेरी एक भी अच्छाई तुम्हें याद रहेगी?

ख़ैर... ये तो मानोगे कि चोरी कभी खुशी से नहीं की जाती हर चोरी से पहले एक भूख, एक ज़रूरत सिर उठाती है और हर चोरी अपने पीछे एक ग्लानि, एक सुबूत छोड जाती है. मेरी चोरी पकडने पर तुम बस उस सुबूत को ही मत देखना. बल्कि उस ज़रूरत और ग्लानि को महसूस करने की भी कोशिश करना कि जिसे मैं ना चाह कर भी जी रही हूं.

मैं जानती हूं कि मैं बहुत...बहुत...बहुत ज़्यादा मांग रही हूं इसलिये अगर ये सब नहीं भी दोगे तो मेरे मन में तुम्हारी छवि पर नफरत का एक छींटा तक नहीं गिरेगा.. मेरे गीतों में शिकायत के बोल तो क्या धुन भी नहीं पाओगे कभी.

फिर भी मैं हर दिन दुआ करती हूं कि मेरे मन के चोर कभी तुम पर उजागर ना होने पायें. अपने प्रेम को दागदार करने की पीडा से गुज़रने के बाद मैं कभी नहीं चाहूंगी कि तुम्हारे विश्वास पर कोई धब्बा लगे...

Sunday, November 27, 2011

सुनो ना...


तुम जब खुद में बेहद.. माने कि हर हद के बाहर जा कर मशगूल हो जाते हो ना तब मैं भी खुद में खो जाने की कोशिश करने लगती हूं. मेरी पसंदीदा किताबें shelf से बाहर आ जाती हैं... रसोई में होने वाले खतरनाक किस्म के experiments काम वाली बाई को डराने लगते हैं.. playlist से जाने कितने ही गानों को बिना कुसूर के निकाला दे दिया जाता है.. साफ सुथरी मेजों को इतना घिसा जाता है कि बेचारी मेजों को भी लगने लगता है कि आज उनके चेहरे की रंगत बदल के ही रहेगी... सोने की नाकाम कोशिशें की जाती हैं; सपने तकिये के सिरहाने से झांकते रहते हैं और घण्टों मेरी खुली आखों को देखने के बाद थक कर सोने चले जाते हैं.

मगर सब फिज़ूल.... किताबों में तुम्हारी बातें हैं मगर तुम्हारा नाम नहीं... हर dish जब कढाही में कुनमुनाते हुये पूछती है कि मैं "पिया जी" को भाऊंगी या नहीं तो सच मानो मैं गुस्से से जल भुन कर खाक हो जाती हूं और मेरे बाद उसकी भी यही गति होती है. कुछ गानों को इस खुन्नस में सुनने का मन नहीं होता कि कभी तुमने गाये थे और कुछ पर इस बात का गुस्सा निकलता है कि तुमने क्यूं नहीं गाया उन्हें? सपनों से भी तो इस बात की ही तकरार है कि वो अकेले ही चले आते हैं, उनसे भी तुम्हें खींच कर लाये नहीं बनता.

उफ्!! तुम मुझ पर इस कदर हावी हो चुके हो कि तुम्हारे शहर और मेरे बीच की दूरी को नापते मील के पत्थर मुझे उन रास्तों पर भी दिख जाते हैं जो तुम्हारे शहर को जाते ही नहीं.

लेकिन तुम्हारे साथ ऐसा नहीं है ना? तुम्हें तो उन रास्तों पर चलते हुये भी अब मेरा ख़याल नहीं आता जिन पर मेरा पांव फिसलने पर तुम आखिरी बार जी खोल कर हंसे थे. सच ही... जितनी मेरी ज़िन्दगी तुम्हारे बिना बेमानी है, शायद उतनी ही मेरी मौजूदगी तुम्हारे लिये बेमतलब.

कई मर्तबा यूं भी सोचा कि चलो बहुत दिन हुये ज़िन्दगी-ज़िन्दगी खेलते हुये.. अब मौत को मौका दिया जाये. आसान मौत के तरीके भी ढूंढे इसलिये नहीं कि डर है... बस इसलिये कि उस ज़िन्दगी को ज़्यादा तकलीफ नहीं देना चाहती कि जिसने मुझे तुमसे मिलाया.

मरने का इरादा कर के एक आखिरी बार (और ये आखिरी बार कई-कई बार हुआ) तुम्हारे कमरे की चौखट तक गई मगर फिर.. तुमने खाना नहीं खाया या सर्दी में बिना स्वेटर के बैठे हो जैसी बातों में यूं उलझी कि मरने का ख़याल कमरे की देहरी पर ही मर गया.

एक बात बताऊं?
मैं मरना भी इसलिये चाहती हूं कि देखूं कि तुम मेरी याद में मेरी तस्वीरों को सहलाओगे या नहीं? भोर से अपने तकिये पर टंके आसूं छिपाओगे या नहीं? और मर भी इसीलिये नहीं पाती कि कहीं ये सब ना हुआ तो मेरे जीने की तरह मेरा मरना भी ज़ाया हो जायेगा.

इसलिये आज के लिये मैं ये कविता लिख कर ज़िन्दगी.. मौत... मेरे-तुम्हारे सपनों सब के साथ settlement कर लेती हूं....




मर जाने की ख्वाहिश अब भी मरी नहीं ...
मगर सोचती हूं कि शायद मेरी कमी खले अब तुझे...
बस इस आस में;
मरने से पहले तेरे कमरे की देहरी से झांक जाती हूं..
और तू खुद में मशगूल इतना कि,
ना मेरी ज़रूरत न ज़ेहन में मेरा ख़याल ही है...
बस इस सोच में घुलती हूं औ तुझे मालूम भी नहीं होता
मैं तेरी नज़र के सामने हो कर भी.. हर पल थोडा-सा और गुम हो जाती हूं...
लोगों को लगता है कि जीने के बहाने मरने की मोहलत नहीं देते,
उन्हें क्या ही मालूम?
कि किस पल में मैं सदियां जी जाती हूं और...
किस पल में सांसें ले कर भी कई मौत मर जाती हूं...

Tuesday, November 22, 2011

"सुकून" के अपहरणकर्ताओं से...चंद बातें


मैं उन लोगों की तलाश में हूं जिन्होंने "सुकून" का अपहरण कर लिया है.. मगर उन लोगों तक पहुंचने का कोई सिरा नहीं मिलता इसलिये सोचा कि वो सब यहां लिख देना चहिये जो मैं उन से कहती... "सुकून" के अपहरणकर्ताओं से...

मैं चाहती हूं कि वो जानें कि उस शाम जब वो "सुकून" को चुरा कर दूर ले गये थे... अम्मा बहुत रोई थीं और बाबा अपने अंदर का जो कुछ आंसुओं में बहा नहीं पाये, वो हर रात उनकी जागती आंखों से झांकता है और सवेरा होने से पहले-पहले फिर से उनके अंदर कहीं दुबक कर बैठ जाता है.

उन लोगों को शायद पता हो कि उस रात के बाद से दुनिया में कोई नहीं सोया... औरों की तो जाने देते हैं.. मैं पूछना चाहती हूं कि क्या वो खुद ही चैन से सो पाते हैं? हम तो खोये हुये "सुकून" को याद कर के तमाम रात तमाम कर देते हैं मगर "सुकून" की पहरेदारी में लगे उन लोगों की पलकें झपक पाती हैं?

वैसे जिन्होंने खोया और जो पा कर रखवाली कर रहे हैं; उनके बीच भी बहुत से लोग हैं जो इस सोच में चैन से सो नहीं पाते कि ऐसा क्या ही था जिसके जाने से दुनिया 'इस कदर' बदल गई?
फिर, जिन्होंने खोया और जो पा कर रखवाली कर रहे हैं; उनके इर्द-गिर्द भी बहुत से लोग हैं जो इसलिये बेचैन हैं कि उन्हें पल-पल निगाह रखने की फिक्र है कि खोने वालों और पाने वालों की दुनिया 'किस कदर' बदल गई?

तो मेरे प्यारे "सुकून" के चोर/चोरों से मैं बस यही कहना चाहती हूं कि उन्हें पूरी कायनात से बद्दुआऐं मिल रही हैं... उनके सिर सारी दुनिया को जगाये रखने का इल्ज़ाम है. हालांकि मैं कोई बद्दुआ नहीं दे रही क्योंकि मैं और मेरे जैसे कुछ ही और लोग हैं जो जानते हैं कि "सुकून" को चुरा ले जाने वाली रात से आज तक वो लोग भी जाग रहे हैं.

तो उन्हीं लोगों की बेहतरी के लिए मैं कहती हूं कि "सुकून" को लौटा दो वरना मेरी दुआओं का कवच अकेला इतनी बद्दुआओं से तुम्हें बचा नहीं पायेगा...

Friday, November 18, 2011

तुम्हारे ख़यालों के झूले पर मेरी सोच की पींगें...


मातम मनाऊं कि तुम्हें ना मेरी फिक्र, न ज़रूरत, ना चाहत या कि फ़ख्र करूं कि कुछ लम्हों को ही सही मगर तुमने मुझे टूट कर चाहा था और मैं मुतमईन हूं ये सोच कर कि उन चंद लम्हों में मेरे सिवा किसी का ख़याल तक नहीं आया था तुम्हें...

एक और शाम अपनी उदासी और तुम्हारी याद की date plan करने में बर्बाद कर दूं कि अब वो पल तुम्हें एक पल को भी याद नहीं आते या कि बगिया की चिडिया को उससे भी ज़्यादा चहक कर बताऊं कि कल रात तुम्हारा sms आया था. माने कि तुम मुझे नहीं भूले, बस वो लम्हे मिटा दिये हैं अपनी memory से...

चिढ कर, सबसे झगड कर खुद को कमरे में बंद कर के ये सोचूं कि क्यूं तुम मुझे इतना नासमझ समझते हो कि कभी कोई हंसी या कोई आंसू साझा नहीं करते या कि तुम्हारी लिखी इस बात का printout बिस्तर की सामने वाली दीवर पर चस्पा कर दूं कि; "ऐसा सोचते हुये तुम अकेली नहीं होतीं" जाने ये कहते हुये तुमने मेरी कौन सी सोच के बारे में सोचा होगा!!! ये सोच कर ही मैं मुस्कुरा देती हूं.

क्या करूं और क्या ना करूं जैसे कितने ही असमंजसों के बीच झूलती मैं जाने कौन-कौन से काम निबटाये जा रही हूं.और देखो तो... ये क्या किया मैं ने अपनी बेख़याली में...

तुम्हारी image पर छाई गर्द मैंने अपने उजले दुपट्टे से साफ कर दी है. तुम्हारे लिए ऐसा करने को मेरा भविष्य किस निगाह से देखेगा ये तो नहीं पता मगर मेरे-तुम्हारे अतीत से मेरे 'वर्तमान' ने कभी नफरत नहीं की है... जानते हो ना तुम???

Tuesday, November 15, 2011

किसी रात यूं भी लिखा था...


६ नवम्बर' २०११

आधुनिकता वादी होने का दावा करने वाले उन तमाम पुरुषों की तरह तुम्हें भी यही लगता है ना कि तुमने मुझे खुद जितनी ही आज़ादी दी हुई है? वैसे कुछ बहुत ग़लत भी तो नहीं कहते तुम्.. मैं हर वो चीज़ खरीद सकती हूं जो हमारे social status को suit करता हो, हर वो कपडा पहन सकती हूं जिसमें मेरे साथ चलते हुये तुम्हें कोई झिझक ना हो, व्वो सब कुछ लिख-पढ सकती हूं जो तुम्हारे male ego को ठेस ना पहुंचाये, भरे बाज़ारों में चलते हुये सिर ढंकने या झुकाने जैसी कोई बंदिश भी मुझ पर नहीं है.

मगर खुल कर हंसने की ये आज़ादी मुझे नाकाफी मालूम होती है, तुम तो बस मेरी उदासी को तुम्हारी कमीज़ तरबतर कर बह जाने का हक़ दे दो. मेरी सूरत ही तो मेरी सुन्दरता का पैमाना नहीं, मुझे तो बस मेरी तमाम सादगी के साथ कमसूरत लगने का अधिकार दे दो. समझदार बने रहने की कोशिश करते-करते मैं ऊब गई हूं, मुझे मेरी बेफिक्री और लापरवाही के साथ कमअक्ल बने रहने की इजाज़त दे दो...





८ नवम्बर'२०११

मुझे वो किताब बेहद याद आती है जो फकत इसलिये पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कर के फेंक दी कि उसे पढते हुये तुम याद आते थे.

और आज.. आज जब तुम इतने करीब हो कि तुम्हारे चेहरे, चेहरे की हर लकीर को छू सकती हूं.. हर परत को टटोल सकती हूं तो ऐसा करते हुये अक्सर ये ख़याल आता है कि इस चेहरे की जगह वो किताब होती तो तुम्हारा अक्स कितना उजला होता मेरे ख़यालों में!!! तुम्हारा प्यार कितना पाकीज़ा रहता मेरी सोच में!!!

मगर अब वो किताब नहीं और अगर खुद को बहलाने की कोशिशें छोड कर देखूं तो वो पहले वाले तुम भी तो नहीं. बस तुम्हारा और उस किताब का अतीत है जिसे दोहराते हुये निगाहें और लब इतना थक चुके हैं कि ना आंसू शिकायत करते हैं ना बातें ही...





१० नवम्बर' २०११

मैं उस लडकी को जाती तौर पर बिल्कुल नहीं जानती, बस उसकी तस्वीरें देखीं हैं.. किस्से पढे हैं. मुझसे कुछ बरस बडी होगी शायद् उसके हर किस्से में मैं अपनी झलक देखा करती हूं. मैं अक्सर सोचा करती हूं कि अगर मुझे थोडी-सी.. ज़रा-सी आज़ादी और मिलती तो मएं ठीक उस के जैसी होती. मगर इस सब के बावजूद मैं उसे पसन्द नहीं करती. जाने कितने ही लोगों की बेवज़ह तारीफ करती हूं मगर उसके लिखे पर तारीफ का एक बोल भी नहीं जबकि वो उन चंद लोगों में से है जिनका लिखा कहीं गहरे तक धंस जाता है और कई दिनों तक अंदर ही अंदर घुलता-घुमडता रहता है.

जाने क्य़ूं उस लडकी से एक अज किस्म की ईर्ष्या है जिसमें घृणा के किसी भाव के लिए कोई जगह नहीं है.. कुछ कुछ वैसी ईर्ष्या जैसी शायद अपनी बहन से होती है.

खैर.. पिछले कुछ दिनों से लगने लगा है कि ग़र दुनिया के किसी एक शख़्स के लिये भी मन में मैल रखा तो ज़िन्दगी उजली नहीं हो पायेगी. बस इसलिये...

Saturday, November 5, 2011

ख़त जो बस काग़ज़ों ने पढा...


पता नहीं ऐसा सबके साथ होता है या नहीं मगर मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है, किसी किसी दिन मन एक अजीब किस्म के अवसाद से भर जाता है.ज़्यादा खीझ शायद इसलिये होती है क्योंकि इस उदासी.. इस अवसाद का दोष किसी पर मढा नहीं जा सकता सिवाय प्रेमचंद की किसी कहानी या जगजीत सिंह जैसे गायक के लिए श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे गये, अखबार में छपे, उन articles को जिन्हें पढ कर समझना मुश्किल होता है कि लिखने वाले ने इन्हें किसी को श्रद्धांजलि देने के लिये लिखा है या स्वयं के महिमा मण्डन के लिये.

मगर अपने अवसाद का दोष उन दुखांत कहानियों या भारी ग़ज़लों को देने से कोई फायदा नहीं होता. प्रत्युत्तर में ये ग़ज़लें या कहानियां आपसे झगडा नहीं करतीं और क्योंकि किसी तरह की बहस नहीं होती इसलिये ध्यान भी भटकने नहीं पाता.

ऐसे ही किसी दिन में अपने किसी बेहद करीबी से ये सब कह देने का मन होता है मगर फिर एक एक कर के सबके नामों पर गौर करने के बाद आपको अहसास होता है कि आप बेहद practical लोगों से घिरे हुये हैं और कुछ भी कहने से पहले आपको अपनी उदासी की वज़ह बतानी होगी जो यक़ीनन आपके लिये भी नितांत अजनबी है.

और तब मुझे "तुम" याद आते हो. हां, तुम... बताया तो तुम्हें किसी और के सामने मैं बेवकूफ नहीं बन सकती, सबने मुझे 'समझदार' का तमगा दिया हुआ है और मेरी निहायत बेवकूफाना बातें मेरे समझदार होने के भ्रम के साथ साथ उनके इस भरोसे को भी तोड देंगी कि मैं उनकी उलझनें सुलझा सकती हूं. मगर तुम्हारे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं, मैंने पहले दिन से ही तुम्हें समझदार बता कर खुद को बेवकूफ कहलवा लिया है.

कुछ भी तो नहीं जानती तुम्हारे बारे में मगर फिर भी ना जाने क्यूं ऐसी उदास शामों में तुम्हारी बातों के रंग घुले दिखते हैं. मगर पांच रोज़ पहले ही मैंने एक बार फिर खुद को तुम्हारे असर से आज़ाद कराने का वायदा किया है. ritual of 21 days जैसी किताबी बातों को भी अमल में लाने की कोशिश कर रही हूं.

तुमसे दूर रहने का हर संभव प्रयास कर रही हूं. तुम्हें call या message करने से खुद को रोकने के लिए ritual of 21 days का wallpaper चस्पा कर रखा है. अन्तर्जाल से यथासंभव दूरी बनाये हुये हू मगर लगता है मानो फिर से कायनात कोई साजिश रच रही है. हर तरफ दीवारें खडी करने के बाद जब मैं सुकून की सांस ले कर अखबार उठाती हूं तो आज वहां भी तुम्हारा नाम झांक रहा है. आधे घण्टे तक फिज़ूल खबरें पढने की नाकाम कोशिश करती हूं मगर हर २-४ मिनट में तुम्हारी (या तुम्हारे हमनाम किसी शख्स की) लिखी वो २ पंक्तियां पढ लेती हूं जो जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिये छापी गई हैं...

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोडा करते
वक्त की शाख से पत्ते नहीं तोडा करते

जाने क्यूं इन २ पंक्तियों में खुद को ढूंढना चाहती हूं. जाने कौन नासमझ ये सुनना चाहता है कि ये तुम्हारी आवाज़ है.. मेरे लिये. ख़ैर, मैं उस नासमझ को इसी ग़ज़ल का दूसरा मिसरा सुना कर समझा लूंगी...

शहद जीने को मिला करता है थोडा थोडा
जाने वलों के लिए दिल नहीं तोडा करते

कभी कभी सोचती हूं कि अपने बचपने भरी ज़िद को थोडा परे सरका पाती तो ये सब तुमसे कह सकती थी मगर मेरी expectations (जो करने का यक़ीनन मुझे कोई हक़ नहीं) मेरे ego को हवा देती जाती हैं और जाने कितना कुछ मेरे अंदर ही अंदर जल जाता है. और तब मुझे अपने आलस को परे धकेल कर diary-pen उठाना पडता है. ये पन्ने मेरे अवसाद को जज़्ब कर पाने की ग़ज़ब की काबिलियत रखते हैं, एक अजीब सी संतुष्टि देते हैं. मानो मैं इनकी महबूबा हूं और मेरा हर दुख, हर आंसू,हर हंसी, हर खुशी ये सहेज लेना चाहते हों. शायद इसीलिये जब सब मेरी उदासी से हार जाते हैं तो मैं कलम के हाथों एक ख़त इन काग़ज़ों के नाम भेज दिया करती हूं.ये काग़ज़ स्याही बन कर बहने वाली मेरी सारी उदासी को सोख लेते हैं.

इन पन्नों में किसी किस्म की insecurity भी नहीं. शायद इनकी मुझमें incredible faith है कि मैं लौट कर इनके पास ज़रूर आऊंगी या शायद दुनिया क तजुर्बा बहुत है और ये जानते हैं कि मैं फिर फिर लौटा दी जाऊंगी.. लोग कभी ना कभी मुझसे थक कर मुंह फेर लेंगे और ऐसा ना होने तक ये मेरा इंतज़ार करते हैं.

तुम्हारी कई लाख पलों तक बाट जोहने के बाद भी जब तुम नहीं आते तो मैं तुम्हारी और तुम्हारे जैसे हर शख्स की बुराइयां इन पन्नों से करती हूं जिन्होंने मुझे hold पर रखा हुआ है.

और आखिर हूं तो लडकी ही.. बुराइयां, निन्दा करने के बाद अवसाद भले ना मरे मगर तुम्हारी याद की शिद्दत में एक कमी-सी आ जाती है.

हर सवाल का जवाब मिलता है सिवाय इस बात के कि ढेर सारे दोस्तों और कई अजनबियों में से बस "तुम".. एक तुम ही क्यूं याद आते हो??? शायद इस्लिये क्योंकि तुम्हें चीज़ों की वज़ह नहीं देनी होती.मेरी फिजूल-सी किसी बात के बाद तुम्हारे मन में एक 'क्यों' नहीं उगता.

जैसे उस रात मेरी गहराइयों में उतरने के बाद जब तुमने कहा था कि, "तुम्हारी आंखें बहुत बोलती हैं, बहुत खूबसूरत हैं.. ठीक तुम्हारी उंगलियों की ही तरह"
और तब हमने ताक़ीद की थी कि हमारी करीबी के इन पलों में हमारी तारीफ मत किया करो.
ऐसी कितनी ही बातें सिर्फ इसलिये कह पाये क्योंकि यकीन था कि तुम पलट कर कोई सवाल नहीं करोगे.

ख़ैर...

Wednesday, October 19, 2011

... या ये मेरा भरम ही है!!!


कहीं पढा था कि स्रष्टि में केवल एक ही चीज़ शाश्वत है और वो है.. परिवर्तन; तो ज़ाहिर है कि चीज़ें और लोग आज से पहले भी बदलते रहे होंगे.. सम्भव है कि मुझमें भी हर बीतते दिन के साथ किसी नये परिवर्तन ने घर किया होगा. फिर ऐसा क्यूं लगता है कि बस पिछले छः महीनों में ही समय का चक्का पहली बार घूमा है? क्यूं ऐसा लगता है कि मेरे जन्म से ले कर मेरे २४ साला होने तक सब कुछ ठहरा हुआ था और अब अचानक वो सब, जिसकी मैं आदि थी, मानो गायब ही हो गया है.

और ऐसा नहीं है कि सिर्फ लोग और हालात ही बदले हों.
मैं.. मैं खुद भी इतनी बदल गई हूं कि आईने में अपनी आंखों में झांकते हुये जाने किसकी नज़र इतने गहरे तक भेद जाती है कि निगाह चुरानी पडती है.

जाने कितने ही भरम थे खुद अपने बारे में जो धीरे-धीरे किसी ग्लेशियर की तरह पिघल रहे हैं. इतने धीरे कि किसी का ध्यान तक नहीं जाता.. मेरा भी तो कहां ही गया था तब तक कि जब तक वो लकीर नहीं पिघल गई जिसे मैं अपनी हद कहती थी.

हां, हद ही तो थी जो मैंने खुद अपने लिये तय की थी. हद ही तो थी जो बरसों से खींचती थी अपनी तरफ.. लुभाती थी उस पार की दुनिया दिखा कर. मगर मैं अपने डर (जिन्हें तब मैं अपने उसूल समझती थी) के पहरेदारों की फटकार सुन कर कभी उस तरफ का रुख नहीं करती थी.

लेकिन क्योंकि परिवर्तन शाश्वत है इसलिये बांधा तो किसी को भी नहीं जा सकता. मैं भी एक दिन उन पहरेदारों की नज़र बचा कर निकल आई अपनी हद के इस पार की अजनबी दुनिया में. मगर पूरा का पूरा उस हद को कहां पार कर पाई? उस कंटीली बाड में मेरे वजूद का एक हिस्सा उलझ कर रह गया है.

अब मैं अधूरी सी बस एक प्रवाह के साथ बही जा रही हूं. सोचना... कोशिशें करना... खुद को बांधना.. मैंने छोड दिया है.

जाने मैं जी रही हूं या ये मेरा भ्रम ही है उस मोमबत्ती के जैसे जो अपनी रौशनी, अपनी लौ पर इतरा रही है बिना ये जाने कि वो धीरे-धीरे अपनी म्रत्यु की तरफ.. एक अंधकार की तरफ बढ रही है.

सच में, कौन ही जाने कि मैं जी भी रही हूं या ये मेरा भरम ही है!!!

Thursday, September 29, 2011

कहानियों की किस्में...

कुछ कहानियां या कहना चाहिये कि ज़्यादातर कहानियां खुद को और उन कहानियों के पढने वालों को सुकून बख़्शने के लिए लिखी जाती हैं. ये कहानियां पढ कर आपको अहसास होता है कि इसी दुनिया में कहीं सुख भी exist करता है. वो सुख जो आपको छलावा सा लगता है वो वाकई में कुछ लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा होता है. ये सुख भरी कहानियां आपको आपके बचपन की... मां की लोरी में आपके हिस्से की याद दिलाती हैं ये कहानियां आपको उस वक़्त में ले जाती हैं जब ऐसा कोई नाम आपको मुश्किल से याद आता था जिसे आपसे नफरत करने वालों की सूची में लिख कर उसे मनाने के तरीके सोच सकें. ऐसी कहानियां सर्दी में किसी कम्बल की तरह आपके गिर्द लिपट जाती हैं. आप इन कहानियों से connect नहीं कर पाते फिर भी ये आपकी पसंदीदा कहानियों में से एक होती हैं. और यद्यपि ये कहानियां आपको सिर्फ खुशी देती हैं फिर भी आप इन्हें तभी पढते हैं जब आप पहले से ही खुश होते हैं. ग़मज़दा होने पर आप इन कहानियों को एक मुस्कुराहट की आस में नहीं उठा लेते. आप इन कहानियों अपने ग़म की परछाईं से भी दूर रखना चाहते हैं कि कहीं ये अपना असर ना खो दें...

और फिर भी अगर किसी उदास शाम में उन खुश्नुमा कहानियों में से किसी एक को पढ लेते हैं तो उनका असर जाता रहता हैं. आपकी उदासी का एक हिस्सा उस कहानी के ऊपर गर्द की तरह बिछ जाता है और फिर उस कहानी की खुशी इतिहास बन जाती है क्योंकि अगली बार उस कहानी को छूते वक़्त आपको अपनी उदास शाम भी याद आती है.


फिर कुछ दूसरे किस्म की कहानियां होती हैं. ये कहानियां सच्चाई के इस कदर करीब होती हैं मानो पुराने घर के ४x४ फुट के बाथरूम में आपके हाथ के बेहद करीब से गुज़र जाने वली छिपकली. ये दूसरे किस्म की कहानियां आपको आपकी ज़िन्दगी की उस हक़ीकत के नज़दीक ले जाती हैं जिसे आप उस छिपकली की तरह ही नज़रअन्दाज़ कर देना चाहते हैं जबकि आपको पता है कि ये हक़ीकत ठीक... ठीक उस छिपकली कि तरह ही harmless है मगर आप दोनों से ही खूब बच कर निकल जाना चाहते हैं. इस हक़ीकत के आपके ज़ेहन से छू जाने पर एक अजीब किस्म के लिज़लिज़ेपन का अहसास होता है. आप खुद से घिन या नफरत या ऐसा सा ही कुछ करने लगते हैं और ये अहसास पानी की कई बाल्टियां ज़ाया करने के बाद भी धोया नहीं जा सकता. आप selective memory loss जैसे किसी चमत्कार की उम्मीद करते हैं. ये दूसरे किस्म की कहानियां आपके घिनौने सचों को किसी चुम्बक की तरह आकर्षित करती हैं और आप अपनी हक़ीकतों के रौशनी में आ जाने के ख़याल से ही बेतरह बौखला जाते हैं. इस किस्म की कहानियां आपकी गर्दन के चारों तरफ लिपट जाया करती हैं. सांस ऐसे भारी होने लगती है जऐसे सारी कहानी भागते हुये पढी गई है. उंगलियों के बीच कलम को दबाते हुये आप इसे तोड देना चाहते हैं. पता नहीं क्यों आपको लगता है कि ऐसा करना कहानी के असर को ख़त्म कर देगा. लेकिन ना कलम ही टूटती है और न कहानी का असर...

इन कहनियों को पढने का कोई सही वक़्त नहीं होता. ग़म या खुशी दोनों में से किसी भी मानसिकता में आप इन्हें पढें, इन्हें पढने के बाद आप सिर्फ खुद से नफरत ही करते हैं. कई बार खुद से वादे कि अब इन कहानियों को नहीं पढेंगे.. और कई बार ताज्जुब कि लेखक आपकी ज़िन्दगी को इतने करीब से कब देख गया?

ख़ैर... आप खुद से किये गये वादों की तरफ से मुंह फेर कर इन कहानियों को कई बार पढते हैं. शायद तब तक जब तक खुद से नफरत करते-करते थक ना जायें और फिराप खुद को समझाना सीख जाते हैं कि लेखक आपको जानता नहीं तो ज़ाहिर है कि ये आपकी कहानी नहीं और अगर ये आपकी कहानी नहीं तो तय है कि आप अकेले नहीं हैं जो इस कहानी जैसी गलतियां करते हैं या कर चुके हैं. भीड में ध्क्के खाने का ख़याल, भीड से अलग होने के ख़याल से कम डरावना होता है. तो जब आप वापस खुद को भीड का हिस्सा महसूस करने लगते हैं तो ये अवसाद, जो इन दूसरे किस्म की कहानियों से उपजता है, खुद-ब-खुद छंट जाता है. और ऐसा हो इसके लिये इन कहानियों का कई बार पढा जाना निहायत ज़रूरी है.

इन कहानियों कि सफलता का आधार शायद ये इंसानी फितरत है जो खुश होने पर और खुशी तलाशना चाहती है और उदास होने पर अधूरी कहानियों.. अंधेरे कमरों और उदास ग़ज़लों में और भी ग़म ढूंढा करती है.

ख़ैर.. फिलहाल ये दो ही किस्में... शयद फिर कभी किसी और किस्म की कहानी के बारे में लिखूं या पढूं... या शायद नहीं भी

Tuesday, September 13, 2011

पकी उमर के कच्चे ख़याल...


तुम्हारे साथ रात गये तक जागना मानो एक आदत सी बन गई है. ये मुई बुरी आदतें लगती भी तो ज़रा जल्दी ही हैं. वरना मैं, जिसके लिए नींद से बडी नियामत दुनिया में कोई दूसरी ना थी, कितनी आसानी से रात रात भर जागना सीख गई थी. तुम्हारी फिज़ूल, बेसिरपैर की बातें सुनते हुये कभी पलक भी झपकी हो ऐसा मुझे तो याद नहीं पडता. और अब जब सोचती हूं कि जल्दी सोने की आदत डाली जाये तो क्या मज़ाल जो ये आदत सुधरे?

एक ज़माना भी तो बीत गया. ऐसा नहीं कि तब तुम्हारा ख़याल नहीं था मगर उस ख़याल में मां जैसी फिक्र नहीं थी.बस अल्हड ज़िदें थीं.. कितनी ही बार तो बस तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए तुम्हें नींद से जगा देती थी. और कैसे अजीब से ही तो बहाने बनाया करती थी. कभी कोई मनगढंत डरावना सपना.. कभी कोई झूठी बीमारी. जाने तुम इन बहानों का सच समझ जाते थे या नहीं मगर मुझे बहलाने में कोई कसर नहीं रखते थे. उन रातों में मीलों दूर का सफर तय कर के तुम्हारे आलिंगन मुझे पुरसुकून कर जाते थे. फोन पर शब्दों में ढले तुम्हारे होठों के वो उष्ण उत्ताप मुझे जड बना जाते थे. जाने कैसी सी सिरहन होती थी कि कुछ बोलते ना बनता था. और जब तुम हंस कर पूछते थे कि, "क्या हुआ? फ्यूज़ उड गया?" तब मेरी आखों के सामने तुम्हारा शरारती चेहरा साकार हो जाता और मैं मुस्कुरा कर तकिये में सिर धंसाने के सिवा कुछ ना कर पाती.

तुम्हें कच्ची नींद से जगा देने का guilt जब जब सिर उठाता मैं उसे समझा देती कि बस एक class ही तो bunk करनी होगी नींद पूरी करने के लिए. कितनी बेफ़िक्री थी तब के उस अंदाज़ में...

और अब... जब एक करवट का भी फासला नही रहा हम दोनों के दरमियान तो जाने ये कैसी अजनबी सी झिझक हम दोनों के बीच पसरी रहती है इस बिस्तर पर. कितनी ही बार तुम सरेशाम सो जाते हो या remote हाथ में लिये टी.वी. में सिर खपाये रहते हो मगर जाने क्यूं अब तुम्हें छेडने की हिम्मत नहीं होतीं. अपने बचपने को तुम्हारी थकावट की लोरी गा कर सुला देती हूं जबकि जानती हुं कि तुम थके नहीं हो... व्यस्त तो बिल्कुल भी नहीं... और मेरी शैतानियों पर नाराज़ होना तो तुमने जाना ही नहीं फिर भी जाने क्यूं तुम्हें जगाये रखने के ना तो बहाने ही मिलते हैं ना ही जगाये रख कर करने लायक बातें.

झूठी बीमारी.. डरावने सपनों के बहाने तुम एक नज़र में पकड लोगे और फिर ऐसी आंखमिचौली में क्या ही मज़ा जिसमें मैं तुम्हें पहले ही बता दूं कि मैं साथ वाले कमरे में छिपी हूं. मज़ा तो तब है जब तुम्हें बिना बताये छुप जाऊं.. तुम दफ्तर से आ कर घर के हर कमरे में मुझे तलाशो.... बेतरह परेशान हो जाओ और जब थक हार कर हाथों में सिर लिये सोफे पर निढाल हो बैठ जाओ तब मैं हौले से तुम्हारी पलकों पर अपनी हथेलियां रख कर तुम्हें चौंका दूं. और मेरे सुनाये हज़ार झूठे सपनों के जवाब में मुझे खो देने का सच्चा डर लिए तुम मुझे बांहों में भींच लो... एक बार फिर मौन मुखर हो जाये और इस बार तुम्हारे होठों पर मेरे होठों कि छुअन से तुम्हारा फ्यूज़ उड जाये..

मगर ये भी आखिर है तो मेरी सोच ही... अब क्या किसी भीड भरे बाज़ार में खो जाने की मेरी उमर है जो तुम मुझे खोने से डरो. अब तो ज़्यादा से ज़्यादा इस बिस्तर पर तुम्हारे सिरहाने बैठी मैं सोच में ही खो सकती हूं. दिन में गैस के चूल्हे के सामने तपने के बाद, रातों में मैं कुछ ऐसे ही किस्से पकाती हूं... अपनी सोचों की उमस भरी गर्मी से तपा करती हूं. कई बार कुछ ज़ख़्म भी पका करते हैं लेकिन क्या ज़रूरी ही है कि जो पकाया जाये वो परोसा भी जाये???

Friday, September 2, 2011

बारिश का इन्तज़ार...


एक दिन लडकी के बाप ने कहा, "बच्चे जब पहले-पहल बोलना शुरू करते हैं तो मां-बाप हर शब्द .. हर बात पर कितना खुश होते हैं... कितना हंसते हैं. और फिर वही बच्चे जब बडे हो कर बोलते हैं तो मां-बाप के पास सिवाय आंसुओं और दुःख के कुछ नहीं रह जाता."


लडकी भी भोली-भाली... पुरानी हिन्दी फिल्मों की नायिका जैसी नहीं थी. तडक कर जवाब दिया, "जो बच्चे मां-बाप को अपनी मासूमियत के चलते इतने हंसी.. इतने गर्व के पल मुफ्त दे जाते हैं, उनकी खुशी का वक़्त आने पर मां-बाप तकाज़ा क्यूं करने लगते हैं? अगर उनकी खुशियां भीख के तौर पर झोली में डाल भी दें तो उस झोली को तानों से इस कदर छलनी कर देते हैं कि सारी खुशियां छन जाती हैं और सिवाय फटी खाली झोली के कुछ नहीं रहता."

उस रोज़ के के बाद से बाप-बेटी के बीच सन्नाटे का एक लम्बा रेगिस्तान पसरा हुआ है. दो-चार शब्दों के फूल जाने खिलते भी हैं या ये बी रेगिस्तान में भ्रम सी कोई मरीचिका है. हां, कडवाहट के बवंण्डर अक्सर उठा करते हैं.

उस रोज़ के बाद से लडकी रेत की तरह जल रही है और बाप सूरज की तरह तप रहा है. दोनों बारिश की किसी फुहार के इन्त्ज़ार मे हैं. क्योंकि दोनों अब थक गये हैं और दोनों को ही ठन्डक की आस है... दोनों कुछ देर सुस्ताना चाहते हैं. इस गर्मी.. इस जलन से राहत पाने के लिये बारिश से सीली हवा की नमी को अपनी सांसों में भर लेना चाहते हैं. दोनों बारिश की एक फुहार के इन्तज़ार में हैं...

Wednesday, August 24, 2011

ग्लानि


डिगता नहीं एतबार एक पल को भी तुमसे
बस खुद पर ही भरोसा कभी मुक्कमल नहीं होता
तुम हर घडी हर दौर क सहारा बने रहे
मरीचिका के पीछे पडा मेरा ही मन मेरा संबल नहीं होता

भले खुद को दे दूं ये दिलासा कि तुमसे कुछ नहीं छिपाया
मगर ये भी तो सच है कि बतान जैसा कुछ नहीं बताया
एक ही थी गलती दोनों की पर थोप दी तुम पर
प्रेम पा कर भी मेरा मन उज्जवल नहीं होता

तुम्हें पा कर सोचती हूं क्या लायक हूं तुम्हारे
मैं रेत्. तुम सागर्. शायद इसीलिये घुल गये किनारे
अम्रित पा कर भी विष की तृष्णा नहीं मरती
तुझसे वंदित हो कर भी मन निर्मल नहीं हुआ

हर रोज़ बस ये मांगती हूं खुद से और खुदा से
बख्शे मुझे मोती इबादत और वफ़ा के
ये भी नहीं कि पतित हुई मैं ज़माने के रिवाज़ से
मगर जाने क्यूं... गंगोत्री से जनम कर भी मेरा मन गंगाजल नहीं हुआ

Friday, August 19, 2011

बयार परिवर्तन की


आज मेरी कलम ने नम आंख नहीं लिखी
आज स्याही में कोई याद नहीं लिखी
आज उलझनों से पन्ने नहीं भरे
आज लेखनी ने नहीं किये ज़ख़्म हरे

कि आज जब लगी है आग सारे देश में
कि जब जन जन हुंकार भरे क्रांतिकारी वेष में
कि जब संसद की सर्वोच्चता सडकों पर आ जाये
कि जब फौलाद-से इरादे नभ तक पर छा जाये
कि जब बारिश ना भिगो पाये किसी जन का जज़्बा
कि जब अंधेरे में हाथ पकड कोई दिखा दे नई राह

तब मेरी कलम ने प्रेम के तराने नहीं लिखे
आज स्याही में वफ़ा के फसाने नहीं लिखे

कि जब बरसों से पकता कोई फोडा अचानक फूट जाये
कि जब दरका हुआ भरोसा किरच किरच टूट जाये
कि जब नामुमकिन-सा कोई स्वप्न साकार दिख जाये
कि जब संघर्ष की गाथा से दर-औ-दीवारें पट जाये
कि जब जागें युवा ऐसे, जैसे नींद खुद बिस्तरों से खींचे
कि जब भागें सभी ऐसे, जैसे यम पडा हो पीछे

तब मेरी कलम ने विरह की आंच नहीं लिखी
आज स्याही में मन की कोई प्यास नहीं लिखी

Wednesday, August 10, 2011

मां और कच्ची मिट्टी


यूं तो सब कुछ तुमसे साझा किया है फिर भी एक बात रह ही गई. इसलिये नहीं कि याद नहीं रही बल्कि इस्लिये कि कभी बताने का मन ही नहीं हुआ कि तुम हंस ना दो हमारे बचपने पर.

कई साल पहले.... जब हमारा प्रेम कच्चा ही था और हम दोनों भी कोई खास समझदार नहीं थे तब मिट्टी के एक छोटे से कुल्हड पर clay से अप्ना नाम तुम्हारे नाम के साथ लिखा था. उस वक्त तुम्हारा और अपना नाम साथ देख कर जितनी पुलकन होती थी उतनी तो शायद हमारी शादी का invitation card देख कर भी नहीं हुई होगी.

जानते हो? तब सारे घर से छुपा कर उसे ऐसे रखते थे मानो सूखा ग्रस्त गांव के किसी किसान को एक टुकडा बादल मिल गय हो. रात में सबके सो जाने के बाद एक बार उसे छू कर ज़रूर देखते थे.. शायद मुस्कुराते भि हों. हर घण्टे दो घण्टे में देख के आते थे कि सही सलामत तो है. जाने क्यूं ये डर था कि इसके चटकने पर हमारा रिश्ता भी दरक जायेगा. उन दिनों तुमसे ज़्यादा मेरी सोच पर वो कुल्हड काबिज़ था. बरसों इस डर को जीने के बाद हमने तय किया था कि इक रोज़ हम दोनों के नाम किसी पक्के पत्थर पर गढ़वा लेंगे.

फिर बरस दर बरस बीतते गये और जाने किस किस के आशिर्वाद फले कि तुम और मैं... हम बन ही गये. हमारी साझी छत वाले आशियाने के बाहर जब पहली बार उस लाल पत्थर पर हम दोनों का नाम साथ देखा थ तो मेरे आंसू छलक आये थे. तुम्हारे लाख पूछने पर भी जो वज़ह तुम्हें तब नहीं बतायी थी वो शायद आज मालूम हो गई होगी.

उस दिन के बाद मैं निश्चिंत हो गई. हर डर से आज़ाद ... तुम्हें सहेजना मानो भूलती सी गई. मग़र उस रोज़ जब उस लाल पत्थर को चटके देखा तो मानो सारे डर वापस ज़िन्दा हो गये. भागती हुई तुम्हें बताने अन्दर आई थी.. तुम कुछ गुनगुनाते हुये shaving कर रहे थे और तब ना जाने क्यूं ये खयाल आया था कि तुम जो इतने पास दिखते हो.. कहीं दूर तो कहीं दूर तो नहीं चले गये...

वैसे तो बचपन से ही मां से कुछ share करने की आदत नहीं थी मगर उस रोज़ लगा कि उनके सिवा कोई भी इस डर को समझ नहीं पायेगा. फिर हमारी बात सुन कर उन्होंने भी कोई response नहीं दिया.. बस कहने लगीं कि कला घर आ जाना, तुम्हारे लिये राजमा चावल बना कर रखेंगे. खुद पर इस कदर खीझ उठे थे कि बताया ही क्य़ूं जबकि पता था कि वो नहीं समझेंगी. कोई और दिन होता तो शायद phone पर ही झगड पडते मगर तब केवल उनसे अगले दिन मिलने की हामी भर कर call disconnect कर दिया था.

हमारे पहुंचने पर भी मां ने हमारी उलझन का कोई झिक्र नहीं किया. अपने दामाद और विदुशी की ही फिक्र थी बस उन्हें. लौटते वक्त हमेशा की तरह उपहारों के कुछ डिब्बे हमारे हाथ में थमा दिये थे. अब हम भी ना-नुकुर की formality में नहीं पडते थे. पता था कि हमारी शादी के सात साल बीत जाने के बाद भी आंसू उनकी पलकों के कोर पर ही रहते हैं.

घर वापस आ कर gifts देखने की कोई उत्सुकता नहीं थी मगर विदुषी school से आते ही हर डिब्बा खखोलने लगी थी कि नानी के खज़ाने का कौन सा रतन इस बार उसके हाथ लगा है.

मैं रसोई में थी जब उसकी आवाज़ आई; "Its lovely!!! ये तो मैं ही रखूंगी मां"

और तब मन मां से लिपट जाने को हुआ जब देखा कि ये तो वही मिट्टी का कुल्हड है जिस पर कच्ची उमर में मैंने हमारे नाम लिख दिये थे. साथ में मां का एक ख़त भी था...

.

बडकी,
प्रेम सदा बांधा नहीं जा सकता और खोने के डर की चरखी पर लिपटे शक के धागों से तो कतई नहीं.
उसे उडने दो... उन्मुक्त आकाश में. ग़र बांध ही सकती हो तो बांध लेना प्रेम की चरखी पर लिपते विश्वास में.

शायद आज तुम्हें ये शिकायत न हो कि मां तुम्हें समझ नहीं पाती कभी. और अब जबकि विदुषी तुम्हरी ज़िन्दगी में है तो मां को समझना तुम्हारे लिए आसान होगा.

तुम्हारी,
मां



उस शाम के धुंधलके में मां के बुढापे से कांपते हाथों की लिखावट मेरा हर डर चुरा कर ले गई. और रही-सही कसर विदुषी के पढने की मेज़ पर रखा वो मिट्टी का कुलहड कर रहा है जो चाहे खुद कच्चा हो मगर मेरी समझ को पकाने के लिये खुद मद्दम आंच सा तप रहा है.

Thursday, July 7, 2011

यूं ही कुछ टूटा फूटा सा...

ना तुम्हें सहेजे रखने की कभी इच्छा ही हुई और ना कभी ये विश्वास ही प्रगाढ हो पाया कि तुम्हें अपना.. केवल अपना बना कर रख सकती हूं...

तुम मेरे लिए एक jigsaw puzzle की तरह थे जिसे मैंने टुकडों में पाया और हर टुकडा बडे जतन से सहेजा. और इसमें बुरा लगने जैसा भी कुछ नहीं था... तुम पर मुझसे पहले और निश्चित रूप से मुझसे ज़्यादा अधिकार रखने वाले ढेरों लोग थे.. मां, बाबूजी, दीदी, भैया जी और तुम्हें चाचा, मामा जैसे रिश्तों में बांधती हमारे घर के झिलमिल दीपों की वो दीपमाला जिससे सिर्फ वो घर नहीं.. मेरा जीवन भी जगमगाता था.

मां, बाबूजी का प्यार फलीभूत हुआ और मुझे एक टुकडा तुम मिल गये... देवर ननदों की चुहलबाज़ियां जब ठहाका बनी तो एक और टुकडा तुम मिले... जब किसी की चाची या मामी बन कर फिर से अपना बचपन जिया तो तुम्हें पूरा करता एक और टुकडा पा लिया...

तुम्हें यूं टुकडों में पाने की और बांटने की अब आदत हो गई है. तुमसे जुडा हर शख़्स इतना "तुम जैसा" लगता है कि सबके साथ ज़िन्दगी मानो गुंथ सी गई है. तुम्हें ज़्यादा से ज़्यादा पूरा करने और पाने के अपने स्वार्थ के चलते मैंने बहुत से रिश्ते जीते हैं और अब... हर रिश्ता सांस-सांस जीती हूं. मेरे हर सपने, हर प्रार्थना का हिस्सा बने तुम्हारे अपने मुझे ऐसे ही अपना मानते रहें.. बस यही एक ख्वाहिश है.

मैं नहीं जानती ये सबके साथ होता है या नहीं मगर मेरे सपनों का घर केवल तुमसे या मुझसे पूरा नहीं होता. और फिर दो दीवारों से तो कमरा भी नहीं बनता, घर क्या बनेगा?जब तक बडों के आशीर्वाद की छत औ छोटों के प्यार का धरातल नहीं हो, तब तक तो बिल्कुल नही... है ना???

Sunday, April 17, 2011

तुम्हारा प्रेम और मेरे पछतावे...



जब कभी मैं सोचती हूं...
तुम्हारी वो सितार की झंकार सी बातें...
म्रदु कोमल क्षणों की गवाह बनी रातें...
तुम्हारे किस्से... तुम्हारी हंसी...
कल के स्वप्न... आज के प्रयत्न...
डर के जंगल में रात की रानी सा महकता तुम्हारा सानिध्य...

उस पल मैं चाहती हूं कि ये सब कुछ देर और ठहर जाये...
हो कर तेरी हंसी के घेरों में कैद, मेरा वजूद बेतरह बिखर जाये...

तब...
ना जाने ये रात किस जल्दी में होती है?
मेरी लाख मिन्नतों के बाद भी, कोई पल... एक पल से लम्बा नहीं होता...
भागी चली जाती है मेरे सपनों को रौंद कर
और बिखेर देती है सूरज की लालिमा मेरे कमरे में,
मानो सिन्दूर यहां फैला हो...
मेरे सपनों का प्रवाह पहले थमता फिर टूट जाता है,
मानो रातों रात बना और बिगडा जिन्नों का कोई मेला हो...

मगर...
जब भी मैं सोचती हूं...

मेरी कोई गयी गुज़री हरकत...
तेरे प्यार की झीनी चादर से झांकती कोई नफरत...
मेरी गलती... मेरे पछतावे...
मेरे गुनाहों के रेशमी फंदों के कसते धागे...
मेरी आत्मग्लानि के ज्वालामुखी से निकलते, हमारे प्यार को कुचलते.. कंकड, पत्थर और लावे...

उस पल में दुआ करती हूं कि बातों का हर प्याला रीत जाये...
अमावस से भी अंधेरी ये चांदनी रात बस किसी तरह बीत जाये...

मांगती हूं कि...
सूरज का उजाला हो...
तेरे विश्वास की नरमी से शीतल होती मेरे पश्चाताप की ज्वाला हो...
एक ऐसी दुनिया जहां सब हो... श्वेत...धवल... उज्जवल...
ना कोयला भी वहां काला हो...

तब...
ना जाने क्यूं ये रात सुस्ती ओढ लेती है?
कालिख से भी गहरी कोई कालिमा मुझे घेर लेती है...
हर पल एक सहस्त्राब्दि में बदल जाता है और...
तुम्हारे प्रेम को हर नज़र से बचाने का...मेरी मन्नत वाला ताबीज़...
मेरी करनी के चलते मेरे देख्ते देख्ते पिघल जाता है....

Monday, April 4, 2011

Give a missed call to Corruption...


Over this blog, I wrote many sensible as well as senseless posts. They might b good but they never made any difference to anyone but today I am using this platform to spread words over an issue which surely affects your life… “CORRUPTION”

I know a lot many of you would laugh over this.. most of people would not give it a damn but today I care of none. Even if one person get aware about the issue then I shall be immensely satisfied.

Today is the 5th April when an Ex Army officer and well known social worker Anna Hazare will go for Hunger Strike. Thousand of people are reaching JANTAR MANTAR to support him and a million of people, who are unable to reach there, will take fast at their own home to show their respect and support to Anna.

Please do not think k अकेले मेरे करने से क्या होगा??? We have avoided many serious issues with this excuse. Be a part of the campaign for your daughter who has the right to see a nation where she will not have to pay bribe.. do it for your son whose dreams will not be killed like yours because his parents are not famous industrialist and politicians.

I am not asking you to take fasts.. not to pray for Anna. But if you can do then please SAY “NO” TO CORRUPTION. Complain against the clerk who asks for bribe so that you may have your own pension. Say no to people who ask for money even in the temple premises to let you go in first.


Please dial 022-615 50789. After giving missed call to this no., u may get information related to this campaign. Visit the link http://www.facebook.com/IndiACor and http://www.indiaagainstcorruption.org

Spread words and make people aware about the campaign. Stand up people for you rights.. for a better tomorrow…


या फिर कभी ये मत कहियेगा कि 'इस देश का कुछ नहीं हो सकता'

Thursday, March 31, 2011

रंग... जो मैंने खो दिये


यूं तो तुमने कई चीज़ें बनायी हैं.. काली-सफेद सी... गहरे हल्के रंगों मे रची बसी. तुमने दिया है जवाब हर सवाल का... रखा है ब्यौरा हर एक हिसाब किताब का. मेरी भी तो ढेर सारी उलझनें बेनक़ाब की थीं. य़ाद है जब मैनें तुमसे कहा था कि रंग तो दिये हैं मगर कैनवास नहीं. इन रंगों से न किसी की तस्वीर सजी है ना तकदीर. मेरे पास पडे ज़ाया हो रहे हैं. और तब तुमने ताक़ीद् भी दी थी कि कुछ कंजूसी के साथ खर्च करना. मगर मैं तो मैं थी... अपनी किस्मत को भी पापा के दिये जेब खर्च की तरह समझ् कर उडाने निकली थी. काश् तुमने कोई सिग्नल दिया होतI कि गलत राह पर चल पडी हूं...

मुझे नफ़रत है उस दिन से जब मेरी उस से मुलाकात हुई थी मगर ये भी सच है कि वो मेरी ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत दिन था. वो ज़िन्दगी की तस्वीरों का ख़ाका खींचा करता था मगर तुमने मेरी तरह उसे रंग नहीं दिये थे.

और फिर... मैंने ना उसकी तस्वीरों को बेरंग रहने दिया और ना ही उसकी ज़िन्दगी को बेनूर. तुम्हारी हर ताक़ीद को भुला कर तुम्हारे दिये सभी रंग उसकी तस्वीर में सजा दिये... हमारे बीच 'तू और मैं' के फ़ासले मिटा दिये.

मगर पानी के बुलबुलों से ख्वाब कब तक ज़िन्दा रहते? तुम भी मेरी कमअक्ली को भला क्यूं और कब तक सहते?

तब अचानक एक दिन मुझे मालूम हुआ कि मेरी उम्र भर के रंगों से सजी 'हमारी तस्वीर' के बडे ऊंचे दाम मिले हैं उसे. उसके बाद उसने पलट कर मुझे और मेरी बेरंग ज़िन्दगी को पलट कर नहीं देखा. मैंने ज़रूर चंद दिन आंसू बहाये, मिलने की कोशिशें कीं.. 'काली स्याही' में कुछ ख़त भी लिखे...

सुनती हूं कि आज कल वो एक नयी तस्वीर बना रहा है. किसी और के रंगों से अपनी तक़दीर सजा रहा है.

जहां तक मेरी बात है तो मैं उसे बद्दुआ नहीं दे सकती और मेरि दुआओं की उसे ज़रूरत नहीं. क्योंकि मुझे यकीन है कि उसकी ज़िन्दगी का नूर और रंगीनियां क़ायम रहेंगी.

हर बार कुछ नयी दुआओं से जगमगाती...
हर बार किसी नयी प्रेम दीवानी के रंगों से सजी...

Monday, January 31, 2011

काश!!! घरों में भी पहिये होते...


सच कहूं तो अब उस मोड से गुज़रने का मन नहीं करता मगर मेरी बदकिस्मती तो देखो कि मेरे घर का रास्ता भी उसी मोड से हो कर जाता है और तब ये खयाल मेरे दिल में आता है कि काश!!! घरों में भी पहिये होते तो उसे धकेल कर तुम्हारी यादों से दूर ले जाती.

अब मैं मुड मुड कर तुम्हारे घर की तरफ भी नहीं देखा करती क्योंकि मै जानती हूं कि वहां से टकटकी बांध कर तुम्हारी आंखें मुझे निहार नहीं रही होंगी. तुम्हारे घर को मैं नज़रअंदाज़ कर देती हूं...तुम्हारी यादों को भी परे झटक देती हूं मगर उस मोड का क्या करूं जहां हर शाम तुम मेरा इंतज़ार किया करते थे? उस मोड पर तुम्हारे होने का अहसास मुझे आज भी होता है... लगता है जैसे मेरे स्कूल से लौटने की राह तुम आज भी देख रहे होगे और जान बूझ कर अपने हाथों में सिगरेट का वो अधजला टुकडा मुझे दिखाओगे. तुम जानते हो कि मेरी भवें तुम्हारी इस हरकत पर तन जायेंगी और मैं भी जानती हूं कि मेरी आंखों के वो जलते अंगारे देख कर भी तुम्हारी मुस्कान की शिद्दत में कोई कमी नहीं आयेगी.


अच्छा एक बात तो बताओ...क्या मैं भी तुम्हारी यादों में अब तक ज़िन्दा हूं? जिस तरह मैं इस चौराहे पर हर रोज़ ठिठक जाती हूं..हर रोज़ खुद को संभालती हूं... अपनी ही यादों के टुकडों को समेट कर आगे बढ़ जाती हूं... क्या तुम्हें भी मैं याद आती हूं???

क्या तुम भी उस शाम को इस चौराहे पर खडा देखा करते हो जब अपनी गुलाबी साडी में मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी और रिमझिम बारिश की बूदों ने सितारे टांक दिये थे मेरे आंचल मे... और फिर तुम आये थे मेरी पसंदीदा उस आसमानी कमीज़ में, मेरे सिर की छत बने... मेरे आसमान की तरह.

उस शाम हमारे बीच जो भी हुआ उसका अफसोस ना मुझे तब था और ना आज ही है क्योंकि मैं जानती हूं कि सितारों की पूर्णता आसमान से ही है... सितारों का वजूद... सब कहते हैं कि अधूरा है आसमान के बिना और अगर पूरा हो भी जाये तो किसी ना किसी की दुआ का तारा बन कर तो उसे टूटना ही होता है. मैं भी तुम्हारे प्यार के आसमान से टूट कर छिटक गई किसी की दुआओं का सितारा बन कर. ज़मीन के उस कोने में पडी, मैं आज भी तुम्हें एक टक देखा करती हूं और जैसा कि अक्सर होता ही है... टूटे हुये तारे को कोई याद नहीं रखता, जिनकी दुआ के लिए तारा टूटता है... वो भी नहीं. मगर मुझे खुशी इस बात की है कि तुम आज भी उस ऊंचाई पर हो जहां कई सितारे तुम्हारे आस पास जगमगाते हैं... तुम्हें पूरा करते हैं. मुझे खुशी है कि तुम उस ऊंचाई पर हो कि जब मैं तुम्हें देख्ती हूं तो कोई हमारे बीच नहीं आता. और ये भरोसा भी है कि आज भी किसी ना किसी कोने से तुम मुझे देख रहे हो.... किसी ना किसी तारे में तुम्हें मेरी छवि दिख रही है... कोई ना कोई दुआ तो तुम्हें मेरी याद दिलाती ही होगी... और तुम्हारी वही याद मुझे पूरा करती है चाहे मैं उस से छुट्कारा पाने की कितनी भी दुआ क्युं ना करूं..