"बुद्धू... गंवार... अनपढ... पागल लडके"
"क्या बात है! आज बहुत प्यार आ रहा है?"
"किसी को बुद्धू, गंवार, अनपढ तब कहते हैं क्या कि जब प्यार आता हो? तुम तो सच में ही पागल हो."
"अरे हां, तभी तो कहते हैं... तुम्हें नहीं पता?"
"नहीं... सब कुछ तुम्हें ही तो पता होता है."
"हां, ये भी है. चलो फिर हम ही बता देते हैं कि ये सब तब कहते हैं जब खूब... खूब...खूब प्यार आ रहा हो लेकिन छुपाना बताने से ज़्यादा आसान लगे."
"और जब कोई किसी को नालायक कहे तब? तब भी क्या सामने वाले पर टूट कर प्यार आ रहा होता है?"
"हां, तब भी... फर्क बस इतना है कि तब आप छुपाना नहीं, जताना चाहते हो"
"ह्म्म्म्..."
"समझीं... नालायक लडकी?"
"...."
"...."
"...."
"क्या हुआ? सच में समझ गईं क्या?"
"तुम्हारी बकवास सुन लें वही क्या कम है जो समझने की भी मेहनत करें?"
"फिर खामोश क्यूं हो गई थीं?"
"तुम्हें ये बताने के लिए कि हम हद वाला पक जाते हैं तुम्हारे फालतू फण्डों से.."
"इतना बुरा लगता हूं?"
"इससे भी ज़्यादा बुरे लगते हो."
"आच्छा???"
"हां... इतने बुरे... इतने बुरे कि अगर सामने होते तो तुम्हारी उंगलियां काट लेते ज़ोरों से"
"उंगलियां?"
"हां... उंगलियां. क्योंकि ये जादू जानती हैं, लिखती हैं तो मन कोरा कागज़ बन जाना चाहता है... छूती हैं तो पत्थर की मूरत..."
"फिर तो इन्हें सच में ही सज़ा मिलनी चाहिये कि ये उसकी जान सोख कर मूरत बना देना चाहती हैं जिसमें मेरी जान बसती है."
"अबे तेरे की!!! डायलॉग!!! "
"शुरु किसने किया था?"
"उसने जिसे शुरुआत से डर नहीं लगता."
"फिर तो वो तुम हरगिज़ नहीं हो सकतीं. तुम्हें तो आगाज़ से बडा डर लगता है."
"तब तक कि जब तक अंजाम के सुखद होने का भरोसा ना हो."
"और अगर मैं कहूं कि कोई मुश्किल तुम्हे छू भी नहीं पायेगी, तो?"
"तो मैं मान जाऊंगी... तुम कितने भी बुरे सही, झूठे नहीं हो."
"और?"
"और... हां!!!"
"उस सवाल के लिए जो आज सुबह मैंने पूछा था?"
"नहीं, उस कुल्फी के लिए जिसके लिए कल ना कह दिया था... ओफ्फो! तुम सच मे ही बुद्धू हो लडके."
"और बुद्धू लडका तुम्हें पा कर बहुत खुश है."
"और???"
"और ... और.. I Love You"
"Oh! say something else boy. I hate predictable people."
"ओके... तुम.. तुम बहुत बडी वाली नालायक हो."
"ह्म्म्म्... अब सुनने में नॉर्मल लग रहा है."
इस बात को बरसों बीत जाने के बाद भी लडकी को लडके की उंगलियां बिल्कुल पसन्द नहीं हैं कि आज भी लडके का लिखा पढ के वो सब भूल कर कोरे यौवन के दिनों में पहुंच जाती है.. आज भी अगर लडका उसे छू भर ले तो पल दो पल को सांस ऐसे थम जाती है जैसे सच ही मूरत बन गई हो...
:-)
ReplyDeletebeautiful......................
well expressed!!!
anu
............
ReplyDeleteइस बात को बरसों बीत जाने के बाद भी लडकी को लडके की उंगलियां बिल्कुल पसन्द नहीं हैं ......behtarin......
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावमयी अभिव्यक्ति...
ReplyDeletewow.... padte waqt sab jaise akho ke samne ho raha h lag raha tha... bhaut hi gazab andaaz laga....
ReplyDeleteअद्भुत शैली .. वाह बहुत खूब
ReplyDeletenice story....
ReplyDeletemonali ji
ReplyDeleteaaj ashish ke blog se aapke yahaan aana hua, aapka ye lekh padh ke man gadgad ho gaya hai!
khoobsurat dil ke darshan huye!
aapka bhee swagat hai mere yahaan!
Awesome..... really nice....
ReplyDeletevisit my blog... if time permits..
http://bhukjonhi.blogspot.in/
soch ....hi rah jati hai baki...aur jindagee nikal jati hai aage kahi ..."Tumhe soch kar"...
ReplyDeleteकल 21/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
बहुत बढ़िया कहानी...
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन...
bilkul alag see shaili mein likhti hain aap..thik vaise jaise bhavna ki nadee mein nahakar utree ho kalam
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