Monday, May 17, 2010

दिव्य


समन्दर करता है गुमान
विशालता का है अभिमान
सोचता है ना जाने कितनों को देता हुं जीवन दान
ना इस बात से बेखबर, ना इस तथ्य से अनजान कि...
इस विशाल, विस्त्रत जीवनदायी देह का स्वामित्व यूं ही नहीं मिल गया खारे पानी के सागर को
ना जाने कितनी नदियों ने अपना अस्तित्व मिटा के भरा है इस गागर को
खुद को मिटा के, बिना कुछ पाने की आशा के...
भेद सब हटा के, बिना कुछ खोने की निराशा के...
प्रेम के वशीभूत सर्वस्व निछावर किया
पता है कि कुछ हासिल नहीं होग मगर खुद को सौंप दिया
जानती हैं कि निरुद्देश्य, निर्ध्येय होने का ताना ही मिलेगा
खुदी को मिटाने का कोई सिल खुशनुमा नहीं होगा
लेकिन...
वो प्रेम क्या जो गणना करे...
जो प्रीतम को पाने को मंत्रणा करे...
जो त्रष्णा या घ्रणा करे...

ये प्रेम तो बस खुद को मिटाना जानता है...
सब कुछ लुटा के किसी को हंसाना जानता है...
सरिता का ये प्रेम्, सागर और सूर्यकिरण के मिलन पर भी ईर्ष्या नहीं करेगा...
क्योंकि ये प्रीतम की हंसी में मुस्कुराना जानता है

Tuesday, May 11, 2010

पराजित


मैं अंधेरे में ना जाने किस से समर किया करती हूं
मैं कुछ अपनों और कुछ परायों की मौत हर रोज़ जिया करती हूं

हासिल नहीं इस ज़द्दोज़हद से कुछ भी,
फिर भी जाने क्यूं ज़िद किया करती हूं?

समझाते हैं सभी कि,
ग़र मेरा है तो कहीं जा नहीं सकत और
ग़र पराया है तो मुझे पा नहीं सकता

मग़र मैं उसे पाने को 'रब से मन्नत' औ 'ज़माने से मिन्नतें' किया करती हूं
मैं कुछ अपनों और कुछ परायों की मौत हर रोज़ जिया करती हूं