Wednesday, November 30, 2011

मासूम धोखे...


परत दर पर्त उधेडते हुये जब तुम मेरे जिस्म को धागा-धागा खोल रहे होते हो, उस पल मैं बहुत चाहती हूं कि ना सोचूं लेकिन ये खयाल आता ही है कि क्या हो जो किसी एक परत के नीचे तुम्हें वो हिस्सा दिख जाये जिसमें मैंने अपनी बेवफाईयां छुपा रखी हैं???

यूं तो उस परत को मैं ने तुम्हारे लिये अपने स्नेह, तुम्हारी जागती रातों की फिक्र, तुम्हारे परिवार के लिए अपने समर्पण से खूब अच्छी तरह ढक रखा है मगर इन सब को छितरा कर बिखेर देने के बाद जब तुम मेरे मन के चोर से पहली बार मिलोगे तब क्या इनमें से मेरी एक भी अच्छाई तुम्हें याद रहेगी?

ख़ैर... ये तो मानोगे कि चोरी कभी खुशी से नहीं की जाती हर चोरी से पहले एक भूख, एक ज़रूरत सिर उठाती है और हर चोरी अपने पीछे एक ग्लानि, एक सुबूत छोड जाती है. मेरी चोरी पकडने पर तुम बस उस सुबूत को ही मत देखना. बल्कि उस ज़रूरत और ग्लानि को महसूस करने की भी कोशिश करना कि जिसे मैं ना चाह कर भी जी रही हूं.

मैं जानती हूं कि मैं बहुत...बहुत...बहुत ज़्यादा मांग रही हूं इसलिये अगर ये सब नहीं भी दोगे तो मेरे मन में तुम्हारी छवि पर नफरत का एक छींटा तक नहीं गिरेगा.. मेरे गीतों में शिकायत के बोल तो क्या धुन भी नहीं पाओगे कभी.

फिर भी मैं हर दिन दुआ करती हूं कि मेरे मन के चोर कभी तुम पर उजागर ना होने पायें. अपने प्रेम को दागदार करने की पीडा से गुज़रने के बाद मैं कभी नहीं चाहूंगी कि तुम्हारे विश्वास पर कोई धब्बा लगे...

22 comments:

  1. मोनाली जी,..
    बहुत खूब सुंदर आलेख,अच्छा लगा ...
    नए पोस्ट 'प्रतिस्पर्धा'में इंतजार है...

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  2. Hi...

    Dikha hai har jagah humko, Dare hain bewafayi se...
    Wafa gar na nibhayi hai, To darne se bhi kya hoga...
    Chhupa le sabse chahe hi, Wo man ke paap kaale se...
    Jara us din ki bhi soche, Jo khud se saamna hoga..

    Sundar bhav..

    Deepak shukla..

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  3. कुछ राज राज ही रहें तो बेहतर।

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  4. पता नहीं मोनाली इतना गहरा कोई सोचता भी है क्या? चोरी के बाद अगर ग्लानि रह गयी तो चोरी को माफ करने में कोई नुकसान नहीं हो सकता

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  5. बेहद संजीदा इकबालिया बयान ! प्रेम और पीड़ा में डूबा हुआ।

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  6. चोरी कभी खुशी से नहीं की जाती हर चोरी से पहले एक भूख, एक ज़रूरत सिर उठाती है और हर चोरी अपने पीछे एक ग्लानि, एक सुबूत छोड जाती है. मेरी चोरी पकडने पर तुम बस उस सुबूत को ही मत देखना. बल्कि उस ज़रूरत और ग्लानि को महसूस करने की भी कोशिश करना कि जिसे मैं ना चाह कर भी जी रही हूं... gahri soch

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  7. bahut sunder evm satik shadbo me prastuti bahut acchi lagi badhai .. kabhi hamare blog par bhi aayiye .



    http://sapneshashi.blogspot.com

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  8. बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति ..

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  9. apke lekh hamesha vicharneey aur man ki atrang reshon ko kahin gahrayi tak chhuu jate hain.

    sach kaha aapne agar ye bewafayi ke panne padh liye gaye to uske peechhe chhipi vivashta koi nahi padh payega...lekin tum khud to janti ho na un vivashtaaon, us bhookh ko...apne zameer ko jawab de sakti ho na? uske aage nazar utha sakti ho na? agar han to fir dar kaisa? apne aap se sharm nahi to fir darne ki koi baat nahi...

    sunder post.

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  10. बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद। ।

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  11. सहजता मनमोहक है और निर्दोषिता दिल को छू लेने वाली.

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है,मोनाली जी.
    मार्मिक और हृदयस्पर्शी.
    मन की परतों को सच्चाई से उजागर करती.

    प्रस्तुति के लिए आभार.
    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर अवश्य आईयेगा.

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  13. you have written your feelings which has directly evolved from your heart. only a few persons can express their feelings in such a nice words.
    very nice.

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  14. मोनाली जी
    मैं अब क्या कहूँ . इस छोटी सी रचना में आपने तो बहुत बड़ी बात कह दी है ... जो समझ कर ही समझा जा सकता है . बहुत गहरी और बहुत टीस की बात है है . कुछ न कह पा रहा हूँ ..

    बधाई !!
    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html

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  15. शब्दों का ये प्रवाह यूँ ही बह निकलता है या ....
    कमाल का केनवास तैयार कर जाती हैं आप ...

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  16. बेहद खुबसूरत लिखा है |

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  17. परत दर परत उधेडते हुए जब तुम मेरे जिस्म को धागा-धागा खोल रहे होते हो ,
    उस पल मैं बहुत चाहती हूं कि ना सोचूं लेकिन ये ख़याल आता ही है कि
    क्या हो जो किसी एक परत के नीचे तुम्हें वो हिस्सा दिख जाये
    जिसमें मैंने अपनी बेवफाइयां छुपा रखी हैं ???


    मोनाली जी
    सस्नेहाभिवादन !

    स्वीकारोक्ति शैली में लिखी आपकी रचना बहुत प्रभावित करती है …
    ये तो मानोगे कि चोरी कभी खुशी से नहीं की जाती
    हर चोरी से पहले एक भूख, एक ज़रूरत सिर उठाती है
    और हर चोरी अपने पीछे एक ग्लानि, एक सुबूत छोड जाती है…

    कमाल !
    मेरे गीतों में शिकायत के बोल तो क्या धुन भी नहीं पाओगे कभी…।
    आहऽऽ… !
    संपूर्ण समर्पण भाव !!

    सुंदर ईमानदार कविता के लिए साधुवाद !
    हार्दिक मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  18. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।
    मेरा शौक
    मेरे पोस्ट में आपका इंतजार है,
    आज रिश्ता सब का पैसे से

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