तुम अब भी याद आते हो. ना... उतना तो नहीं कि जितना आया करते थे मगर फिर भी एक दम गायब नहीं हुये हो अब तक. हालांकि अब तुम्हारी याद में वो धार नहीं रही कि सोच पर फेरते ही ख़याल कट कर रह जाये, बस किसी नरम पंख जैसी छुअन भर बाकी है.
अभी भी किसी-किसी रात तुम्हारी याद का कोई टुकडा सिर उठाता है जैसे हारमोनियम के किसी सुर पर से तार फिसल के हट गया हो लेकिन अब जीवन का राग बेसुरा नहीं होने देती मैं. कोई सुन पाये उससे पहले ही सब कुछ वापस उसकी जगह पर करीने से लगा देती हूं. टूटा-फूटा यादों का वो कोलाज अपनी बातों के सजावटी गुलदान के पीछे छिपा देती हूं.
जानते हो आज भी किसी के उंगली के पोरों में मेरा जिस्म तुम्हारी छुअन टटोलता है. आंखों को मींच के खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि हां, ये तुम ही हो लेकिन रूह छिलती-सी चली जाती है. सुबह मैं वहां तुम्हारी नज़रअंदाज़ी का मरहम लगा देती हूं. कोशिश करती हूं कि ज़ख़्म भर जाये लेकिन खुद घाव को ही ग़र मरहम से ज़्यादा दर्द प्यारा हो तो भला आराम कहां मुमकिन है!
मैं जानती हूं कि तुम अपनी स्ंपूर्ण पूर्णता के साथ कहीं और हो फिर क्यूं हमेशा तुम्हारे ख़यालों की चिंदी-चिंदी कर बिखेर दी कतरनें मुझे अपने आस-पास उडती दिखाई देती हैं?
इस सवाल के जवाब में मैं खुद से एक बेहद खूबसूरत झूठ कह देना चाहती हूं कि; "मैं भी तुम्हारे भीतर कहीं ज़िन्दा हूं अब तक... दिल में ना सही, दिमाग के किसी अंधेरे, सीलन भरे ज़रा से टुकडे में तुमने मेरी याद को मर जाने के लिये अकेला छोड दिया है."
अगर इतनी बेरूखी से भी तुम कभी-कभी मुझे याद करो तो मुझे चैन मिल जायेगा... मेरी सांसें थोडी कम मुश्किल हो जायेंगी... मेरी धडकन कुछ कम भारी... मेरा जीन ज़रा कम तकलीफदेह.
मैं कोशिश करती हूं कि कम से कम य कि ना ही लिखूं लेकिन अक्सर मेरा स्वार्थ मेरे अहम पर भारी पड जाता है. कभी- कभी ही सही मैं हर संभव तरीके से तुम्हें जता देना चाहती हूं कि मेरा तुम पर नेह शायद उतना उथला नहीं जितना तुमने या खुद मैंने समझा था.
मैं जानती हूं कि तुम ये सब पढ रहे हो मगर ज़रा संभल कर... बडी मुश्किल से सुलाई मेरी इन ख्वाहिशों को पढ या देख भले लो मगर इन्हें छूने की ग़लती ना कर बैठना क्यों कि तुम्हारे छूने भर से ये जान कर ज़िन्दा हो जायेंगी और फिर हम दोनों को चाहे या अनचाहे ताउम्र आंखों में एक-दूसरे का अक्स लिये फिरना होगा.
ख़ैर...
अभी भी किसी-किसी रात तुम्हारी याद का कोई टुकडा सिर उठाता है जैसे हारमोनियम के किसी सुर पर से तार फिसल के हट गया हो लेकिन अब जीवन का राग बेसुरा नहीं होने देती मैं. कोई सुन पाये उससे पहले ही सब कुछ वापस उसकी जगह पर करीने से लगा देती हूं. टूटा-फूटा यादों का वो कोलाज अपनी बातों के सजावटी गुलदान के पीछे छिपा देती हूं.
जानते हो आज भी किसी के उंगली के पोरों में मेरा जिस्म तुम्हारी छुअन टटोलता है. आंखों को मींच के खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि हां, ये तुम ही हो लेकिन रूह छिलती-सी चली जाती है. सुबह मैं वहां तुम्हारी नज़रअंदाज़ी का मरहम लगा देती हूं. कोशिश करती हूं कि ज़ख़्म भर जाये लेकिन खुद घाव को ही ग़र मरहम से ज़्यादा दर्द प्यारा हो तो भला आराम कहां मुमकिन है!
मैं जानती हूं कि तुम अपनी स्ंपूर्ण पूर्णता के साथ कहीं और हो फिर क्यूं हमेशा तुम्हारे ख़यालों की चिंदी-चिंदी कर बिखेर दी कतरनें मुझे अपने आस-पास उडती दिखाई देती हैं?
इस सवाल के जवाब में मैं खुद से एक बेहद खूबसूरत झूठ कह देना चाहती हूं कि; "मैं भी तुम्हारे भीतर कहीं ज़िन्दा हूं अब तक... दिल में ना सही, दिमाग के किसी अंधेरे, सीलन भरे ज़रा से टुकडे में तुमने मेरी याद को मर जाने के लिये अकेला छोड दिया है."
अगर इतनी बेरूखी से भी तुम कभी-कभी मुझे याद करो तो मुझे चैन मिल जायेगा... मेरी सांसें थोडी कम मुश्किल हो जायेंगी... मेरी धडकन कुछ कम भारी... मेरा जीन ज़रा कम तकलीफदेह.
मैं कोशिश करती हूं कि कम से कम य कि ना ही लिखूं लेकिन अक्सर मेरा स्वार्थ मेरे अहम पर भारी पड जाता है. कभी- कभी ही सही मैं हर संभव तरीके से तुम्हें जता देना चाहती हूं कि मेरा तुम पर नेह शायद उतना उथला नहीं जितना तुमने या खुद मैंने समझा था.
मैं जानती हूं कि तुम ये सब पढ रहे हो मगर ज़रा संभल कर... बडी मुश्किल से सुलाई मेरी इन ख्वाहिशों को पढ या देख भले लो मगर इन्हें छूने की ग़लती ना कर बैठना क्यों कि तुम्हारे छूने भर से ये जान कर ज़िन्दा हो जायेंगी और फिर हम दोनों को चाहे या अनचाहे ताउम्र आंखों में एक-दूसरे का अक्स लिये फिरना होगा.
ख़ैर...
:)
ReplyDeleteकल 02/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
रिमझिम सा लगा मन भावों का संघनन
ReplyDeletenice
ReplyDeleteआपकी यह रचना आज रविवार (01-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.मन के भावों का बेबाकी से चित्रण .
ReplyDeletehttp://dehatrkj.blogspot.com
ये प्रशांत बाबू स्माइली चिपका के काहे निकाल लिए हैं ???
ReplyDeleteलिखी तुम बहुत बढ़िया हो, हमेशा की तरह , वेलकम बैक भी है !!!
बाकी, "जब कभी खुश होते हैं, तुम्हारी याद कुछ ज्यादा आती है" जैसा माहौल हो गया है :) :)
बहुत खूबसूरती से अपनी ख्वाहिशों को सहेजा है आपने ।
ReplyDeleteमनोभाव खूब लगे...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत लेखन ...
ReplyDeletebahut sundar.....laga jaise mere bhi bhavo ko shabdo me piro diya ho........
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteयादों के बादल बरस रहे और खुबसूरत मोती झड रहे है……… सुन्दर चित्रण………….
ReplyDeletedil ko chute ehsas jo dil say nikal kar kagaz par bikhar jate hain....sundar
ReplyDeleteअनछुए से भाव .....
ReplyDeleteमन के गहरे भावों को समझ पाने के लिये उतनी ही गहरी उत्कण्ठा चाहिये।
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