Monday, December 31, 2012

काश! मैं लगा सकती आग उन सारे काग़ज़ों पर..

सोचती हूं.. ज़ाया ही गई वो सारी स्याही
जिससे मैंने या किसी ने भी लिखी नारी की व्यथा, दशा या सम्मान की कथा..
इससे तो बेहतर ये होता कि,
वो सारी स्याही बिखर जाती इतिहास, समाजशास्त्र की तमाम किताबों पर
जो हमें बरगलाती हैं... अहिल्या, वैदेही, शंकुतला के बारे में बता कर
बहलाती हैं.. नारी मां है.. पूजनीया है.. कह कर

काश! मैं लगा सकती आग उन सारे काग़ज़ों पर
कि मेरी बेटी को इन झूठी कहानियों में लिपटे,
सच्चे त्याग और दोगले संस्कारों के सबक नहीं पढने पडते

काश! मैं जा कर लिख पाती उन स्कूली किताबों के हर पन्ने पर कि,
बेटी, हम ऐसे जंगलराज में रहते हैं जहां भेडिये खुले आम घूमा करते हैं..
अपने दांतों, हाथों और आंखों से नोंचा करते हैं अपने 'शिकार' को
कि मैं तुझे परियों और राजकुमारों वाली कहानियां सुना कर किसी धोखे में कैसे रखूं ?
जबकि सच ये है कि,
जो जीना है तो हिंसक होना होगा तुझे...
                         ...अपनी सारी मासूमियत खो कर

कई डरों को बेखौफ़ छोड कर.. मर गई तो अच्छा हुआ!!

श्श्श्श... चुप रहो... मौन धरो...
घोर दुःख की घडी है..
आज "पहली बार" मेरे देश में,
एक लडकी बलात्कार के बाद मरी है.

वरना हम बलात्कारियों को मौका ही कहां देते हैं!
कोख से ज़्यादा सुरक्षित जगह क्या होगी?
हम लडकी को वहीं 'बिना कोई तकलीफ' दिये मार देते हैं...
गर किसी तरह बच गई तो 'उसके' पिछले जन्म के कर्मों के फल हैं..

अच्छा हुआ जो अपना सा मुंह लिये मर गई.
कल को जो जीती तो मांगती... ढेरों हक़
हक़.. मरज़ी से पहनने ओढने का
  .. मरज़ी से देखने परखने का
  .. मरज़ी से जीवनसाथी चुनने का

मैं तो कहती हूं कि भला हुआ जो मर गई
जीती तो मर्ज़ी से जी कर घर वालों को शर्मसार करती
कहीं सच बोलने का रोग पाल बैठती तो "समाज" में ग़लत उदाहरण पेश करती

कई डरों को बेखौफ़ छोड कर,
मर गई तो अच्छा हुआ... दो-चार के तो ज़मीर ज़िन्दा हुए

मगर कुछ लोगों का ज़मीर अब भी सोता है...
                   .. ओढे हुये पुंसत्व की मोटी रजाइयां
                   .. बगल में दुबकाये हुये घिनौनी हसरतें

अब गर इनके ज़मीर को जगाने के लिये भी,
किसी दामिनी के खून के छींटे ही चाहिये..

तो आओ लडकियों!!!
अपने उघडे बदन को परोस दो इनके सामने
कर दो "समर्पण" उनके आगे
जो पिता/ भाई/ प्रेमी बनने का ढोंग किये फिरते हैं
और तुम्हारे तन का नहीं तो मन का नियमित भक्षण करते हैं...

बता दो उन्हें कि इस तरह वो तुम्हारी नहीं, अपनी इज़्ज़त उतारते हैं
क्योंकि तुम्हारी इज़्ज़त मांस और हडडियों के ढेर में नहीं बसती
जो किसी के नोंचने-खसोटने से भरभरा कर गिर जायेगी...

बल्कि तुम्हारी इज़्ज़त उस सोच में बसती है..
.. जिसे तुम आनुवांशिकी में दे जाओगी अपनी बेटी को

जिसे तुम हरग़िज़ नहीं सिखाओगी चुप रहना.. सब सहना...
जिसमें तुम भरोगी ज़ोर कि,
वो अकेले ही दिखा सके हर वहशी को वहशियत का आईना...


Saturday, December 29, 2012

एक लडकी ही तो मरी है... :-/

एक लडकी ही तो मरी है...

मैंने खोल दी हैं घर की तमाम खिडकियां, बिछा दी है गुलाबी फूलों वाली नई चादर, टी.वी. पर set कर दिया है reminder नये साल पर आने वाले नय program के लिये.

ओह्! नये साल का resolution तो रह गया.
क्या कहा? देशहित.. नारीहित में संकल्प लूं? कसमें खाऊं उन्हें तोड देने के लिये?

क्यूं? ऐसा क्या हो गया है रातोंरात? "एक और" लडकी ही तो मरी है.. और मैं तो उसे जानती भी नहीं. हां मैं भी गई थी एक candle march में मगर वो तो बस सबको ये बताने के लिये कि मैं भी खासी संवेदनशील हूं.. और फेसबुक पर फोटो भी तो लगाने थे, image का ख़याल रख्ना पडता है यार...

क्या कहा??? जानवरों से बद्तर है मेरी सोच!! मैं खुद भी!!!
हो सकता है.. लेकिन मैं तो कई बरसों में मेहनत कर के सीख पाई हूं आपके सिखाये हुये नियम कायदे... अब आप ही उन्हें बदलने को कह रहे हैं?

आप ने ही तो मुझे 'बद्तमीज़' कहा था जब मां की किसी गलती पर पिताजी ने उनके सारे खानदान को तार दिया था और मैंने पलट कर कह दिया था कि, "ऐसे ही अगर मां आपके खानदान, अम्मा-बाबा को गालियां दे तो??" ... आप ही ने तो सच की categories बनाईं थीं सुविधा और संस्कार के हिसाब से.

आप उस भीड का हिस्स नहीं थे क्या जब किसी लडके-से दिखने वाले जीव ने चौराहे पर बैठ कर ऊंची आवाज़ में कुछ कहा था और आपने उसे 'देखने' की बजाय मुझे, मेरी पोशाक को देखा था.. मेरी सहेली ने बताया था कि उस रोज़ आप घर जाते हुये उसके लिये नये 'दुपट्टे' लाये थे.. भाई के साथ ट्यूशन जाने की हिदायत दी थी उसे (और लडके को सिखाया था कि किसी दुसरे के पचडे में मत पडना)... दिन ढलने से पहले घर लौट आने की भी हिदायत आपने फिक्र के wrapping paper में लपेट के पकडाई थी... आपकी ही तो बात मान रही हूं मैं, दूसरों के पचडे में नहीं पडती अब.

और मैं आपको क्यूं दोष दूं कि आप पुरुष थे, मेरा मन नहीं पढा गया आपसे? मेरी मां तो एक स्त्री थी.. उसने क्यूं मेरी बातें सुन कर माथा पकड लिया था अपना और कोसा था उस दिन को जिस दिन मैं इस घर में पैदा हुई. मैंने तो सोचा था कि उसे गर्व होगा मुझ पर ये जान कर कि "आज बस में एक बेहूदा आदमी को मैंने खींच कर झापड रसीद कर दिया".. अब मैंने गांठ बांध ली है ये बात कि ना खुद के खिलाफ हुये किसी गलत को गलत कहूंगी... न किसी और के प्रति हुये गलत को तवज्जो दूंगी.

आप भी उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हो ना जहां एक लडकी का चरित्र इस बात ये तय होता है कि उसने love marriage की है या arranged marriage...
आपके इस मानक के हिसाब से मैं खासी चरित्रहीन हूं. और जब चरित्र नहीं.. तो कैसा ज़मीर!... कैसा दुःख!!... कैसा दिखावा!!!

मेरे पास फ़कत कुछ वादे हैं खुद से करने के लिये जिनकी नुमाइश करने का मुझे कोई फायदा नहीं दिख रहा फिलहाल.. समय आने पर en cash करूंगी...

Friday, December 7, 2012

कसम पुराण

By God की कसम हद हो गई. किसी इज़्ज़तदार शख़्स की बेज्जती की जाये तो समझ भी आता है मगर.. हमारी बेज्जती... हमारी???

और अकेले बेज्जती हो तो जाने भी दिआ जाये कि हम कौन सा इज्जत हथेली पे लिये फिरते हैं.. लेकिन साथ में आरोप भी!!! और आरोप भी कोई ऐसा वैसा नहीं, 'खुद खुश हो के भी depression फैलाने का'
ये तो मतलब किसी नेता से compare किये जाने की हद तक घिनौना आक्षेप था, ऐसा नेता जो करोडों कमाये और हजारों दिखाये. (क्या आप जानते हैं कि गुजरात का मुख्यमंत्री एक चपरासी से भी कम सालाना तन्ख्वाह पाये)

ख़ैर मुद्दे पे आया जाये...
देवांशु निगम नामक एक तथाकथित BLOGGER ने हम पर ये इल्ज़ाम लगाया है कि सब कुछ मनचाहा मिल जाने के बाद भी हमारी पोस्ट्स सुसऐड नोट सरीखी होती हैं और उन्हें हर पोस्ट के बाद कॉल कर के पूछना पडता है कि हम निकल तो नहीं लिये भगवान जी को depress करने!!!

एक बार कहे, २ बार कहे.. चलो हम बेशर्म हैं तो ३ बार कह ले.. मगर बार-बार.. हर बार. बस हमने भी प्रतिज्ञा ली  अगली पोस्ट होगी तो बिना depression वाली वरना नहीं होगी.
तो बस आज हम हाज़िर हैं, बांचने को "कसम पुराण"... :-D

 कसम कब आई, कहां से आई ये सब तो पता नहीं मगर जब से सुनने-समझने की अकल आई , हमने कसम सदा आस-पास ही पाई.
"बहन तुझे मेरी कसम पापा को मत बताना कि तेरा चश्मा मेरे थप्प्ड से शहीद हुआ है"
"मोनी तुझे कसम है जो किसी से कही ये वाली बात" इत्यादि.. इत्यादि... :P

यहां तक तो चलिये ठीक था कि ऐसी कसमें आपको blackmailing के भरपूर अवसर प्रदान करती थीं.

मगर जनाब हद तो तब हो गई जब हमारे मां-बाप ऐसी हरकतों पर उतर आये; :O
"तुम्हें कसम है दाल पी जाओ"
"मोनी, कसम है ये सेब खाओ"
"सोनी, कसम है ये बालूशाही गटक जाओ"
"मुन्ना, बहुत झगडा हो रहा है ना... कसम है जो दो दिन आपस में  बात की तो.. "

बस हमारा कसम पर से विश्वास उठ गया. 'भरे बचपन' में कसम खाई कि अब से कसम बस तभी खायेंगे जब झूठ बोलना होगा.

हमारी माताजी हमारी "कसमभीरू" बहन से सच उगलवाने के लिये कसम नामक  युक्ति का गाहे-बगाहे प्रयोग करतीं, हम पर भी ये पैंतरा चलाने की कोशिश की गई;

"तुम्हें कसम है हमारी, सच सच बताओ कि फलाना 'लडाई काण्ड' में किसने किसे कूटा है?"
हमने कहा, "बोल हम सच ही रहे हैं मगर कसम नहीं खायेंगे, वो हम तभी खाते हैं जब झूठ पे सच्चाई की seal लगानी हो."
अब माताजी ने अपना ब्रह्मास्त्र निकाला,
"देखो झूठी कसम खाओगी तो हम मर जायेंगे"

होना ये चाहिये था कि बॉलीवुड फिल्मों से प्रेरित इस super senti dialogue को सुन कर हम पिघल जाते.. सच बताते.. खुद कुटते, बहन को कुटवाते.. इस कूटा-कूटी में २-४ झापड बिना गलती वाले बच्चे को भी रसीद किये जाते. मगर हुआ यूं कि हमने लोटपोट हो कर खिलखिलान शुरु कर दिआ कि,

"मम्मी अगर ऐसा होता तो मज़ा आ जाता. कोई हथियार्, बम, गोला, बारूद पर पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं.. यूं ही सारे दुश्मन तबाह हो जाते" :D
खैर.. कूटे तो हम तब भी गये होंगे मगर आप मानें या ना मानें idea गज़ब का था...

अखबार में खबरें आतीं, 'नलकूप पर सोते बुज़ुर्ग की कसम खा कर हत्या'

हमारे नेता एक-दूसरे को कसम देते कि, 'देखिये आपको पाकिस्तान की कसम जो आपने कोई घोटाला किया.' लीजिये साहब, अगले दिन पाकिस्तान तबाह... credit goes to 'घोटाले वाले नेताजी' जिन्होंने देश की खातिर सीने पे गोली नहीं, दामन पे दाग़ लिया.

ओबामा लादेन को मारने की साजिश के तहत कहते, "कसम लादेन की.. मैं भारत को नौकरियां outsource करने के खिलाफ नहीं हूं." बस... लादेन मियां टें!!!

फिल्मों में हीरो धमकी देता, "कुत्ते-कमीने मेरी हीरोइन को वापस कर दे वरना मैं तेरी कसम खा जाऊंगा"
और बाज़ी कुछ यूं पलटती कि मोना डार्लिंग हीरो की "बेचारी अंधी मां" को ले कर अवतरित होती कि, "खबरदार जो किसी ने किसी की कसम खऐ.. मेरा हाथ इस बुढिया के सिर पर है... अगर किसी ने होशियारी दिखाई तो मैं इसकी कसम खाने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाऊंगी"

वैसे मार्केट में कसमों के प्रकार भी उपलब्ध हैं.. 'विद्यारानी की कसम' जैसी मासूम कसमें हैं तो कुछ international level की कसमें भी हैं जिन्हें खान, चबाना, निगलना और हज़म करना सबके बस की बात नहीं, ये कसमें ज़्यादातर सच्चे आशिक अपनी 'आशिकाइन' की सच्चाई जानने के लिये खाते हैं. जैसे कि- 'मरे मुंह की कसम'. मतलब कि मुई कसम ने जीते-जी तो चैन लेने ना दिया, अब मरी मरे मुंह पे भी आ के चिपक गई.

ख़ैर... आपको इस सब से परेशान होने की ज़रूरत नहीं. कसम के असर से निजात पाने के लिये कई टोटके भी उपलब्ध हैं :)

मेरी बहन का फेवरिट था, "कसम कसम चूल्हे में भसम"
अब इसे modify कर के जमाने के अनुरूप, "कसम कसम ओवन में भसम" कह सकते हैं... यू नो चूल्हा इज़ सो आउट ऑफ फैशन नॉव अ डेज़... ;)

वैसे इस देहाती तरीके से ऊपर का तरीका है, "हरी सुपारी वन में डाली सीता जी ने कसम उतारी". मगर एक तो आज कल वन रहे नहीं (जाने किस कमबख्त ने कसम खा मारी सारे जंगलों की), दूसरे अगर आप नास्तिक हैं तो आप सीता जी वाली कसम पे भरोसा नहीं करेंगे. :B

लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं, "आप लोहा छू के हरी पत्ती देख लो, कसम फौरन उतर जयेगी" ये टोटका अक्सर तब काम में आता था जब कक्षा में मास्साब मौजूद होते थे और बोलते ही सज़ा देने का प्राव्धान था.

ओह!!! आप तो BLOGGER हैं आपकी रचनात्मक संतुष्टि के लिए इसे थोडा creative होना चाहिये. तो फिकर नॉट साहब.. तुकबन्दी भी मौजूद है...

पूछा जायेगा, "तेरे पीछे क्या?"
आप कहेंगे, "चक्की"
"कसम उतरी पक्की".. खतरा टल जायेगा...

ये तो रहा उतना कि ज्ञात है हमें जितना.. अब अगर कसम का कोई आकार.. कोई प्रकार... कोई तथ्य-कथ्य, उपचार रह गया हो तो आपको आपकी खुद की कसम बताइयेगा ज़रूर.. :) :) :)

Saturday, November 3, 2012

रिश्ता अंधेरों का... रिश्ता आवाज़ों का...

वो आज जा रहा है.. दूर... मुझसे दूर, जाने किसी के पास या सबसे दूर!




अब उसे परेशान करना चाह कर भी मैं उस तक नहीं पहुंच पाऊंगी. उसकी आवाज़ की ताजगी शायद अब लम्बे अरसे तक नसीब ना हो. बासी पुरानी आवाज़ से काम चलाना होगा जो तेल, चीनी, नमक डाल कर कण्टरों में भर कर Preserve कर दी है.

उसने एक बार कोई कहानी सुनाई थी जिसमें लोग पेडों को confession box बना कर अपना सारा सच फूंक आते थे लकडी के कानों में. अब चूंकि मुझे भी बदले में कुछ कहना था तो मैंने भी उसे अपने बचपन से उठा कर एक कहानी अपनी सांसों में gift wrap कर के दी थी जिसमें पेडों से बने साज़ों ने लोगों के सारे सच दुनिया के सामने उजागर कर दिये थे.

उसकी सारी समझदारी भरी बातों के जवाब में बस मेरा जाहिलपन ही मुखर होता था मगर फिर भी वो कहता था कि "हम दोनों एक-दूसरे के confession box हैं." बिना इस डर के कि  हमारे सचों के लिये हमसे नफरत भी की जा सकती है, हम एक-दूसरे के कान में बिना झूठ की मिलावट के कभी शहद से मीठे और कभी ज़हर से कडवे सच उगल देते थे. और उन दिनों में अक्सर सोचा करती थी कि अच्छा है जो हमारे बदन की हड़ी-चमडी से कोई साज़ नहीं बनाये जा सकते और जिस तरह उसके सच मेरे साथ खाक़  हो जायेंगे, मेरे सच भी दुनिया की नज़रों से बचे रहेंगे. वैसे अगर मेरे सच उसकी दुनिया में सरे-बाज़ार हुये भी तो क्या ही फर्क पडने वाला है! ये भी एक तसल्ली ही है कि उसकी दुनिया  में मुझे और मेरी दुनिया में उसे कोई नहीं जानता.

समझ ही नहीं आता जाने कैसे तो शब्दों का जामा पहनाया जा सकेगा हमारे रिश्ते को. कैसा अजीब सा किसी परिभाषा में ना बंध सकने वाला रिश्ता.. उन रिश्तों से एक दम अलग जो अपने पुरअसर वजूद के साथ आप पर हावी नहीं रहते.

ऐसा रिश्ता जो होता है तब भी आपको नहीं बांधता और जब नहीं होता तब भी आपको भरोसा होता है कि कहीं कोई तो है जिससे कभी भी कुछ भी बेझिझक कहा जा सकता है, बिना judge किये जाने के डर के.ऐसा रिश्ता जिसमें भरोसा रहता है कि चाहें लाख अंधेरे आपको घेर लें, एक जगह ऐसी भी है जहां रौशनी है... जहां जा कर खुद को ढूंढा जा सकता है... जहां तमाम guilts के बाद भी आंखों में आंखें डाल के बात की जा सकती है.

रिश्ता जिसे नाम देना चाह कर भी किसी रिश्ते की हद में नहीं बांधा जा सकता... रिश्ता जो कोई नाम ओढते ही मैला पड जायेगा.. प्यार, परिवार, दोस्ती, वासना इन सबमें थोडा-थोडा बंटा हुआ और फिर भी इन सबसे परे... रिश्ता अंधेरों का... रिश्ता आवाज़ों का... रिश्ता आज़ादियों का... रिश्ता मेरा और तुम्हारा

Wednesday, October 17, 2012

तुम्हें क्यूं लगता है कि मैं बडी हो गई हूं?

उसे हर बात, मेरा हर राज़ बिना कहे मालूम हो जाता मगर वो मेरी सबसे अच्छी सहेली नहीं थी क्योंकि सहेलियां ढूंढी और बनाई जा सकती हैं. वो मेरी ख्वाहिशें, मेरे ख्वाब पूरे करना जानती थी मगर वो कभी भगवान नहीं बन सकी मेरे लिये क्योंकि ज़िन्दगी में ऐसे दौर भी आते हैं जब भगवान के होने पर संदेह हो सकता है. उसे उन रास्तों की कोई समझ नहीं थी जिन पर मैं चलना चाहती थी मगर वो अकेली थी जिसने उन रास्तों के सही नहीं बल्कि 'सुरक्षित भर' होने की दुआ मांगी थी.

उसने मेरे बचपन में किताबों और अखबारों के ढेर से मेरे लिये नन्हीं कहानियां बीनीं. उसने मुझे बताया कि गिरना बुरा नहीं, गिर कर ना उठ पाना बुरा है. उसने मुझे सूखे आटे को रोटियों में तब्दील करना सिखाया. उसने मुझे सिखाया कि चूल्हे पर सब्र पकाना आने से ज़्यादा मुश्किल कुछ नहीं. उसी ने बताया कि मुस्कान से बेहतर ऋंगार कोई नहीं. हालांकि मैं सीखी नहीं लेकिन उसने मुझे सिखाने की कोशिश की कि सुख आपके अंदर नहीं बल्कि आपके करीबियों की मुस्कुराहट मे है. उसने बताना चाहा कि मन मार कर मुस्कुराने से ज़्यादा मुश्किल और 'सुकून भरा' कुछ भी नहीं. उसने मुझे अदृश्य पर भरोसा करना और दृश्य को खुले दिमाग से टटोलना सिखाया.

                                                                                                                                                                             

बस वो मुझे ये सिखाना भूल गई कि अगर कभी वो रूठ जाये तो उसे क्या कह कर मनाया जाये... कि उसे कैसे बताया जाये कि वो मेरी ज़िन्दगी के सबसे खास लोगों में भी सबसे खास है.... कि जैसे चांद-तारों को रौशनी सूरज से मिलती है, उसे नहीं मालूम कि मेरी मुस्कुराहट उसके अधरों से खिलती है.

उसने मुझे तमाम रोगों के लिए घरेलू नुस्खे सिखाये, बस उसका दिल दुखाने से पैदा होने वाली ग्लानि को मिटाने का तरीका नहीं बताया.


उसने मुझे नहीं बताया कि उसके बिना कैसे रहा जाता है, कि रात भर जब नींद ना आये और कोई बालों में उंगलिया सहलाने को ना हो तो कैसे सोया जाये... जाने उसने नहीं सिखाया या मैंने नहीं सीखा मगर मुझे पता नहीं कि जब ऐसा कुछ महसूस हो तो उसे कैसे बताया जाये, कैसे जताया जाये कि मैं अब भी बडी  नही हो पाई हूं...

Tuesday, October 2, 2012

किस्सा एक दम सच्चा है...

अजनबी... नितान्त अजनबी. शहर, घर, लोग, यहां तक कि लोगों के नाम भी अजनबी.

वो एक अलग दुनिया की लडकी थी.. और एक रोज़ उसकी दुनिया में एक मुसाफिर आया. उन दोनों की दुनिया अलग होने के बावज़ूद लडकी के मन की डोर का एक सिरा उस मुसाफिर के उलझे मन के धागों में अटक गया. इन कच्चे धागों को तोडने के कई पक्के यत्न किये गये. लडकी ने खुद अपनी मुट्ठियों में जकड कर इस डोर को ज़ोरों से झटका, इतनी ज़ोर से कि रगों की गिरहों से लहू रिसने लगा लेकिन कच्ची डोर जस की तस. लडके ने भी अपने दांतों से डोर को काटने की कोशिश की मगर सब बेकार. दोनों तरफ की दुनिया के कई हज़ार लोगों ने मिल कर धागों को अपनी-अपनी ओर खींचा और हार कर खुद के पैरों तले ही खुद की खींची हुई हदों को बेरहमी से कुचल दिया.

लडकी को लडके की अनदेखी, अनजानी दुनिया में भेजने का फैसला किया गया. उस रात लडकी के शहर में लोगों ने छक कर खाना खाया, जम कर दारू पी ... और लडकी की मौत पर किराये पर  बुलाये गये लोग ज़ार-ज़ार रोए.

उधर, लडके की दुनिया में लडकी अपना अतीत, अपनी दुनिया, अपना आप भूल कर रमने की कोशिश करने लगी. बदले में लडके की आंखों की चमक मज़दूरी के तौर पर देना तय हुआ. इस सब के बाद भी लडके की दुनिया के लोग उसे 'ग़ैर' समझते और लडकी की खुद कि दुनिया के लोग्.. "मुर्दा". लडकी खुद को ज़िन्दा साबित करने के लिये गहरी सांसें लेती , तेज़ आवाज़ें करती ...

बस लडका देख पा रहा है कि लडकी के भरे बदन के अन्दर दबा मन घुल रहा है... और जितनी तेज़ी से ये मन घुल रहा है, उतनी ही तेज़ी से वो डोर भी जो ज़माने भर कि कोशिसों से बेअसर रही थी.

सुना है कि इस डोर के टूटते ही लडकी की सांसें भी टूट जायेंगी और फिर दोनों दुनिया के लोग मिल कर फिर से उस हद की लकीर को खींचेंगे जिसे उन्होंने मिटा दिया थ. तेरह दिन लम्बा जश्न चलेगा जिसमें दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे को बधाई देंगे... फिर से छक कर खाना खाया जयेगा, जम कर दारू पी जायेगी और किराये के लोग फिर से रोयेंगे.

दाद देनी होगी, ऐसी ग़ज़ब रणनीति से काम किया गया है कि किसी के सिर दकियानूसी, सिरफिरा हत्यारा होने का इल्ज़ाम नहीं आयेगा और लडकी की रगों में बूंद-बूंद घुलता ज़हर अपना असर दिखाता रहेगा...

Saturday, July 14, 2012

जुगनू सरीखे रिश्ते...




मेरी उदासी (जो अमूमन बेवज़ह होती है) को, बहला-फुसला कर या शायद थोडी बहुत रिश्वत दे कर, वो घर आते ही बाहर निकाल करता है. और फिर अपनी कहना शुरु करता है, इस बात से बेखबर कि मैं सुन भी रही हूं या नहीं. उसकी किस बात का मुझ पर क्या असर हो रहा है इस बात की उस रत्ती भर भी फिक्र नहीं नहीं. ज़रा भी फुर्सत नहीं कि मेरे पास बैठ कर घडी दो घडी मुझे देख बर ले या कि अपनी निगाहों क एक सुरक्षा कवच मेरे गिर्द बुन दे, वो जानता है कि इसके लिए उसकी आवाज़ ही काफी है.
अपनी धुन में मगन वो कुछ ढ़ूंढ रहा है.. तकियों के नीचे, दरवाज़ों के पीछे, चीनी के डिब्बे मे, गहनों के लॉकर में...
क्या???
ये जानने में ना मेरी दिलचस्पी ना बताने की उसे फुर्सत. पूरे घर को तितर-बितर कर दिया है... डिब्बे-डिब्बियां, बर्तन, फर्नीचर सब उसे गुस्से से घूर रहे हैंऔर वो सब पर अपनी आवाज़ का मरहम रखता जा रहा है, अपनी रौ में बोले जा रहा है जाने क्या क्या...

और मैं... मैं उसके इर्द-गिर्द होने के अहसास भर से पुरसुकून दीवार से पीठ टिकाये, आंखें बंद किए बैठी हूं.. लम्हा-लम्हा उसकी आवाज़ का कतरा-कतरा खुद में जज़्ब कर रही हूं जो मेरे कानों से होती हुई मेरी रग-रग में उतर कर बह रही है...

उसकी सांस इतनी उथल-पुथल करने में बेतरह तेज़ हो गई है, इतनी तेज़ कि इस खाली घर में ऐसे सुनी जा सकती है जैसे वो सामने ही बैठा हो...और फिर जब ये आवाज़ एक झटके के साथ अचानक मुझसे लिपटती है तो मालूम होता है कि वो वाकई बेहद करीब बैठा हुआ है... एकदम सामने.

"यार वो नई वाली का भी पहले से एक boy friend है... "

और फिर मेरी खिलखिलाहट बिखरे सामान से बचती-टकराती सारे घर मे घूम आती है.

"चलो रे... लडकी गई तो गई मगर जो ढूंढ रहा था वो तो मिला..."

"मेरा पूरा घर तहस-नहस किये बिना तुझे कुछ मिलता क्यूं नहीं?"

"गलती तेरी है... मेरे आते ही बता क्यूं नहीं दिया कि यहीं नाक के नीचे छिपा रखी है ये बत्तीस दांतों वाली perfect smile..."

जाने कैसा तो दर्द गले को तर कर जाता है, मुश्किल से उसका नाम ज़ुबान से फूटता है...

"कमल..."

"ओये, ज़रा सी तारीफ क्या कर दी मुस्कुराहट की ऐसे छिपा ली जैसे नज़र ही लग जायेगी."

"बकवास बंद कर और ये सब समेट जो बिखेरा है."

"बिखरा हुआ समेटने ही तो आया हूं."

"u are late boy... आधा हिस्सा हवा के साथ हवा हो गया और आधा पानी में घुल कर पानी. अब समेटने को कुछ नहीं."

"तो ऐसा समझ लो कि मैं अवशेषों को सहेजने आया हूं"

उसकी उंगली मेरे चेहरे के तिलों को एक imaginary line से जोडती हुई रेंग रही है और जैसे सब उजला-उजला दिख रहा है नीम अंधेरे में भी. उसे बांहों में भर लेने की तलब फिर से मेरे दिल से मेरी उंगलियों की तरफ फिसलने लगी है.

"तू हर बार मुझे अधमरा छोड कर वापस जिलाने क्यूं आ जाता है?"

"मैं क्या करूं कि मेरी जान तुझमें बसती है... मैं खुद की जान लेने का कोई ऐसा तरीका नहीं जानता जो तुझे घायल ना करे. चाकू उठाऊं तो तेरी कलाई पर लाल निशान उभर आते हैं... फन्दा बनाऊं तो तेरी आवाज़ गले में अटक जाती है. मैं हर बार खुद को मारने की तैयारी कर लेता हूं और हर बार तेरी तडप देख कर जीने की तलब होने लगती है. सांसें अमृत हो जाती हैं और धडकन.. धडकन संजीवनी.

मेरे आंसू उसकी मुस्कुराहटों में घुल रहे हैं और मेरी हंसी उसके आंसुओं को सोख रही है. इस पूरे बिखरे घर में हमारे लिए कहीं जगह नहीं.. या शायद इस पूरी दुनिया में हम दोनों के लिए बस एक ही पनाह है...

एक-दूसरे की बांहों से एक-दूसरे के इर्द-गिर्द खडे किये गये इन बेहद मज़बूत मकानों में ... जिन्हें हम रोज़ तोडते हैं, रोज़ बनाते हैं... रोज़ बिखेरते हैं, रोज़ सजाते हैं... हम हर रात साथ-साथ जन्म लेते हैं और हर भोर साथ-साथ मर जाते हैं...

Sunday, June 24, 2012

ज़िन्दगी से परे...






आज़ाद... हर डर, हर दर्द, हर दुश्चिंता से परे मैं चल रही हूं पानी की लहरों पर. पीठ पर परों का हल्का-सा बोझ है लेकिन मन ऐसा हल्का जैसे कपास के फूल से हवा के साथ बह चला कोई रोंया...

एक नज़र मुड कर देखती हूं क्षितिझ के पास उन लोगों के धुंधले चेहरों को जो मुझे घेरे बैठे हैं. जाने दूरी या मेरी आंखों की नमी की वज़ह से कुछ भी साफ-साफ दिखाई नहीं देता...इस सब को बिसरा कर मैं, मेरे और तुम्हारे दरम्यान की दूरी को पाटते इन्द्रधनुष पर दौडी चली आ रही हूं.

इस इन्द्रधनुष का छोर ठीक तुम्हारे कमरे कि खिडकी पर खुलता है. सामने तुम मेरी तस्वीर पर आंखें गडाये बैठे हो, सिसकने की आवाज़ साफ सुन सकती हूं मैं... शायद तुम्हें भी लगता है कि मौत मुझे तुमसे दूर ले गई है जबकि मौत केवल एक रास्ता भर थी तुम्हारे नज़दीक आने का. पागल लडके...इधर देखो, मैं और भी नगीच हो गई हूं तुमसे, देह के भी फासलों को मिटा कर.

ओफ्फो... लैपटॉप पर मेरी ये तस्वीर छोडो अब, देखो तो तुम्हारे इश्क़ के लिबास मे लिपती मेरी रूह कितनी दमक रही है आज. अब तुममें और मुझमें कोई दुराव-छिपाव नहीं. तुम मेरे आर-पार देख सकते हो और मैं तुमसे एकाकार हो सकती हूं...

Wednesday, April 25, 2012

तुम्हें सोच कर...



"बुद्धू... गंवार... अनपढ... पागल लडके"
"क्या बात है! आज बहुत प्यार आ रहा है?"
"किसी को बुद्धू, गंवार, अनपढ तब कहते हैं क्या कि जब प्यार आता हो? तुम तो सच में ही पागल हो."
"अरे हां, तभी तो कहते हैं... तुम्हें नहीं पता?"
"नहीं... सब कुछ तुम्हें ही तो पता होता है."
"हां, ये भी है. चलो फिर हम ही बता देते हैं कि ये सब तब कहते हैं जब खूब... खूब...खूब प्यार आ रहा हो लेकिन छुपाना बताने से ज़्यादा आसान लगे."
"और जब कोई किसी को नालायक कहे तब? तब भी क्या सामने वाले पर टूट कर प्यार आ रहा होता है?"
"हां, तब भी... फर्क बस इतना है कि तब आप छुपाना नहीं, जताना चाहते हो"
"ह्म्म्म्..."
"समझीं... नालायक लडकी?"
"...."
"...."
"...."
"क्या हुआ? सच में समझ गईं क्या?"
"तुम्हारी बकवास सुन लें वही क्या कम है जो समझने की भी मेहनत करें?"
"फिर खामोश क्यूं हो गई थीं?"
"तुम्हें ये बताने के लिए कि हम हद वाला पक जाते हैं तुम्हारे फालतू फण्डों से.."
"इतना बुरा लगता हूं?"
"इससे भी ज़्यादा बुरे लगते हो."
"आच्छा???"
"हां... इतने बुरे... इतने बुरे कि अगर सामने होते तो तुम्हारी उंगलियां काट लेते ज़ोरों से"
"उंगलियां?"
"हां... उंगलियां. क्योंकि ये जादू जानती हैं, लिखती हैं तो मन कोरा कागज़ बन जाना चाहता है... छूती हैं तो पत्थर की मूरत..."
"फिर तो इन्हें सच में ही सज़ा मिलनी चाहिये कि ये उसकी जान सोख कर मूरत बना देना चाहती हैं जिसमें मेरी जान बसती है."
"अबे तेरे की!!! डायलॉग!!! "
"शुरु किसने किया था?"
"उसने जिसे शुरुआत से डर नहीं लगता."
"फिर तो वो तुम हरगिज़ नहीं हो सकतीं. तुम्हें तो आगाज़ से बडा डर लगता है."
"तब तक कि जब तक अंजाम के सुखद होने का भरोसा ना हो."
"और अगर मैं कहूं कि कोई मुश्किल तुम्हे छू भी नहीं पायेगी, तो?"
"तो मैं मान जाऊंगी... तुम कितने भी बुरे सही, झूठे नहीं हो."
"और?"
"और... हां!!!"
"उस सवाल के लिए जो आज सुबह मैंने पूछा था?"
"नहीं, उस कुल्फी के लिए जिसके लिए कल ना कह दिया था... ओफ्फो! तुम सच मे ही बुद्धू हो लडके."
"और बुद्धू लडका तुम्हें पा कर बहुत खुश है."
"और???"
"और ... और.. I Love You"
"Oh! say something else boy. I hate predictable people."
"ओके... तुम.. तुम बहुत बडी वाली नालायक हो."
"ह्म्म्म्... अब सुनने में नॉर्मल लग रहा है."

इस बात को बरसों बीत जाने के बाद भी लडकी को लडके की उंगलियां बिल्कुल पसन्द नहीं हैं कि आज भी लडके का लिखा पढ के वो सब भूल कर कोरे यौवन के दिनों में पहुंच जाती है.. आज भी अगर लडका उसे छू भर ले तो पल दो पल को सांस ऐसे थम जाती है जैसे सच ही मूरत बन गई हो...

Wednesday, April 11, 2012

हुआ है कभी ऐसा.. तुम्हारे साथ???

वो रात-बेरात अपनी अधपकी नींद से एक झटके के साथ उठ कर बैठ जाती और फिर तमाम दराजों को टटोलने लगती. जबकि ये बात उसे भी पता होती कि वो जो ढूंढ रही है उसे अगर दराजों में सहेज कर रखा जा सकता तो खुदा ने इंसान को आंसुओं की नेमत नहीं बख्शी होती और इंसानों ने नींद की दवाओं का आविष्कार नहीं किया होता.

जब मनचाही चीज़ कहीं किसी कोने में नहीं मिलती तो उसे अपने चेहरे पर ढूंढने के लिये वो कमरे में लगे आदमकद शीशे के सामने खडी हो जाती और उस सुकून को खोजने की कोशिश करती जो मां के चेहरे पर बिखरा रहता था लेकिन अपने चेहरे पर उसे अपने पिता से विरासत में मिली कठोरता और व्यावहारिकता के मेल से बनी कोई अजीब-सी चीज़ फैली हुई मिलती.

तब वो खुद से बातें करने लगती.. खुद से भी नहीं, किसी और से जो भले उस कमरे मे मौजूद नहीं था लेकिन लडकी की रग-रग में बडे हक़ के साथ बसा हुआ था. उससे तेज़ आवाज़ में पूछती...



पार की है कभी एक रात से अगली सुबह तक की दूरी खुली आंखों से? वो भी तब जब मालूम हो कि हर दर्द से पनाह बस नींद ही दे सकती है... मगर नींद के आगोश में छुप जाना मुश्किल लगा हो क्योंकि आंखें बंद कर के इस दुनिया से मुंह फेर कर आप एक नई दुनिया ज़िन्दा कर लेते हो... खुद के भीतर.

कभी सोने से डर लगा है कि नींद अब वैसे सपनों का हाथ पकड कर नहीं आती जिनके टूट जाने का अफसोस होता हो?

कभी बांए हाथ के किसी नाखून को दांए कंधे पर ज़ोर से कुछ ऐसे गडाया है कि दर्द की लहर कई देर तक बदन में बहती रहे? फिर उस दर्द को अपने जिस्म की चौकीदारी में छोड कर गये हो कभी तन की सरहदों और मन की हदों के पार?

... और ठीक उन्हीं पलों में खुद से मीलों दूर इत्मिनान से सोते किसी शख्स की आवाज़ सुनने की तलब बही है आंखों की कोर से कान के पास वाले बालों को भिगोती हुई?

यादों के दरवाज़े को ज़ोरों से भडभडा कर गिडगिडाए हो कभी कि बस एक बार वो खुल जाएं और लौट आने दे बिसरी बातों, बिछडे लोगों को वापस तुम्हारे पास?

नहीं... तुमने ऐसा कुछ भी, कभी भी महसूस नहीं किया. वरना उस रोज़ तुम्हारी चौख़ट से वापस लौटते हुये मेरी गीली आंखों ने खिडकी के शीशे के परे तुम्हारी पीठ पर पसरी बेपरवाही को मेरा मज़ाक बना कर हंसते ना देखा होता... तुम्हारी सिगरेट के धुंए मे ही सही, कहीं तो तुम्हारी आंखों की नमी दिखती मुझे...

मेरे दर्द को समझने के लिये तुम्हें दौडना होगा किसी अजनबी के पीछे बेतहाशा, दोनों हाथ हवा में उठाए किसी अपने का नाम पुकारते हुए.. करनी होगी अपनी मनपसंद किताबों से बेपनाह नफरत और... सीखना होगा हुनर चीखों से संगीत निचोडने का...

और शायद तब तुम जान पाओ कि मेरी आवाज़ में जो रिसता था, वो मेरा इश्क़ था.. तुम्हारे लिये. जब दर्द ही दवा सरीखा लगने लगेगा और दुआओं से भरोसा उठ जायेगा तब तुम जान पाओगे की मुहब्बत करना कितना मुश्किल काम है...

जब मेरी ज़िन्दगी के ये सारे दर्द तुम्हारे अंदर ज़िन्दा हो जाएं और कहीं किसी कोशिश, किसी नुस्खे, किसी टोटके से कोई आराम ना मिले तब... तब बस एक बार मुझे दिल से याद करना.. बस एक बार शिद्दत से मेरे नाम को पुकारना. बस उतना भर कर देने से ही मैं तुम्हें अपने सारे खून माफ कर दूंगी. अपने अंदर के 'मैं' की हत्या के इल्ज़ाम से बरी कर दूंगी... बाइज़्ज़त.

और ये सब इस्लिये नहीं कि तुम्हें चाहती हूं, बल्कि इसलिये कि ऐसा ना कर पाने तक मैं खुद भी आज़ाद नहीं हो पाऊंगी.

पता है, हर सांस मरना और हर मौत जीना आसान नहीं है. ये ऐसे है जैसे किरच-किरच दर्द को खरोंच कर खुद से होते हुए बहने का न्यौता देना और फिर ज़ार-ज़ार रोना... जैसे ज़ख्मों को चीखों में तब्दील होते हुये देखना और उन चीखों का वापस जिस्म से टकरा कर ज़ख्मों में बदल जाना... जाने तुम समझ भी रहे हो या नहीं, लेकिन ये सच में उतना ही मुश्किल है जितना तुम्हारा मुझसे मुहब्बत और मेरा तुमसे नफरत करना...

Friday, March 30, 2012

पूर्वाभास...

शादी होने से पहले लडकियां जैसे सपने देखती हैं, वैसा कोई सपना ना उसे सोते हुये आया... ना जागते हुये ही. जाने कैसे, अपनी पसंद के लडके शादी करते हुये भी उसे ये लगता रहा कि वो गहनों और भारी कपडों से लदी-फदी, खिलखिलाती हुई अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम बढा रही है.

शादी वाले दिन भी उसके चेहरे पर हया या चाल मे थमाव नहीं... वो इधर-उधर की दुनिया से बेपरवाह किसी बच्चे की तरह चल रही है जो मगन भाव से गलियों में गुब्बारे वाले के पीछे फिर रहा हो... उसकी मां उसे बार-बार टोक रही है कि हंसे कम, नज़रें झुका कर चले लेकिन वो मंत्रमुग्ध सी मुस्कुराते हुये बस मां का चेहरा देखे चले जा रही है. मुझे उसे देख कर जाने क्यूं लगा कि वो किसी असर तले है और उसे मां के हिलते होंठ तो दिखाई दे रहे हैं लेकिन उनसे फूटते बोल उसके कानों तक नहीं पहुंच रहे हैं.

जाने क्यूं मुझे लगा जैसे उसका सारा ध्यान अपनी मां की नाक के बांईं तरफ वाले एक मस्से पर केन्द्रित है, फिर मुझे याद आया कि ठीक वैसा ही एक मस्सा उसकी भी नाक पर था लेकिन अब नहीं है. जैसे किसी गलती की सज़ा के तौर पर उसे इस विरासत से बेदखल कर दिया गया हो... शायद शिशिर से प्रेम विवाह करने की सज़ा के तौर पर.

सब लोगों को लग रहा है कि वो बहुत खुश है लेकिन जाने क्यूं मुझे लगता है जैसे वो सोच-समझ से परे वाली किसी हालत में है और एक मुस्कुराहट किसी हवा के झोंके के साथ उड कर उसके चेहरे पर आ कर उलझ सी गई है.

मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठी अधेड उम्र की वो औअरत बडबडाती-सी है, "शिशिर की बहू तो लाज-हया सब मैके में ही छोड आई है.".. या ऐसा ही कुछ और. उन्हें पता नहीं कि वो जीने लायक सांसें भी मैके में ही छोड आई है.

वो और शिशिर हाथों में वरमाला लिए एक्-दूसरे के ठीक सामने खडे हैं ... वो अपनी बडी आंखों को और भी फैला कर मौजूद लोगों की भीड को एक ओर से दूसरे छोर तक देखती है. कुछ ऐसे, जैसे.. जैसे कोई दुल्हन कभी नहीं करती. मानो हर शख्स का मन टटोल रही है.

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हालांकि अभी तक आपने सोचा नहीं है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि आप सोचें कि मुझे उसके बारे में सब कुछ इतनी तफसील से कैसे पता है??? इस से पहले कि आप मुझे उसकी कोई करीबी सहेली समझ लें, मैं आपको बता देना चाहती हूं कि ये सब उसने मुझे खुद बताया था. तब, जब वो वाकई अपनी मौत की तरफ बढ रही थी.. बल्कि मुझे कहना चाहिये कि तब, जब मैं उसे उसकी मौत की तरफ धकेल रही थी.

उसके हाथों को बांधने के बाद जब मैंने ब्लेड को उसके गले की उभरी हुई नस पर रखा तो उसने सहम कर अपनी आंखें नहीं भींच लीं, वो चिल्लाई भी नहीं. उसने बस मुस्कुरा कर कहा कि शादी वाले रोज़ से ही उसे लगता था कि वो अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम बढ रही है. ये भी कि, वो खुश है आखिरकार उसकी सोची कोई एक बात सच होने जा रही है.

एक मरते हुये इंसान के होठों पर आपका नाम कितना मुर्दा लगता है ये मुझे तब ही मालूम हुआ जब उसने कहा कि, "जानती हो मारिया, आज तक मेरी कही कोई बात सच नहीं हुई. जैसा कि अक्सर होता है कि आप बिजली गुल होने का डर ज़ाहिर करें और बस उसी पल कमरे में अंधेरा हो जाये, या कि मेरे कहने भर से कोई क्रिकेट टीम मैच जीत जाये... ऐसा कोई संयोग मेरे साथ कभी नहीं घटा. मैं दुनिया की सबसे अच्छी बेटी होने का भ्रम लिए चौबीस साल जीती रही. शिशिर मुझसे प्यार करता है, ये भ्रम भी पांच-छः साल मेरे गिर्द लिपट रहा..."

इतना कहते-कहते उसकी नस से खून की कुछ गर्म बूंदों ने फिसलना शुरु कर दिया था और मुझे ताज्जुब था कि उसकी आवाज़ में दर्द नहीं था, शायद वो इतना सह चुकी थी कि दर्द की सीमाओं से परे पहुंच चुकी थी...उसका बोलना अभी भी जारी था...

"मुझे हमेशा से लगता था कि मेरी शादी के फेरे मेरी मौत की तरफ बढने वाले रास्ते के कुछ एक मोड भर हैं. जीवन में मुझे सिर्फ एक बात का पूर्वाभास हुआ है... मेरी मौत का. शायद मैं आज पहली बार खुशी को उसकी पूरी पूर्णता के साथ महसूस कर पा रही हूं मार्...
...
..."

वो शायद और भी कुछ कहना चाहती थी लेकिन मैं अपना नाम उसके लगभग मुर्दा हो चुके होठों से फिर से नहीं सुन सकती थी. इसलिये उसे धीरे-धीरे यातना दे कर मारने का इरादा छोड कर मैंने एक झटके में उसे आज़ाद कर दिया.

लेकिन उसकी शादी वाले दिन जो मुस्कुराहट उसके चेहरे पर हवा के किसी झोंके के साथ आ कर अटक गई थी, वो आज उसके निश्चल होठों पर भी उसी बेफिक्री के साथ पसरी हुई थी.

उसे अपना पूर्वाभास सही होने की शायद वाकई बेहद खुशी थी...

Wednesday, March 21, 2012

तुम मेरे जानने वालों में सबसे बुरे हो लडके...


बचपन में अम्मा अक्सर भूत-प्रेत, ऊपरी असर, ना जाने कौन्-कौन सी अलाओं-बलाओं से बचाने के लिये झाडा लगवाने ले जाती थीं. ज़रा जुकाम हुआ नहीं कि नज़र उतारने के बीसियों टोटके तैयार... आज अगर वो होतीं तो पूछते कि फरिश्तों के असर से निज़ात दिलाने के लिए कहीं कोई झाडे नहीं लगते, कहीं कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं करता क्या कि मेरी रूह पर लम्बे अरसे से एक फरिश्ते ने कब्ज़ा कर रखा है...

फरिश्ता है इसलिये कोई खास तक़लीफ तो नहीं देता लेकिन ये भी क्या कम कोफ्त है कि आप पर आपसे ज़्यादा किसी और का हखो जाये? आप हंसना चाहो और तभी फरिश्ते की कोई उदासी आ कर होठों से सारी मुस्कुराहट सोख ले जाये... उलझनों से आजिज़ आ कर आप मौत के साथ एक long drive पर जाने की तैयारी में हो कि बस फरिश्ता हाथों में हाथ डाले किसी अनजान राह पर दूर तक पैदल ले जाये और रास्ते में कमर पर उंगलियां फेर कर इस तरह गुदगुदाये कि आपकी हंसी से बंध कर तमाम खुशियां ज़िन्दगी में चली आयें.

वो मुझे मेरी ज़िन्दगी जीने का सच में एक दम ही कोई मौका नहीं देता और मैं उस से इतनी नफरत करती हूं जितनी कि मैंने बचपन में किसी से अपने रंग चुरा लेने पर भी नहीं की होगी.

बेशक वो फरिश्ता है लेकिन अपनी (और अब उसके साथ बंटी हुई) ज़िन्दगी में मैं जितने भी लोगों से मिली हूं उनमें वो सबसे बुरा है... सबसे बुरा. और उसकी सबसे बुरी बात ये है कि जब मैं उसे ये सब कहती हूं तो उसे पता चल जाता है कि ये बस एक तरीका भर है उसे बांहों में भर लेने को उठने वाली तलब को झिडक कर वापस सुला देने का...

Tuesday, March 20, 2012

बस... एक आवाज़ भर है!!!


ये भी क्या कम सुकून है कि तुम्हारी आवाज़ मेरी पहुंच के बाहर नहीं है कि इसे तुम खुद ही सहेज गये हो शायद मेरे ही लिये. तुम्हारा अक्स कभी छाया बन कर मेरी आंख की पुतली से नहीं गुज़रा. तुम्हारी खुश्बू कभी मेरी सांसों के साथ जकडी हुई मेरे फेफडों में पहुंच कर हमेशा के लिए कैद हो कर नहीं रह गई. लेकिन, तुम्हारी आवाज़... तुम्हारी आवाज़ मेरे खुले बालों को हौले से परे हटा कर मेरे कानों को सहलाती हुई जाने कौन-से रास्ते से मेरे दिल तक पहुंची है.
और अब तुम्हारी आवाज़ दिन-रात मेरे अंदर बात-बेबात... वक़्त-बेवक़्त... तेज़ी से चक्कर काटती रहती है. जब बहुत ज़्यादा घुटने लगती है तब शायद दिल से उठ कर गले तक आती है. पल भर के लिए कोई गोला-सा फंस जाता है गले में, मैं देर तक अपनी ही आवाज़ सुनने को छटपटाती रहती हूं कि तुम तो जानते ही हो कि मुझसे सन्नाटा बर्दाश्त नहीं होता. ये सन्नाटा आपको खुद को समझने का कुछ वक़्त दे देता है और मैं अपने आप को समझ कर एक बार फिर सब कुछ उलझाना नहीं चाहती. ख़ैर.. गले में अटकी तुम्हारी आवाज़ कुछ देर बाद, कभी तुम्हारी याद 'की' हिचकी या कभी तुम्हारी याद 'में' सिसकी के साथ आज़ाद हो जाती हूं और फिर अंदर जैसे सब खाली हो जाता है...

और इस खालीपन को भरने के लिए गुस्सा, अवसाद... मेरी घुटती सांस और फंसती आवाज़ के जाने कितने संगी बिन बुलाये चले आते हैं. बडे हक़ के साथ मेरे अंदर आवारा टहलते रहते हैं... तब तक कि जब तक तुम्हारी आवाज़ एक बार फिर आ कर सब कुछ आबाद ना कर दे, किसी ज़िम्मेदार मां की तरह अपनी बेटी के बिगडैल दोस्तों को झिडक कर भगा देती है... मायके से कई रोज़ बाद लौटी गृहस्थिन की तरह अपने अस्त-व्यस्त घर को, पति को और पति की फूंकी सिगरेटों के अधजले टुकडों को देखती है और बस पल्लू कमर में खोंस कर वो सब कुछ निकाल बाहर करती है जो बेवज़ह है.

कहने को बस एक आवाज़ भर है लेकिन कितनी मुकम्मल.. कितनी पूरी है. और नासमझों को लगता है कि इश्क़ करने के लिए किसी शख्स की ज़रूरत है जब मैं बताती हूं कि बस एक आवाज़ भर है जो मुझे अरसे से उलझाये हुये है.

एक आवाज़...जिससे आज कल मेरा इश्क़ परवान चढ रहा है.

Wednesday, February 29, 2012

इश्क़ जैसा कुछ


दिसम्बर की कोई तारीख, साल नामालूम


कई बार सोचती हूं कि तुम कोई मौसम, कोई साल होते तो कैलेण्डर का एक पन्न भर पलट कर मैं तुम्हें पीछे छोड कर कहीं आगे बढ जाती. तुम्हें पकडे रखने की... बांध कर जकडे रखने की कोई कोशिश कभी कामयाब नहीं होती और मुझे तुमसे 'इश्क़ जैसा कुछ' हो जाने के भ्रम (या डर) से छुटकारा मिल जाता.
अजीब है ना कि अच्छी तरह जानते हुये कि प्यार जैसा कुछ नहीं होत, मुझे अक्सर लगता है कि मैं तुम्हारे प्यार में पड गई हूं.



२1 फरवरी,साल नामालूम

जो दुपट्टा तुमसे अपनी आखिरी मुलाकात के वक्त मैंने पहना था, वो उस रोज़ आखिरी बार तहों की बेडियों से आज़ाद हुआ था. उसे दोबारा पहनने की हिम्मत नहीं हुई. जाने क्यूं हर बार उसे देख कर ऐसा ख़याल कहां से आ जाता कि इस बार जाने कौन अज़ीज़ हमेशा के लिये रूठ कर चला जाये.
फिर उस कुर्ते पर तुम्हारी बातों के छींटे भी तो पडे हैं, सब कुछ खो कर उन छींटों से भी हाथ धोना मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती. जो कुछ तुमने दिया था, वो सब तो जला दिया, मिटा दिया... बस ये एक छाया भर रह गई है जो तब भी मेरे साथ रहती है जब खुद मेरा साया तक ढूंढे से नहीं मिलता. हर रोज़ इसे निकालती हूं, तुम्हारी बातों की खुश्बू को सांसों में भर कर हर लफ़्ज़ को छूती हूं... खुद से रोज़ नफरत करती हूं इसे सहेजे रखने के लिए मगर तुमसे मेरा लगाव, तुम्हारी उलझी बातों से मेरा प्यार एक दिन के लिए भी कम नहीं होता. ये मर सकता है कभी, इसकी तो उम्मीद भी छोड चुकी हूं तो अब दुआ के अल्फाज़ बदल दिये हैं... "अब इसके चंद रोज़ के लिये खो जाने या कि मेरे घर का रास्ता भूल जाने की प्रार्थना करती हूं."

क्या कोई और तरीका है रगों में घुलते 'इश्क़ जैसे कुछ' सि निजात पाने का???



२३ फरवरी,साल नामालूम

जो कुछ तुम कहना चाहते हो, वही सब मैं सुनना भी चाहती हूं और तुम्हारे बिना बोले उसे तुम्हारी तेज़ होती सांसों में सुन भी लेती हूं मगर वही सब जब आवाज़ में तब्दील हो कर कानों से टकराता है तो जाने कैसे अपना असर खो देता है!
अब तक इतनी बातें तो तुमसे कर ही चुकी हूं कि तुम्हारी चुप्पी से ग़म चुन सकूं या कि तुम्हारी हंसी में झूठ की मिलावट को पहचान लूं... लेकिन तुम्हारी बातें और... और... और...सुनने कि लालसा है कि खत्म ही नहीं होती. ये भी सोचती हूं कि तुमसे यूं ही ऊल-जुलूल जो जी चाहे बोलती रहती हूं, जब तुम ऊब जाओगे मेरी बातों से तो अपनी कमअक्ली के किस्से किसे सुनाऊंगी?
पता है.. उस रोज़ जब तुमने कहा कि "तुम बच्ची नहीं हो, बहुत बडी हो" तब मैंने सुना कि "तुम मीलों दूर से भी मेरी उदासी को जज़्ब करने क मद्दा रखती हो." जब तुमने कहा कि "हंसती रहा करो, अच्छी लगती हो" तब लगा जैसे कहा हो कि "ग़म की आंच पर फुहार जैसे पडते हैं तुम्हारी हंसी के छींटे"
सच कहते हो तुम... पागल हूं मैं.. एक दम पागल. फिर भी तुम्हारे 'पागल लडकी' कहने पर मैं इत्ती सारी बकवास बस इसलिये करती हूं कि हमारे बीच कोई सन्नाटा ना पसरे. और फिर जैसा मैं अक्सर कहती हूं, "एक आवाज़ ही तो अच्छी है तुम्हारी" इसे सुनने का मोह छूटता ही नहीं.. यकीन मानो मैं कई बरस तक तुम्हारी बातें (बकवास, to be specific) सुनती रह सकती हूं लेकिन डरती हूं कि कहीं तुम आदत ना बन जाओ मेरी.

तुम्हें तो पता ही है कि मेरे अंदर के अल्हडपन, बेवकूफी.. और सबसे बढ कर मेरी "आवारगी" की मौत का दिन तय हो गया है. उस तारीख के दूसरी पार अगर तुम मुझे याद आ गये तो किसे कहूंगी खुद को संभालने के लिए कि तुम्हारे मिलने के बाद से मैंने खुद को भी कई बातें बताना छोड दिया है.

जानती हूं कि 'खुशफहमी' भर है मगर मुझे सच में लगता ह कि मैं भी कभी तो तुम्हें याद आऊंगी. हां, सच है कि मेरी तरह बातें कोई भी लडकी बना लेगी... तुम्हारी आवाज़ के असर तले बंध कर कोई भी अपनी नींद से समझौता कर लेगी... तुम्हारी उदासी को सोख कर अपनी दुआओं में तुम्हारा नाम बडी आसानी से जोड लेगी... मगर फिर भी जाने मन क्युं ये मानने को तैयार ही नहीं होत कि तुम मुझे सिरे से भूल जाओगे. कुछ तो ऐसा मुझमें भी होगा जिसे तुम याद करोगे... बोलो, याद करोगे ना?
देखो, अगर ना भी सहेजो मुझे अपनी यादों में तो एक झूठ भर बोल देना. तुम कोई संत नहीं हो और मुझे भी झूठ की चाशनी में पगी मीठी बातों से कोई परहेज़ नहीं.

... ज़िन्दगी के उस हिस्से में, जहां मैं तुम्हें अपने साथ नहीं ले जाऊंगी,बडी सारी खुशियां बस मेरे ही इन्तज़ार में बैठी हैं. लेकिन मेरा एक हिस्सा उलझा-सुलझा-सा तुम्हारे पास छूटा जा रहा है. मालूम है मुझे कि इसे संभालने का वक्त नहीं है तुम्हारे पास तो इसका मरना भी मेरी "आवारगी" की मौत के साथ तय है. बस ये एक आखिरी कडी है मेरे-तुम्हारे बीच की... इन दोनों के साथ ही ये सब खत्म हो जायेगा जो सांसों को कसता रहता है... जो हंसी को फूटने नहीं देता... जो खुशियों की बारिश और मेरे बीच अनचाही छतरी सा तना रहता है.

लेकिन मुझे लगता है कि इस जुडने... टूटने.. बिखरने के खेल में कई सालों तक अविरल बहने वाले आंसुओं के झरने फूटेंगे जो दिन-रात उसे सींचते रहेंगे जिसे मैं "इश्क़ जैसा कुछ" कहती हूं.

जाने कितने जनमों के फेर में पिसने के बाद, जाने कितने नरक भोगने के बाद मुझे इस सब से निजात मिलेगी कि जो एक ही वक्त में हंसाना-रुलाना दोनों जानता है.. कि जिसे मैं "इश्क़ जैसा कुछ" कहती हूं.



२5 फरवरी,साल नामालूम

तुम्हारे दिमाग में रहने तक, लाख कोशिश कर लूं, कुछ और लिखा ही नहीं जा सकता. क्या तो होता ही है... एक craving-सी, सही शब्द नहीं मिलता उसके लिये.

एक घुटन-सी होती है जैसे किसी ने दिल को मुट्ठी में भींच लिया हो... तुमसे बात करने की बडी शिद्दत के साथ ज़रूरत महसूस होने लगती है. अकेले बैठ कर बार-बार उन शब्दों को दोहराती हूं जिनके बारे में तुम कहते हो कि मेरी आवाज़ उनमें एक कशिश भर देती है फिर कोई बताता है कि झूठी तारीफें करने मे डॉक्टरेट मिली हुई है तुम्हें.

जानते हो हमारे पिछले conversation में से कौन-सी बात बेतरह याद आती है?
यही की तुमने कहा था कि, "हम कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहते जो 'तुम्हें' अच्छा ना लगे"

ऐसा कुछ (झूठ ही सही) कहने वाले से अगर मुझे "इश्क़ जैसा कुछ" (कुछ पलों के लिये ही सही) हो जाये तो रामजी हमें माफ नहीं कर देंगे क्या???

Saturday, February 18, 2012

सोचती हूं...

तुम अक्सर कहते हो कि मेरे मन की थाह लेना चाह कर भी तुम कभी मुझे समझ नहीं पाते और यकीन मानो कि इस बात की जितनी झुंझलाहट तुम्हें है, उतनी ही पीडा मुझे भी. इसलिये मैं सोचती हूं कि क्या ही हो जो मैं एक किताब में तब्दील हो जाऊं???

तुम पन्ना-पन्ना... हर्फ़-हर्फ़ मुझे पढ डालो. मेरी अनकही उम्मीदों को ज़ुबान मिल जायेगी और मेरे मन का दर्द जब पन्नों पर उकेर दिया जायेगा तो तन के दर्द की तरह ही तुम उसे सहला पाओगे.

मेरी अच्छी बातों को underline करते चलना और गुस्सा आने पर इन बातों को ज़ोर-ज़ोर से खुद को सुनाते हुये पढना फिर भी जब खूब नाराज़ हो जाओ तो बेरुखी से मुझे किसी drawer में बंद कर देना. कभी डांटते हुये कान उमेंठने की जगह वो पन्ना कोने से fold कर दिया करना जहां से आगे तुम मुझे पढना चाहो...

और भले से मेरी तारीफ में अभी जितनी चाहो कंजूसी कर लो मगर तब एक अच्छी किताब के बारे में ढेर सारी अच्छी बातें अपने दोस्तों से कहना और सुनो... ऐसा करते हुये मुझे अपने हाथों में ही रखना. अपनी तारीफ सुन कर जब मैं फूल कर कुप्पा हो जाऊंगी तो आम किताबों से अलग मुझमें कुछ पन्ने और बढ जाया करेंगे. ऐसे सारी उमर तुम बस मुझे पढना... मैं बस तुम्हारे हाथों में रहूंगी.

और अपनी वसीयत में ये लिखना मत भूलना कि मुझे तुमसे कभी अलग ना किया जाये. तुम्हें दफन किया जाये, तो मेरी किस्मत में भी मिट्टी होना लिख दिया जाये... तुम्हें जलाया जाये तो मेरी तकदीर में भी राख में तब्दील होना मुकर्रर किया जाये... मैं तिल-तिल कर मरना नहीं चाहती और तुम्हारे बिना जीना मरने से किसी भी हाल मे बेहतर होगा... ये मानना इस जनम में तो मुमकिन नहीं...

Saturday, January 28, 2012

तुम्हारी-मेरी बातें...


"बन गये दाल-चावल?" लडकी ने इस आस के साथ पूछा कि लडका हैरान हो कर पलट सवाल करेगा कि उसे कैसे पता हो गया कि आज वो खुद खाना बनाने वाला है? कि कैसे उसे सारी बातें बिना बताये मालूम हो जाती हैं.

लेकिन आज लडका अपनी ही धुन में है, बोले चले जा रहा है जबकि लडके को बातें बनाना एकदम नहीं आता और लडकी को बातों के सिवा कुछ और बनाना नहीं आता. लडकी उसे पा कर बहुत बहुत बहुत खुश है कि उसे यकीन है लडका उसे कभी बना नहीं सकता. लेकिन आज लडका उसे बोलने क मौका ही नहीं दे रहा. शायद उसकी संगत में इतना अर्सा बिताने के बाद लडके ने भी बोलना, भीड में खोना, खुली पलकों से सोना ...सब सीख लिया है. ये ख़याल आते ही लडकी हौले-से पलकें झुकाती है और सोचती है कि, काश! उसकी संगत के रंग पक्के हों और लडका उसके रंग में ताउम्र रंगा रहे.

इस बीच लड्का बहुत कुछ बोल गया है जो उसने सुना नहीं है मगर उसे बातों के सिरे पकड कर मन की गिरह खोलने का हुनर आता है. लडके को मालूम भी नहीं होता कि फोन लाइन के उस पार मुस्कुराती लडकी इस बीच अपने मन की दुनिया का एक चक्कर लगा कर भूले-बिसरे कई काम निबटा आई है.

काफी देर बाद भी जब उसका मनचाहा सवाल नहीं आता तो लडकी से रहा नहीं जाता.

"तुमने पूछा नहीं कि मुझे कैसे पता चला कि आज तुम दाल्-चावल बनाने वाले हो?"

लडका जानता है कि उसे ये बात लडके की मां से पता चली है. लेकिन ये वो जवाब नहीं जो लडकी के चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेर दे और लडके को उसकी हंसी के तडके वाली तीखी आवाज़ से बेहद प्यार है. इसलिये;

"अरे हां, ये तो मैंने सोचा ही नहीं. बोल ना... कैसे पता तुझे?"

लडकी को भी पता है कि लडका नासमझ होने का ढोंग भर कर रहा है मगर उसकी आवाज़ से आधे भरे मटके की तरह खुशी छलकी पड रही है.

"वही तो... सब खबर रखती हूं तुम्हारी. होने वाली बीवी हूं जी, कोई टाइमपास गर्लफ्रेंड नहीं."

"ह्म्म्म ... बच कर रहना पडेगा तुझसे तो"

"और कितना ही बच कर रहोगे लडके. ऐसे भी इतनी दूर हो कि बस आवाज़ भर ही नसीब हो पाती है."

जाने परली तरफ लडका मुस्कुराया है या नहीं मगर लडकी की आंखों से मानो हंसी झर रही है. सारा कमरा उसकी आंखों से रौशन और सारा घर उसकी हंसी से गुलज़ार है. और हंसी के झीने लबादे से ढंकी उसकी आवाज़ मानो उस शहर के ज़िन्दा होने की इकलौती वज़ह है और अकेला सुबूत भी.

"बता दे ना... कैसे पता चला तुझे?"
"तुम्हारे शहर की हवा ने हौले से मेरे शहर के बादल को बताया था और फिर जब रिमझिम बरसते बादल ने मुझे छुआ तो बस... उस छुअन भर से सब मालूम हो गया."

"हाय! बस ये बातें ना होती तो मैं दो-चार बरस और शादी के झंझटों से दूर रहता."

लडकी जानती है कि लडका कभी साफ-साफ शब्दों में उसकी तारीफ नहीं करेगा इस्लिये उसकी बातों को छान-फटक कर अपने लिये तारीफ के बोल बीन लाती है.

दोनों की हंसी धरती के ऊपर की सात परतों को पार कर के ऊपर वाले तक पहुंचती है और वो सुकून की गहरी सांस लेते हैं कि दुनिया में कोई तो उनके किसी फैसले से खुश है.

आंखों के सामने से गुज़रते बादल को हाथ से धकेल कर भगवान नीचे झांक कर देखते हैं कि उन दोनों की हंसी गहरे लाल रंग में तब्दील हो कर कई ज़िन्दगियों को छू कर गुज़र रही है. लडके-लडकी की तरह भगवान भी इत्मिनान से सोने की तैयारी में हैई कि उन्हें संतोष है जो उन्होंने इश्क़ और इश्क़ के हर दर्द को सह कर भी मुस्कुराते लोगों की क़ौम बनाई है.

इक मुस्कुराहट तो तुम भी deserve करते ही हो कि तुम उस कौम का हिस्सा जो हो... ः)

Saturday, January 7, 2012

...तू कहीं भी नहीं


तेरी बातों को हवा में उडा देने की फितरत भी मेरी थी
उन्हीं बातों को हवा से छीन लाने की आदत भी मेरी है

तेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बनने को रब से मिन्नत भी मेरी थी
तेरी यादों के भंवर से उबरने को धागों में मन्नत भी मेरी है

तेरे दिल में अपने लिये मुहब्बत की चाहत भी मेरी थी
तेरे ज़ेहन में खुद के लिये नफरत की हसरत भी मेरी है

तेरे ख़यालों तक को मार डालने की साजिश भी मेरी थी
तुझे ख़यालों में जिलाये रखने की ख्वाहिश भी मेरी है

इश्क़ की दीवारों से घिरी, सिर पटकती वो मूरत भी मेरी थी
ऊंचे किले के दरवाज़ों पर लिखी ये इबादत भी मेरी है

हूं 'मैं ही मैं' हर तरफ...
तेरा नाम-ओ-निशां तक नहीं

फिर भी खुद की तलाश का हर रास्ता ग़र तेरी गली से गुज़रे
तो.. अच्छी या बुरी, जैसी भी सही...

कल की ये हक़ीकत भी मेरी थी,
आज की ये किस्मत भी मेरी है...