Tuesday, October 6, 2009

आत्मसमर्पण


मैं जब भी भ्रम और हक़ीकत में से किसी एक को चुनना चाहती हूं
मैं जब भी खुद को निश्चिन्त और किनारे पर पाती हूं
तुम सब कुछ बदल देते हो... मुझे फिर से मझधार में धकेल देते हो...

क्योंकि, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता

तो मत दो... ना खुशी...न हंसी...ना आजादी...ना खुदी
बस्...मुझे सपने न दिखाओ...
रोज जिताने की आशा दिखा कर...नित नये खेल ना खिलाओ...
तुम नहीं समझोगे सपने टूटने की तकलीफ़ ...
मेहनत से रंगे पन्नों पर स्याही बिखरने की तकलीफ़...

क्योंकि, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता

मेरी शिकायतों पर हंस देते हो तुम...
कहते हो... मैं तुम्हें लडना सिखाता हूं
चुनौतियों से भिडना सिखाता हूं...
झूठ... तुम बस अपना खेल जमाते हो...
साथी-सखा कह कर ऐसा खेल खिलाते हो...
कि जिसमें नियम हैं तुम्हारे, लोग भी तुम्हारे हैं...
खेला है तुम्हारा...सदा तुम जीते और हम हारे हैं

क्योंकि, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता

किन्तु अब मुझमें सामर्थ्य नहीं बची...
हारा खेल खेलने नहीं रही मेरी रुचि...
मैं हार मानती हूं सदा के लिये...टूटी अब हर आशा मेरी...
खुश हो जाओ अब तो... खत्म हुई प्राप्ति की पिपासा मेरी...
अब मुझे जीने दो बस जीने के लिये...
अपनों को हंसाने के लिये... उनके अश्रु पीने के लिये...
उम्मीद है कि ये देना तो दुष्कर ना होगा...
इतना तो दे ही सकते हो तुम...

आखिर, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता