Thursday, January 21, 2010


वो छंद में बंधता नहीं
वो काव्य में ढलता नहीं
उन्मत्त-सा उन्माद है
जो काग़जों में थमता नहीं

वो आकाश सम छतरी है मेरी
उसका छोर भी मिलता नहीं
वो प्रेम की गठरी है मेरी
जिसका सिरा कभी खुलता नहीं

वो मीत है...वो प्रीत है...
उसकी मुस्कान ही मेरी जीत है
ग़र संग मेरे वो है खडा तो
दुर्भाग्य भी भयभीत है...

ग़र फल मेरी मुस्कान हो...
मेरी खुदी, मेरा सम्मान हो
तो श्रम से वो थकता नहीं...

पर छंद में बंधता नहीं
वो काव्य में ढलता नहीं

Sunday, January 3, 2010

इक शख्स...मेरा अक्स...


तुम पानी में हिलते प्रतिबिम्ब से लगते हो... मेरा प्रतिबिम्ब
मेरी हर अनकही सुनते हो...
मेरी हर अनसुनी कहते हो...
लगता है जैसे मेरी सांसें जीते हो
जब सामने होते हो तो जैसे आंखों ही आंखों में मेरा अक्स पीते हो

झिलमिल करते... जगमग से... पानी से झांकते हो...
मेरी हंसी हंसते हो...
मेरे आंसू रोते हो...
मेरे सपने सजाये अपनी आंखों मे
तुम मेरी नीदें सोते हो...

जानती हूं कि तुम बस मेरे लिये जीते हो...फिर भी डर लगता है
जब पानी पर बना... झिलमिलाता.... जगमगाता...
तुम्हारा प्रतिबिम्ब... हक़ीकत के किसी कंकड से टूट जाता है...

लेकिन हर बीतते दिन के साथ ये डर दूर होता जा रहा है...
क्योंकि ऐसे ढेरों कंकड सहने के बाद भी...
तुम बस डगमगाते हो...
एक पल को ओझल होते हो नजरों से फ़िर वापस आ जाते हो...
मैं जब भी तुम्हें पानी में ढूंढने को झुकती हूं...
तुम मुस्कुराते हुये... पानी से झांकते दिख जाते हो...
कितनी आसानी से मेरा हर डर दूर कर...
... मेरे चेहरे पर खुशी के रंग बिखेर जाते हो