एक लडकी ही तो मरी है...
मैंने खोल दी हैं घर की तमाम खिडकियां, बिछा दी है गुलाबी फूलों वाली नई चादर, टी.वी. पर set कर दिया है reminder नये साल पर आने वाले नय program के लिये.
ओह्! नये साल का resolution तो रह गया.
क्या कहा? देशहित.. नारीहित में संकल्प लूं? कसमें खाऊं उन्हें तोड देने के लिये?
क्यूं? ऐसा क्या हो गया है रातोंरात? "एक और" लडकी ही तो मरी है.. और मैं तो उसे जानती भी नहीं. हां मैं भी गई थी एक candle march में मगर वो तो बस सबको ये बताने के लिये कि मैं भी खासी संवेदनशील हूं.. और फेसबुक पर फोटो भी तो लगाने थे, image का ख़याल रख्ना पडता है यार...
क्या कहा??? जानवरों से बद्तर है मेरी सोच!! मैं खुद भी!!!
हो सकता है.. लेकिन मैं तो कई बरसों में मेहनत कर के सीख पाई हूं आपके सिखाये हुये नियम कायदे... अब आप ही उन्हें बदलने को कह रहे हैं?
आप ने ही तो मुझे 'बद्तमीज़' कहा था जब मां की किसी गलती पर पिताजी ने उनके सारे खानदान को तार दिया था और मैंने पलट कर कह दिया था कि, "ऐसे ही अगर मां आपके खानदान, अम्मा-बाबा को गालियां दे तो??" ... आप ही ने तो सच की categories बनाईं थीं सुविधा और संस्कार के हिसाब से.
आप उस भीड का हिस्स नहीं थे क्या जब किसी लडके-से दिखने वाले जीव ने चौराहे पर बैठ कर ऊंची आवाज़ में कुछ कहा था और आपने उसे 'देखने' की बजाय मुझे, मेरी पोशाक को देखा था.. मेरी सहेली ने बताया था कि उस रोज़ आप घर जाते हुये उसके लिये नये 'दुपट्टे' लाये थे.. भाई के साथ ट्यूशन जाने की हिदायत दी थी उसे (और लडके को सिखाया था कि किसी दुसरे के पचडे में मत पडना)... दिन ढलने से पहले घर लौट आने की भी हिदायत आपने फिक्र के wrapping paper में लपेट के पकडाई थी... आपकी ही तो बात मान रही हूं मैं, दूसरों के पचडे में नहीं पडती अब.
और मैं आपको क्यूं दोष दूं कि आप पुरुष थे, मेरा मन नहीं पढा गया आपसे? मेरी मां तो एक स्त्री थी.. उसने क्यूं मेरी बातें सुन कर माथा पकड लिया था अपना और कोसा था उस दिन को जिस दिन मैं इस घर में पैदा हुई. मैंने तो सोचा था कि उसे गर्व होगा मुझ पर ये जान कर कि "आज बस में एक बेहूदा आदमी को मैंने खींच कर झापड रसीद कर दिया".. अब मैंने गांठ बांध ली है ये बात कि ना खुद के खिलाफ हुये किसी गलत को गलत कहूंगी... न किसी और के प्रति हुये गलत को तवज्जो दूंगी.
आप भी उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हो ना जहां एक लडकी का चरित्र इस बात ये तय होता है कि उसने love marriage की है या arranged marriage...
आपके इस मानक के हिसाब से मैं खासी चरित्रहीन हूं. और जब चरित्र नहीं.. तो कैसा ज़मीर!... कैसा दुःख!!... कैसा दिखावा!!!
मेरे पास फ़कत कुछ वादे हैं खुद से करने के लिये जिनकी नुमाइश करने का मुझे कोई फायदा नहीं दिख रहा फिलहाल.. समय आने पर en cash करूंगी...
मैंने खोल दी हैं घर की तमाम खिडकियां, बिछा दी है गुलाबी फूलों वाली नई चादर, टी.वी. पर set कर दिया है reminder नये साल पर आने वाले नय program के लिये.
ओह्! नये साल का resolution तो रह गया.
क्या कहा? देशहित.. नारीहित में संकल्प लूं? कसमें खाऊं उन्हें तोड देने के लिये?
क्यूं? ऐसा क्या हो गया है रातोंरात? "एक और" लडकी ही तो मरी है.. और मैं तो उसे जानती भी नहीं. हां मैं भी गई थी एक candle march में मगर वो तो बस सबको ये बताने के लिये कि मैं भी खासी संवेदनशील हूं.. और फेसबुक पर फोटो भी तो लगाने थे, image का ख़याल रख्ना पडता है यार...
क्या कहा??? जानवरों से बद्तर है मेरी सोच!! मैं खुद भी!!!
हो सकता है.. लेकिन मैं तो कई बरसों में मेहनत कर के सीख पाई हूं आपके सिखाये हुये नियम कायदे... अब आप ही उन्हें बदलने को कह रहे हैं?
आप ने ही तो मुझे 'बद्तमीज़' कहा था जब मां की किसी गलती पर पिताजी ने उनके सारे खानदान को तार दिया था और मैंने पलट कर कह दिया था कि, "ऐसे ही अगर मां आपके खानदान, अम्मा-बाबा को गालियां दे तो??" ... आप ही ने तो सच की categories बनाईं थीं सुविधा और संस्कार के हिसाब से.
आप उस भीड का हिस्स नहीं थे क्या जब किसी लडके-से दिखने वाले जीव ने चौराहे पर बैठ कर ऊंची आवाज़ में कुछ कहा था और आपने उसे 'देखने' की बजाय मुझे, मेरी पोशाक को देखा था.. मेरी सहेली ने बताया था कि उस रोज़ आप घर जाते हुये उसके लिये नये 'दुपट्टे' लाये थे.. भाई के साथ ट्यूशन जाने की हिदायत दी थी उसे (और लडके को सिखाया था कि किसी दुसरे के पचडे में मत पडना)... दिन ढलने से पहले घर लौट आने की भी हिदायत आपने फिक्र के wrapping paper में लपेट के पकडाई थी... आपकी ही तो बात मान रही हूं मैं, दूसरों के पचडे में नहीं पडती अब.
और मैं आपको क्यूं दोष दूं कि आप पुरुष थे, मेरा मन नहीं पढा गया आपसे? मेरी मां तो एक स्त्री थी.. उसने क्यूं मेरी बातें सुन कर माथा पकड लिया था अपना और कोसा था उस दिन को जिस दिन मैं इस घर में पैदा हुई. मैंने तो सोचा था कि उसे गर्व होगा मुझ पर ये जान कर कि "आज बस में एक बेहूदा आदमी को मैंने खींच कर झापड रसीद कर दिया".. अब मैंने गांठ बांध ली है ये बात कि ना खुद के खिलाफ हुये किसी गलत को गलत कहूंगी... न किसी और के प्रति हुये गलत को तवज्जो दूंगी.
आप भी उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हो ना जहां एक लडकी का चरित्र इस बात ये तय होता है कि उसने love marriage की है या arranged marriage...
आपके इस मानक के हिसाब से मैं खासी चरित्रहीन हूं. और जब चरित्र नहीं.. तो कैसा ज़मीर!... कैसा दुःख!!... कैसा दिखावा!!!
मेरे पास फ़कत कुछ वादे हैं खुद से करने के लिये जिनकी नुमाइश करने का मुझे कोई फायदा नहीं दिख रहा फिलहाल.. समय आने पर en cash करूंगी...
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