Wednesday, November 19, 2014

साढे बारह घण्टे...

तमाम शाम सोचा कि फकत एक रात की बात है
फिर सुबह मुझे  भी चल देना है इक राह पकङ कर
हिसाब लगाया घण्टों-मिनटों और निबटाने को पङे तमाम कामों का
ठीक बारह घण्टे और तीस मिनट बिताने थे तुम्हारे बिना इस घर में

जो मुझे बता गये कि वक्त फकत घङी की सुइयों का खेल नहीं है...

वक्त वो तोहफा है जिसे तुम घर लौटते हुए डाल लाते हो जेब में
वक्त वो मरहम है जिसे तुम हताशा वाले दिनों में मल देते हो मेरे माथे पर
वक्त वो जज़्बा है जिसे मेरे गिर्द लपेट देते हो तुम ठण्डी रातों में
वक्त वो गोटी है जिसे कैरम के इस बोर्ड पर बिखेर देते हो तुम बोझिल शामों में


और...
बक्त वो बोझ भी है जिसे उठाए फिलवक्त मेरी पीठ दुख चुकी है
वक्त वो उङी हुई नींद भी है जो रेंग रही है मेरी उंगलियों में

वक्त मेरा और तुम्हारा साझा खाता है...
जो अकेले संभाले नहीं संभलता...

Wednesday, February 5, 2014

वो जो हममें तुममें क़रार था... तुम्हें याद हो कि ना याद हो




नहीं... मुझे इस दर्द की काट नहीं चाहिये. कोई दवा ग़र पा भी लो तो छुपा लेना मुझसे.
... कि इन ज़ख़्मों से उठता जिस्मानी दर्द मुझे तमाम रूहानी तकलीफों से आज़ाद करता है. जब ये दर्द रगों में बहता है तो मुझे ज़िन्दा होने का अहसास होता है. बदन का दर्द दुनिया जहान की उलझनों से ध्यान हटा देता है. पोर-पोर उठती तपकन पर अपना सारा चित्त एकाग्र कर लेना चाहती हूं लेकिन हवा में बहती हुई कोई आवाज़ आ रही है...

"वो मेरे हैं... मुझे मिल जायेंगे... आ जायेंगे
..ऐसे बेकार के ख़यालात ने दिल तोड दिया है"

कैसी भारी और गहरी आवाज़ है.. बेचैन सी कर देने वाली. रात भारी होती जा रही है.

यूं तो दिन में भी लगता है जैसे गले पर कोई बोझ सा है, सांस लेना मुश्किल होता जाता है. लेकिन रात... रात के अंधेरे में, जब सिर्फ कल्पनायें ही दृश्य़ होती हैं, मैं जैसे देख पाती हूं उस साये को जो आंखों में प्यार के डोरे और भवों में नफरत के फन्दे डाले मेरे गले पर अपने अंगूठे का दवाब बढाता चला जा रहा है... उसका चेहरा कितना मिलता है तुमसे.

मैं जाने किस सम्मोहन तले उसे परे हटाने की कोशिश नहीं करती. तब तक तो नहीं जब तक मेरा जिस्म अगली सांस के लिए बग़ावत नहीं कर बैठता.

हाथों में जाने कौन आ बैठता है और उसे परे धकेल देता है. मैं हडबडा कर उठ जाती हूं... हाथ-पैर फेंकती हूं "उसे" ढूंढने-टटोलने के लिए.
... कि मैं अपने क़ातिल को बांहों में भर कर चूम लेना चाहती हूं, जो मेरा सारा बोझ अपने हिस्से लिखा कर मुझे मौत की खुली आज़ाद दुनिया बख़्शना चाहता है... जो मेरी आज़ादी के एवज़ में ज़िन्दगी की ग़ुलामी ताउम्र करने को तैयार है.

मैं शायद चीख रही थी कि तुम हडबडाये से मेरे कमरे में आ गये हो.. सब रौशन कर दिया है तुमने लेकिन मुझे जिसकी बेतरह तलब है इस वक़्त वो जाने कहां गायब हो गया है. मैं तुम्हारे लिए नफरत से इस कदर भर चुकी हूं कि छलकने को हूं.

नफरत करती हूं मैं तुमसे.. घृणा है मुझे इन उजालों से...

... कि मेरा इश्क़ बस अंधेरों में ज़िन्दा होता है.
...कि तुम रौशनी में बडे दूर हुए मालूम होते हो.
...कि उजाले मेरी सौत हैं.

.. कि मैं इक रोज़ मर जाने की आस पर ही ज़िन्दा हूं.


Monday, January 27, 2014

तुझसे बंधी... तुझमें बसी...

वो अलसुबह तुम्हारा चेहरा देख कर दिन शुरु करना
सब्जी चलाते हुए, आटा गूंथते हुए...
... एक सरसरी निगाह घडी पर डालते रहना
झुंझलाना इस बात पर कि क्यूं कभी तुम्हें तौलिया नहीं मिलता?
तुम्हारी मंथर गति देख कर बिगडना...
नाश्ता खत्म करने को बहलाना...
बच्चों की तरह खाने का डिब्बा पकडाना और,
मफलर ढंग से लपेटने की ताकीद करना
"सुबह सुबह गोकि मैं तुम्हारी मां हो जाती हूं "


फिर दोपहर भर सोचना ये फिज़ूल सी बातें
लिखना तुम्हें वो बेतुकी चिट्ठियां ...
.. और उन्हें अपने सिरहाने की किताब में सुला देना.
पढना वो ख़त तुम्हारे,
कि जिन पर तहों के निशां तले अल्फाज़ धुंधला से गये हैं
कभी मुस्कुरा देना किसी ख़याल पर
और कभी झूठमूठ ही हो जाना नाराज़ किसी बेतुकी सी बात पर..
"तपती दुपहरों में मेरे अंदर अलसाई पडी,
तुम्हारी प्रेमिका अंगडाईयां लेती है."

शाम में खंगालना साग-भाजी की डलिया
बीनना पसंद तुम्हारी और छौंक देना ठीक वैसे जैसे भाये तुम्हें
एक-एक फूली रोटी तुम्हें खाते हुए तकना
और उन कडी जली चपातियों को अपने लिये रखना
ह्ंसना, ठिठोली करना, छीनना-झपटना, भागना-पकडना...
... तब कि जब दिन तुम्हारा अच्छा ग़ुज़रा हो
या फिर चुपचाप बदलना टी.वी. के चैनल कि तुम पर थकान तारी है.
"दिन ढलते-ढलते जागने लगती है तुम्हारी अर्धांगिनी मुझमें"