Monday, December 31, 2012

काश! मैं लगा सकती आग उन सारे काग़ज़ों पर..

सोचती हूं.. ज़ाया ही गई वो सारी स्याही
जिससे मैंने या किसी ने भी लिखी नारी की व्यथा, दशा या सम्मान की कथा..
इससे तो बेहतर ये होता कि,
वो सारी स्याही बिखर जाती इतिहास, समाजशास्त्र की तमाम किताबों पर
जो हमें बरगलाती हैं... अहिल्या, वैदेही, शंकुतला के बारे में बता कर
बहलाती हैं.. नारी मां है.. पूजनीया है.. कह कर

काश! मैं लगा सकती आग उन सारे काग़ज़ों पर
कि मेरी बेटी को इन झूठी कहानियों में लिपटे,
सच्चे त्याग और दोगले संस्कारों के सबक नहीं पढने पडते

काश! मैं जा कर लिख पाती उन स्कूली किताबों के हर पन्ने पर कि,
बेटी, हम ऐसे जंगलराज में रहते हैं जहां भेडिये खुले आम घूमा करते हैं..
अपने दांतों, हाथों और आंखों से नोंचा करते हैं अपने 'शिकार' को
कि मैं तुझे परियों और राजकुमारों वाली कहानियां सुना कर किसी धोखे में कैसे रखूं ?
जबकि सच ये है कि,
जो जीना है तो हिंसक होना होगा तुझे...
                         ...अपनी सारी मासूमियत खो कर

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