Wednesday, October 17, 2012

तुम्हें क्यूं लगता है कि मैं बडी हो गई हूं?

उसे हर बात, मेरा हर राज़ बिना कहे मालूम हो जाता मगर वो मेरी सबसे अच्छी सहेली नहीं थी क्योंकि सहेलियां ढूंढी और बनाई जा सकती हैं. वो मेरी ख्वाहिशें, मेरे ख्वाब पूरे करना जानती थी मगर वो कभी भगवान नहीं बन सकी मेरे लिये क्योंकि ज़िन्दगी में ऐसे दौर भी आते हैं जब भगवान के होने पर संदेह हो सकता है. उसे उन रास्तों की कोई समझ नहीं थी जिन पर मैं चलना चाहती थी मगर वो अकेली थी जिसने उन रास्तों के सही नहीं बल्कि 'सुरक्षित भर' होने की दुआ मांगी थी.

उसने मेरे बचपन में किताबों और अखबारों के ढेर से मेरे लिये नन्हीं कहानियां बीनीं. उसने मुझे बताया कि गिरना बुरा नहीं, गिर कर ना उठ पाना बुरा है. उसने मुझे सूखे आटे को रोटियों में तब्दील करना सिखाया. उसने मुझे सिखाया कि चूल्हे पर सब्र पकाना आने से ज़्यादा मुश्किल कुछ नहीं. उसी ने बताया कि मुस्कान से बेहतर ऋंगार कोई नहीं. हालांकि मैं सीखी नहीं लेकिन उसने मुझे सिखाने की कोशिश की कि सुख आपके अंदर नहीं बल्कि आपके करीबियों की मुस्कुराहट मे है. उसने बताना चाहा कि मन मार कर मुस्कुराने से ज़्यादा मुश्किल और 'सुकून भरा' कुछ भी नहीं. उसने मुझे अदृश्य पर भरोसा करना और दृश्य को खुले दिमाग से टटोलना सिखाया.

                                                                                                                                                                             

बस वो मुझे ये सिखाना भूल गई कि अगर कभी वो रूठ जाये तो उसे क्या कह कर मनाया जाये... कि उसे कैसे बताया जाये कि वो मेरी ज़िन्दगी के सबसे खास लोगों में भी सबसे खास है.... कि जैसे चांद-तारों को रौशनी सूरज से मिलती है, उसे नहीं मालूम कि मेरी मुस्कुराहट उसके अधरों से खिलती है.

उसने मुझे तमाम रोगों के लिए घरेलू नुस्खे सिखाये, बस उसका दिल दुखाने से पैदा होने वाली ग्लानि को मिटाने का तरीका नहीं बताया.


उसने मुझे नहीं बताया कि उसके बिना कैसे रहा जाता है, कि रात भर जब नींद ना आये और कोई बालों में उंगलिया सहलाने को ना हो तो कैसे सोया जाये... जाने उसने नहीं सिखाया या मैंने नहीं सीखा मगर मुझे पता नहीं कि जब ऐसा कुछ महसूस हो तो उसे कैसे बताया जाये, कैसे जताया जाये कि मैं अब भी बडी  नही हो पाई हूं...

Tuesday, October 2, 2012

किस्सा एक दम सच्चा है...

अजनबी... नितान्त अजनबी. शहर, घर, लोग, यहां तक कि लोगों के नाम भी अजनबी.

वो एक अलग दुनिया की लडकी थी.. और एक रोज़ उसकी दुनिया में एक मुसाफिर आया. उन दोनों की दुनिया अलग होने के बावज़ूद लडकी के मन की डोर का एक सिरा उस मुसाफिर के उलझे मन के धागों में अटक गया. इन कच्चे धागों को तोडने के कई पक्के यत्न किये गये. लडकी ने खुद अपनी मुट्ठियों में जकड कर इस डोर को ज़ोरों से झटका, इतनी ज़ोर से कि रगों की गिरहों से लहू रिसने लगा लेकिन कच्ची डोर जस की तस. लडके ने भी अपने दांतों से डोर को काटने की कोशिश की मगर सब बेकार. दोनों तरफ की दुनिया के कई हज़ार लोगों ने मिल कर धागों को अपनी-अपनी ओर खींचा और हार कर खुद के पैरों तले ही खुद की खींची हुई हदों को बेरहमी से कुचल दिया.

लडकी को लडके की अनदेखी, अनजानी दुनिया में भेजने का फैसला किया गया. उस रात लडकी के शहर में लोगों ने छक कर खाना खाया, जम कर दारू पी ... और लडकी की मौत पर किराये पर  बुलाये गये लोग ज़ार-ज़ार रोए.

उधर, लडके की दुनिया में लडकी अपना अतीत, अपनी दुनिया, अपना आप भूल कर रमने की कोशिश करने लगी. बदले में लडके की आंखों की चमक मज़दूरी के तौर पर देना तय हुआ. इस सब के बाद भी लडके की दुनिया के लोग उसे 'ग़ैर' समझते और लडकी की खुद कि दुनिया के लोग्.. "मुर्दा". लडकी खुद को ज़िन्दा साबित करने के लिये गहरी सांसें लेती , तेज़ आवाज़ें करती ...

बस लडका देख पा रहा है कि लडकी के भरे बदन के अन्दर दबा मन घुल रहा है... और जितनी तेज़ी से ये मन घुल रहा है, उतनी ही तेज़ी से वो डोर भी जो ज़माने भर कि कोशिसों से बेअसर रही थी.

सुना है कि इस डोर के टूटते ही लडकी की सांसें भी टूट जायेंगी और फिर दोनों दुनिया के लोग मिल कर फिर से उस हद की लकीर को खींचेंगे जिसे उन्होंने मिटा दिया थ. तेरह दिन लम्बा जश्न चलेगा जिसमें दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे को बधाई देंगे... फिर से छक कर खाना खाया जयेगा, जम कर दारू पी जायेगी और किराये के लोग फिर से रोयेंगे.

दाद देनी होगी, ऐसी ग़ज़ब रणनीति से काम किया गया है कि किसी के सिर दकियानूसी, सिरफिरा हत्यारा होने का इल्ज़ाम नहीं आयेगा और लडकी की रगों में बूंद-बूंद घुलता ज़हर अपना असर दिखाता रहेगा...