Friday, March 30, 2012

पूर्वाभास...

शादी होने से पहले लडकियां जैसे सपने देखती हैं, वैसा कोई सपना ना उसे सोते हुये आया... ना जागते हुये ही. जाने कैसे, अपनी पसंद के लडके शादी करते हुये भी उसे ये लगता रहा कि वो गहनों और भारी कपडों से लदी-फदी, खिलखिलाती हुई अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम बढा रही है.

शादी वाले दिन भी उसके चेहरे पर हया या चाल मे थमाव नहीं... वो इधर-उधर की दुनिया से बेपरवाह किसी बच्चे की तरह चल रही है जो मगन भाव से गलियों में गुब्बारे वाले के पीछे फिर रहा हो... उसकी मां उसे बार-बार टोक रही है कि हंसे कम, नज़रें झुका कर चले लेकिन वो मंत्रमुग्ध सी मुस्कुराते हुये बस मां का चेहरा देखे चले जा रही है. मुझे उसे देख कर जाने क्यूं लगा कि वो किसी असर तले है और उसे मां के हिलते होंठ तो दिखाई दे रहे हैं लेकिन उनसे फूटते बोल उसके कानों तक नहीं पहुंच रहे हैं.

जाने क्यूं मुझे लगा जैसे उसका सारा ध्यान अपनी मां की नाक के बांईं तरफ वाले एक मस्से पर केन्द्रित है, फिर मुझे याद आया कि ठीक वैसा ही एक मस्सा उसकी भी नाक पर था लेकिन अब नहीं है. जैसे किसी गलती की सज़ा के तौर पर उसे इस विरासत से बेदखल कर दिया गया हो... शायद शिशिर से प्रेम विवाह करने की सज़ा के तौर पर.

सब लोगों को लग रहा है कि वो बहुत खुश है लेकिन जाने क्यूं मुझे लगता है जैसे वो सोच-समझ से परे वाली किसी हालत में है और एक मुस्कुराहट किसी हवा के झोंके के साथ उड कर उसके चेहरे पर आ कर उलझ सी गई है.

मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठी अधेड उम्र की वो औअरत बडबडाती-सी है, "शिशिर की बहू तो लाज-हया सब मैके में ही छोड आई है.".. या ऐसा ही कुछ और. उन्हें पता नहीं कि वो जीने लायक सांसें भी मैके में ही छोड आई है.

वो और शिशिर हाथों में वरमाला लिए एक्-दूसरे के ठीक सामने खडे हैं ... वो अपनी बडी आंखों को और भी फैला कर मौजूद लोगों की भीड को एक ओर से दूसरे छोर तक देखती है. कुछ ऐसे, जैसे.. जैसे कोई दुल्हन कभी नहीं करती. मानो हर शख्स का मन टटोल रही है.

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हालांकि अभी तक आपने सोचा नहीं है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि आप सोचें कि मुझे उसके बारे में सब कुछ इतनी तफसील से कैसे पता है??? इस से पहले कि आप मुझे उसकी कोई करीबी सहेली समझ लें, मैं आपको बता देना चाहती हूं कि ये सब उसने मुझे खुद बताया था. तब, जब वो वाकई अपनी मौत की तरफ बढ रही थी.. बल्कि मुझे कहना चाहिये कि तब, जब मैं उसे उसकी मौत की तरफ धकेल रही थी.

उसके हाथों को बांधने के बाद जब मैंने ब्लेड को उसके गले की उभरी हुई नस पर रखा तो उसने सहम कर अपनी आंखें नहीं भींच लीं, वो चिल्लाई भी नहीं. उसने बस मुस्कुरा कर कहा कि शादी वाले रोज़ से ही उसे लगता था कि वो अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम बढ रही है. ये भी कि, वो खुश है आखिरकार उसकी सोची कोई एक बात सच होने जा रही है.

एक मरते हुये इंसान के होठों पर आपका नाम कितना मुर्दा लगता है ये मुझे तब ही मालूम हुआ जब उसने कहा कि, "जानती हो मारिया, आज तक मेरी कही कोई बात सच नहीं हुई. जैसा कि अक्सर होता है कि आप बिजली गुल होने का डर ज़ाहिर करें और बस उसी पल कमरे में अंधेरा हो जाये, या कि मेरे कहने भर से कोई क्रिकेट टीम मैच जीत जाये... ऐसा कोई संयोग मेरे साथ कभी नहीं घटा. मैं दुनिया की सबसे अच्छी बेटी होने का भ्रम लिए चौबीस साल जीती रही. शिशिर मुझसे प्यार करता है, ये भ्रम भी पांच-छः साल मेरे गिर्द लिपट रहा..."

इतना कहते-कहते उसकी नस से खून की कुछ गर्म बूंदों ने फिसलना शुरु कर दिया था और मुझे ताज्जुब था कि उसकी आवाज़ में दर्द नहीं था, शायद वो इतना सह चुकी थी कि दर्द की सीमाओं से परे पहुंच चुकी थी...उसका बोलना अभी भी जारी था...

"मुझे हमेशा से लगता था कि मेरी शादी के फेरे मेरी मौत की तरफ बढने वाले रास्ते के कुछ एक मोड भर हैं. जीवन में मुझे सिर्फ एक बात का पूर्वाभास हुआ है... मेरी मौत का. शायद मैं आज पहली बार खुशी को उसकी पूरी पूर्णता के साथ महसूस कर पा रही हूं मार्...
...
..."

वो शायद और भी कुछ कहना चाहती थी लेकिन मैं अपना नाम उसके लगभग मुर्दा हो चुके होठों से फिर से नहीं सुन सकती थी. इसलिये उसे धीरे-धीरे यातना दे कर मारने का इरादा छोड कर मैंने एक झटके में उसे आज़ाद कर दिया.

लेकिन उसकी शादी वाले दिन जो मुस्कुराहट उसके चेहरे पर हवा के किसी झोंके के साथ आ कर अटक गई थी, वो आज उसके निश्चल होठों पर भी उसी बेफिक्री के साथ पसरी हुई थी.

उसे अपना पूर्वाभास सही होने की शायद वाकई बेहद खुशी थी...

Wednesday, March 21, 2012

तुम मेरे जानने वालों में सबसे बुरे हो लडके...


बचपन में अम्मा अक्सर भूत-प्रेत, ऊपरी असर, ना जाने कौन्-कौन सी अलाओं-बलाओं से बचाने के लिये झाडा लगवाने ले जाती थीं. ज़रा जुकाम हुआ नहीं कि नज़र उतारने के बीसियों टोटके तैयार... आज अगर वो होतीं तो पूछते कि फरिश्तों के असर से निज़ात दिलाने के लिए कहीं कोई झाडे नहीं लगते, कहीं कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं करता क्या कि मेरी रूह पर लम्बे अरसे से एक फरिश्ते ने कब्ज़ा कर रखा है...

फरिश्ता है इसलिये कोई खास तक़लीफ तो नहीं देता लेकिन ये भी क्या कम कोफ्त है कि आप पर आपसे ज़्यादा किसी और का हखो जाये? आप हंसना चाहो और तभी फरिश्ते की कोई उदासी आ कर होठों से सारी मुस्कुराहट सोख ले जाये... उलझनों से आजिज़ आ कर आप मौत के साथ एक long drive पर जाने की तैयारी में हो कि बस फरिश्ता हाथों में हाथ डाले किसी अनजान राह पर दूर तक पैदल ले जाये और रास्ते में कमर पर उंगलियां फेर कर इस तरह गुदगुदाये कि आपकी हंसी से बंध कर तमाम खुशियां ज़िन्दगी में चली आयें.

वो मुझे मेरी ज़िन्दगी जीने का सच में एक दम ही कोई मौका नहीं देता और मैं उस से इतनी नफरत करती हूं जितनी कि मैंने बचपन में किसी से अपने रंग चुरा लेने पर भी नहीं की होगी.

बेशक वो फरिश्ता है लेकिन अपनी (और अब उसके साथ बंटी हुई) ज़िन्दगी में मैं जितने भी लोगों से मिली हूं उनमें वो सबसे बुरा है... सबसे बुरा. और उसकी सबसे बुरी बात ये है कि जब मैं उसे ये सब कहती हूं तो उसे पता चल जाता है कि ये बस एक तरीका भर है उसे बांहों में भर लेने को उठने वाली तलब को झिडक कर वापस सुला देने का...

Tuesday, March 20, 2012

बस... एक आवाज़ भर है!!!


ये भी क्या कम सुकून है कि तुम्हारी आवाज़ मेरी पहुंच के बाहर नहीं है कि इसे तुम खुद ही सहेज गये हो शायद मेरे ही लिये. तुम्हारा अक्स कभी छाया बन कर मेरी आंख की पुतली से नहीं गुज़रा. तुम्हारी खुश्बू कभी मेरी सांसों के साथ जकडी हुई मेरे फेफडों में पहुंच कर हमेशा के लिए कैद हो कर नहीं रह गई. लेकिन, तुम्हारी आवाज़... तुम्हारी आवाज़ मेरे खुले बालों को हौले से परे हटा कर मेरे कानों को सहलाती हुई जाने कौन-से रास्ते से मेरे दिल तक पहुंची है.
और अब तुम्हारी आवाज़ दिन-रात मेरे अंदर बात-बेबात... वक़्त-बेवक़्त... तेज़ी से चक्कर काटती रहती है. जब बहुत ज़्यादा घुटने लगती है तब शायद दिल से उठ कर गले तक आती है. पल भर के लिए कोई गोला-सा फंस जाता है गले में, मैं देर तक अपनी ही आवाज़ सुनने को छटपटाती रहती हूं कि तुम तो जानते ही हो कि मुझसे सन्नाटा बर्दाश्त नहीं होता. ये सन्नाटा आपको खुद को समझने का कुछ वक़्त दे देता है और मैं अपने आप को समझ कर एक बार फिर सब कुछ उलझाना नहीं चाहती. ख़ैर.. गले में अटकी तुम्हारी आवाज़ कुछ देर बाद, कभी तुम्हारी याद 'की' हिचकी या कभी तुम्हारी याद 'में' सिसकी के साथ आज़ाद हो जाती हूं और फिर अंदर जैसे सब खाली हो जाता है...

और इस खालीपन को भरने के लिए गुस्सा, अवसाद... मेरी घुटती सांस और फंसती आवाज़ के जाने कितने संगी बिन बुलाये चले आते हैं. बडे हक़ के साथ मेरे अंदर आवारा टहलते रहते हैं... तब तक कि जब तक तुम्हारी आवाज़ एक बार फिर आ कर सब कुछ आबाद ना कर दे, किसी ज़िम्मेदार मां की तरह अपनी बेटी के बिगडैल दोस्तों को झिडक कर भगा देती है... मायके से कई रोज़ बाद लौटी गृहस्थिन की तरह अपने अस्त-व्यस्त घर को, पति को और पति की फूंकी सिगरेटों के अधजले टुकडों को देखती है और बस पल्लू कमर में खोंस कर वो सब कुछ निकाल बाहर करती है जो बेवज़ह है.

कहने को बस एक आवाज़ भर है लेकिन कितनी मुकम्मल.. कितनी पूरी है. और नासमझों को लगता है कि इश्क़ करने के लिए किसी शख्स की ज़रूरत है जब मैं बताती हूं कि बस एक आवाज़ भर है जो मुझे अरसे से उलझाये हुये है.

एक आवाज़...जिससे आज कल मेरा इश्क़ परवान चढ रहा है.