Wednesday, February 29, 2012

इश्क़ जैसा कुछ


दिसम्बर की कोई तारीख, साल नामालूम


कई बार सोचती हूं कि तुम कोई मौसम, कोई साल होते तो कैलेण्डर का एक पन्न भर पलट कर मैं तुम्हें पीछे छोड कर कहीं आगे बढ जाती. तुम्हें पकडे रखने की... बांध कर जकडे रखने की कोई कोशिश कभी कामयाब नहीं होती और मुझे तुमसे 'इश्क़ जैसा कुछ' हो जाने के भ्रम (या डर) से छुटकारा मिल जाता.
अजीब है ना कि अच्छी तरह जानते हुये कि प्यार जैसा कुछ नहीं होत, मुझे अक्सर लगता है कि मैं तुम्हारे प्यार में पड गई हूं.



२1 फरवरी,साल नामालूम

जो दुपट्टा तुमसे अपनी आखिरी मुलाकात के वक्त मैंने पहना था, वो उस रोज़ आखिरी बार तहों की बेडियों से आज़ाद हुआ था. उसे दोबारा पहनने की हिम्मत नहीं हुई. जाने क्यूं हर बार उसे देख कर ऐसा ख़याल कहां से आ जाता कि इस बार जाने कौन अज़ीज़ हमेशा के लिये रूठ कर चला जाये.
फिर उस कुर्ते पर तुम्हारी बातों के छींटे भी तो पडे हैं, सब कुछ खो कर उन छींटों से भी हाथ धोना मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती. जो कुछ तुमने दिया था, वो सब तो जला दिया, मिटा दिया... बस ये एक छाया भर रह गई है जो तब भी मेरे साथ रहती है जब खुद मेरा साया तक ढूंढे से नहीं मिलता. हर रोज़ इसे निकालती हूं, तुम्हारी बातों की खुश्बू को सांसों में भर कर हर लफ़्ज़ को छूती हूं... खुद से रोज़ नफरत करती हूं इसे सहेजे रखने के लिए मगर तुमसे मेरा लगाव, तुम्हारी उलझी बातों से मेरा प्यार एक दिन के लिए भी कम नहीं होता. ये मर सकता है कभी, इसकी तो उम्मीद भी छोड चुकी हूं तो अब दुआ के अल्फाज़ बदल दिये हैं... "अब इसके चंद रोज़ के लिये खो जाने या कि मेरे घर का रास्ता भूल जाने की प्रार्थना करती हूं."

क्या कोई और तरीका है रगों में घुलते 'इश्क़ जैसे कुछ' सि निजात पाने का???



२३ फरवरी,साल नामालूम

जो कुछ तुम कहना चाहते हो, वही सब मैं सुनना भी चाहती हूं और तुम्हारे बिना बोले उसे तुम्हारी तेज़ होती सांसों में सुन भी लेती हूं मगर वही सब जब आवाज़ में तब्दील हो कर कानों से टकराता है तो जाने कैसे अपना असर खो देता है!
अब तक इतनी बातें तो तुमसे कर ही चुकी हूं कि तुम्हारी चुप्पी से ग़म चुन सकूं या कि तुम्हारी हंसी में झूठ की मिलावट को पहचान लूं... लेकिन तुम्हारी बातें और... और... और...सुनने कि लालसा है कि खत्म ही नहीं होती. ये भी सोचती हूं कि तुमसे यूं ही ऊल-जुलूल जो जी चाहे बोलती रहती हूं, जब तुम ऊब जाओगे मेरी बातों से तो अपनी कमअक्ली के किस्से किसे सुनाऊंगी?
पता है.. उस रोज़ जब तुमने कहा कि "तुम बच्ची नहीं हो, बहुत बडी हो" तब मैंने सुना कि "तुम मीलों दूर से भी मेरी उदासी को जज़्ब करने क मद्दा रखती हो." जब तुमने कहा कि "हंसती रहा करो, अच्छी लगती हो" तब लगा जैसे कहा हो कि "ग़म की आंच पर फुहार जैसे पडते हैं तुम्हारी हंसी के छींटे"
सच कहते हो तुम... पागल हूं मैं.. एक दम पागल. फिर भी तुम्हारे 'पागल लडकी' कहने पर मैं इत्ती सारी बकवास बस इसलिये करती हूं कि हमारे बीच कोई सन्नाटा ना पसरे. और फिर जैसा मैं अक्सर कहती हूं, "एक आवाज़ ही तो अच्छी है तुम्हारी" इसे सुनने का मोह छूटता ही नहीं.. यकीन मानो मैं कई बरस तक तुम्हारी बातें (बकवास, to be specific) सुनती रह सकती हूं लेकिन डरती हूं कि कहीं तुम आदत ना बन जाओ मेरी.

तुम्हें तो पता ही है कि मेरे अंदर के अल्हडपन, बेवकूफी.. और सबसे बढ कर मेरी "आवारगी" की मौत का दिन तय हो गया है. उस तारीख के दूसरी पार अगर तुम मुझे याद आ गये तो किसे कहूंगी खुद को संभालने के लिए कि तुम्हारे मिलने के बाद से मैंने खुद को भी कई बातें बताना छोड दिया है.

जानती हूं कि 'खुशफहमी' भर है मगर मुझे सच में लगता ह कि मैं भी कभी तो तुम्हें याद आऊंगी. हां, सच है कि मेरी तरह बातें कोई भी लडकी बना लेगी... तुम्हारी आवाज़ के असर तले बंध कर कोई भी अपनी नींद से समझौता कर लेगी... तुम्हारी उदासी को सोख कर अपनी दुआओं में तुम्हारा नाम बडी आसानी से जोड लेगी... मगर फिर भी जाने मन क्युं ये मानने को तैयार ही नहीं होत कि तुम मुझे सिरे से भूल जाओगे. कुछ तो ऐसा मुझमें भी होगा जिसे तुम याद करोगे... बोलो, याद करोगे ना?
देखो, अगर ना भी सहेजो मुझे अपनी यादों में तो एक झूठ भर बोल देना. तुम कोई संत नहीं हो और मुझे भी झूठ की चाशनी में पगी मीठी बातों से कोई परहेज़ नहीं.

... ज़िन्दगी के उस हिस्से में, जहां मैं तुम्हें अपने साथ नहीं ले जाऊंगी,बडी सारी खुशियां बस मेरे ही इन्तज़ार में बैठी हैं. लेकिन मेरा एक हिस्सा उलझा-सुलझा-सा तुम्हारे पास छूटा जा रहा है. मालूम है मुझे कि इसे संभालने का वक्त नहीं है तुम्हारे पास तो इसका मरना भी मेरी "आवारगी" की मौत के साथ तय है. बस ये एक आखिरी कडी है मेरे-तुम्हारे बीच की... इन दोनों के साथ ही ये सब खत्म हो जायेगा जो सांसों को कसता रहता है... जो हंसी को फूटने नहीं देता... जो खुशियों की बारिश और मेरे बीच अनचाही छतरी सा तना रहता है.

लेकिन मुझे लगता है कि इस जुडने... टूटने.. बिखरने के खेल में कई सालों तक अविरल बहने वाले आंसुओं के झरने फूटेंगे जो दिन-रात उसे सींचते रहेंगे जिसे मैं "इश्क़ जैसा कुछ" कहती हूं.

जाने कितने जनमों के फेर में पिसने के बाद, जाने कितने नरक भोगने के बाद मुझे इस सब से निजात मिलेगी कि जो एक ही वक्त में हंसाना-रुलाना दोनों जानता है.. कि जिसे मैं "इश्क़ जैसा कुछ" कहती हूं.



२5 फरवरी,साल नामालूम

तुम्हारे दिमाग में रहने तक, लाख कोशिश कर लूं, कुछ और लिखा ही नहीं जा सकता. क्या तो होता ही है... एक craving-सी, सही शब्द नहीं मिलता उसके लिये.

एक घुटन-सी होती है जैसे किसी ने दिल को मुट्ठी में भींच लिया हो... तुमसे बात करने की बडी शिद्दत के साथ ज़रूरत महसूस होने लगती है. अकेले बैठ कर बार-बार उन शब्दों को दोहराती हूं जिनके बारे में तुम कहते हो कि मेरी आवाज़ उनमें एक कशिश भर देती है फिर कोई बताता है कि झूठी तारीफें करने मे डॉक्टरेट मिली हुई है तुम्हें.

जानते हो हमारे पिछले conversation में से कौन-सी बात बेतरह याद आती है?
यही की तुमने कहा था कि, "हम कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहते जो 'तुम्हें' अच्छा ना लगे"

ऐसा कुछ (झूठ ही सही) कहने वाले से अगर मुझे "इश्क़ जैसा कुछ" (कुछ पलों के लिये ही सही) हो जाये तो रामजी हमें माफ नहीं कर देंगे क्या???

Saturday, February 18, 2012

सोचती हूं...

तुम अक्सर कहते हो कि मेरे मन की थाह लेना चाह कर भी तुम कभी मुझे समझ नहीं पाते और यकीन मानो कि इस बात की जितनी झुंझलाहट तुम्हें है, उतनी ही पीडा मुझे भी. इसलिये मैं सोचती हूं कि क्या ही हो जो मैं एक किताब में तब्दील हो जाऊं???

तुम पन्ना-पन्ना... हर्फ़-हर्फ़ मुझे पढ डालो. मेरी अनकही उम्मीदों को ज़ुबान मिल जायेगी और मेरे मन का दर्द जब पन्नों पर उकेर दिया जायेगा तो तन के दर्द की तरह ही तुम उसे सहला पाओगे.

मेरी अच्छी बातों को underline करते चलना और गुस्सा आने पर इन बातों को ज़ोर-ज़ोर से खुद को सुनाते हुये पढना फिर भी जब खूब नाराज़ हो जाओ तो बेरुखी से मुझे किसी drawer में बंद कर देना. कभी डांटते हुये कान उमेंठने की जगह वो पन्ना कोने से fold कर दिया करना जहां से आगे तुम मुझे पढना चाहो...

और भले से मेरी तारीफ में अभी जितनी चाहो कंजूसी कर लो मगर तब एक अच्छी किताब के बारे में ढेर सारी अच्छी बातें अपने दोस्तों से कहना और सुनो... ऐसा करते हुये मुझे अपने हाथों में ही रखना. अपनी तारीफ सुन कर जब मैं फूल कर कुप्पा हो जाऊंगी तो आम किताबों से अलग मुझमें कुछ पन्ने और बढ जाया करेंगे. ऐसे सारी उमर तुम बस मुझे पढना... मैं बस तुम्हारे हाथों में रहूंगी.

और अपनी वसीयत में ये लिखना मत भूलना कि मुझे तुमसे कभी अलग ना किया जाये. तुम्हें दफन किया जाये, तो मेरी किस्मत में भी मिट्टी होना लिख दिया जाये... तुम्हें जलाया जाये तो मेरी तकदीर में भी राख में तब्दील होना मुकर्रर किया जाये... मैं तिल-तिल कर मरना नहीं चाहती और तुम्हारे बिना जीना मरने से किसी भी हाल मे बेहतर होगा... ये मानना इस जनम में तो मुमकिन नहीं...