Saturday, July 14, 2012

जुगनू सरीखे रिश्ते...




मेरी उदासी (जो अमूमन बेवज़ह होती है) को, बहला-फुसला कर या शायद थोडी बहुत रिश्वत दे कर, वो घर आते ही बाहर निकाल करता है. और फिर अपनी कहना शुरु करता है, इस बात से बेखबर कि मैं सुन भी रही हूं या नहीं. उसकी किस बात का मुझ पर क्या असर हो रहा है इस बात की उस रत्ती भर भी फिक्र नहीं नहीं. ज़रा भी फुर्सत नहीं कि मेरे पास बैठ कर घडी दो घडी मुझे देख बर ले या कि अपनी निगाहों क एक सुरक्षा कवच मेरे गिर्द बुन दे, वो जानता है कि इसके लिए उसकी आवाज़ ही काफी है.
अपनी धुन में मगन वो कुछ ढ़ूंढ रहा है.. तकियों के नीचे, दरवाज़ों के पीछे, चीनी के डिब्बे मे, गहनों के लॉकर में...
क्या???
ये जानने में ना मेरी दिलचस्पी ना बताने की उसे फुर्सत. पूरे घर को तितर-बितर कर दिया है... डिब्बे-डिब्बियां, बर्तन, फर्नीचर सब उसे गुस्से से घूर रहे हैंऔर वो सब पर अपनी आवाज़ का मरहम रखता जा रहा है, अपनी रौ में बोले जा रहा है जाने क्या क्या...

और मैं... मैं उसके इर्द-गिर्द होने के अहसास भर से पुरसुकून दीवार से पीठ टिकाये, आंखें बंद किए बैठी हूं.. लम्हा-लम्हा उसकी आवाज़ का कतरा-कतरा खुद में जज़्ब कर रही हूं जो मेरे कानों से होती हुई मेरी रग-रग में उतर कर बह रही है...

उसकी सांस इतनी उथल-पुथल करने में बेतरह तेज़ हो गई है, इतनी तेज़ कि इस खाली घर में ऐसे सुनी जा सकती है जैसे वो सामने ही बैठा हो...और फिर जब ये आवाज़ एक झटके के साथ अचानक मुझसे लिपटती है तो मालूम होता है कि वो वाकई बेहद करीब बैठा हुआ है... एकदम सामने.

"यार वो नई वाली का भी पहले से एक boy friend है... "

और फिर मेरी खिलखिलाहट बिखरे सामान से बचती-टकराती सारे घर मे घूम आती है.

"चलो रे... लडकी गई तो गई मगर जो ढूंढ रहा था वो तो मिला..."

"मेरा पूरा घर तहस-नहस किये बिना तुझे कुछ मिलता क्यूं नहीं?"

"गलती तेरी है... मेरे आते ही बता क्यूं नहीं दिया कि यहीं नाक के नीचे छिपा रखी है ये बत्तीस दांतों वाली perfect smile..."

जाने कैसा तो दर्द गले को तर कर जाता है, मुश्किल से उसका नाम ज़ुबान से फूटता है...

"कमल..."

"ओये, ज़रा सी तारीफ क्या कर दी मुस्कुराहट की ऐसे छिपा ली जैसे नज़र ही लग जायेगी."

"बकवास बंद कर और ये सब समेट जो बिखेरा है."

"बिखरा हुआ समेटने ही तो आया हूं."

"u are late boy... आधा हिस्सा हवा के साथ हवा हो गया और आधा पानी में घुल कर पानी. अब समेटने को कुछ नहीं."

"तो ऐसा समझ लो कि मैं अवशेषों को सहेजने आया हूं"

उसकी उंगली मेरे चेहरे के तिलों को एक imaginary line से जोडती हुई रेंग रही है और जैसे सब उजला-उजला दिख रहा है नीम अंधेरे में भी. उसे बांहों में भर लेने की तलब फिर से मेरे दिल से मेरी उंगलियों की तरफ फिसलने लगी है.

"तू हर बार मुझे अधमरा छोड कर वापस जिलाने क्यूं आ जाता है?"

"मैं क्या करूं कि मेरी जान तुझमें बसती है... मैं खुद की जान लेने का कोई ऐसा तरीका नहीं जानता जो तुझे घायल ना करे. चाकू उठाऊं तो तेरी कलाई पर लाल निशान उभर आते हैं... फन्दा बनाऊं तो तेरी आवाज़ गले में अटक जाती है. मैं हर बार खुद को मारने की तैयारी कर लेता हूं और हर बार तेरी तडप देख कर जीने की तलब होने लगती है. सांसें अमृत हो जाती हैं और धडकन.. धडकन संजीवनी.

मेरे आंसू उसकी मुस्कुराहटों में घुल रहे हैं और मेरी हंसी उसके आंसुओं को सोख रही है. इस पूरे बिखरे घर में हमारे लिए कहीं जगह नहीं.. या शायद इस पूरी दुनिया में हम दोनों के लिए बस एक ही पनाह है...

एक-दूसरे की बांहों से एक-दूसरे के इर्द-गिर्द खडे किये गये इन बेहद मज़बूत मकानों में ... जिन्हें हम रोज़ तोडते हैं, रोज़ बनाते हैं... रोज़ बिखेरते हैं, रोज़ सजाते हैं... हम हर रात साथ-साथ जन्म लेते हैं और हर भोर साथ-साथ मर जाते हैं...