Wednesday, October 19, 2011

... या ये मेरा भरम ही है!!!


कहीं पढा था कि स्रष्टि में केवल एक ही चीज़ शाश्वत है और वो है.. परिवर्तन; तो ज़ाहिर है कि चीज़ें और लोग आज से पहले भी बदलते रहे होंगे.. सम्भव है कि मुझमें भी हर बीतते दिन के साथ किसी नये परिवर्तन ने घर किया होगा. फिर ऐसा क्यूं लगता है कि बस पिछले छः महीनों में ही समय का चक्का पहली बार घूमा है? क्यूं ऐसा लगता है कि मेरे जन्म से ले कर मेरे २४ साला होने तक सब कुछ ठहरा हुआ था और अब अचानक वो सब, जिसकी मैं आदि थी, मानो गायब ही हो गया है.

और ऐसा नहीं है कि सिर्फ लोग और हालात ही बदले हों.
मैं.. मैं खुद भी इतनी बदल गई हूं कि आईने में अपनी आंखों में झांकते हुये जाने किसकी नज़र इतने गहरे तक भेद जाती है कि निगाह चुरानी पडती है.

जाने कितने ही भरम थे खुद अपने बारे में जो धीरे-धीरे किसी ग्लेशियर की तरह पिघल रहे हैं. इतने धीरे कि किसी का ध्यान तक नहीं जाता.. मेरा भी तो कहां ही गया था तब तक कि जब तक वो लकीर नहीं पिघल गई जिसे मैं अपनी हद कहती थी.

हां, हद ही तो थी जो मैंने खुद अपने लिये तय की थी. हद ही तो थी जो बरसों से खींचती थी अपनी तरफ.. लुभाती थी उस पार की दुनिया दिखा कर. मगर मैं अपने डर (जिन्हें तब मैं अपने उसूल समझती थी) के पहरेदारों की फटकार सुन कर कभी उस तरफ का रुख नहीं करती थी.

लेकिन क्योंकि परिवर्तन शाश्वत है इसलिये बांधा तो किसी को भी नहीं जा सकता. मैं भी एक दिन उन पहरेदारों की नज़र बचा कर निकल आई अपनी हद के इस पार की अजनबी दुनिया में. मगर पूरा का पूरा उस हद को कहां पार कर पाई? उस कंटीली बाड में मेरे वजूद का एक हिस्सा उलझ कर रह गया है.

अब मैं अधूरी सी बस एक प्रवाह के साथ बही जा रही हूं. सोचना... कोशिशें करना... खुद को बांधना.. मैंने छोड दिया है.

जाने मैं जी रही हूं या ये मेरा भ्रम ही है उस मोमबत्ती के जैसे जो अपनी रौशनी, अपनी लौ पर इतरा रही है बिना ये जाने कि वो धीरे-धीरे अपनी म्रत्यु की तरफ.. एक अंधकार की तरफ बढ रही है.

सच में, कौन ही जाने कि मैं जी भी रही हूं या ये मेरा भरम ही है!!!