Monday, July 19, 2010

बंजर महफिल


पता नहीं ये कडवाहट का पतझड कब आया और
खिलखिलाहट अधरों से सूखे पत्तों की तरह झर गई
अब तो उन पत्तों के निशान भी नहीं मिलते...

बैठी रहती हूं दिन भर कथित अपनों से घिरी
मगर जिनसे घण्टों तक करूं बेवजह की बातें
ऐसे तो कोई इंसान नहीं दिख्ते....

दूर तक चली जाती हूं जानी पहचानी गलियों में
मगर कजिनके अंदर से आये ठहाकों की आवाज़
मुझको तो ऐसे अब मकान नहीं दिखते...

चुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...

Thursday, July 15, 2010

पराजित प्रयास



अब से कोशिश करूंगी तुझे भूल जाने की
क्योंकि रंग लाती नहीं दिख्ती कोई कोशिश संग घर बसाने की

चंद दिनों के आंसू और एक उमर का दर्द्
नहीं कोई बडी कीमत इश्क़ की नेमत पाने की

दीवारों से सिर पटके तू गवारा नहीं मुझे
और मुझमें हिम्मत नहीं दीवारें तोड आने की

दिल की दौलत लगती दो कौडी की
जब होती बात खज़ाने की

मेरा जीवन मुझसे ज़्यादा जी कर भी वो कहते हैं
नहीं सुनेगी बात हमारी ये फसल नये ज़माने की

तू भी मुझको याद ना करना
जान कीमती बर्बाद ना करना

ज़िन्दगी का क्या है? कट जायेगी...
या तो अल्हड नदिया सी या फिर ठहरे पानी सी

Thursday, July 8, 2010

खुदा की भूल हो गये...


ग़म बांट के हल्का करने की कोशिश की थी
चाहे अनचाहे कुछ ज़ख्म हरे हो गये

मेरा दर्द सुनने की ख्वाहिश थी उन्हें बहुत
किस्सा सुने बिना ही फिर परे हो गये

छेड दिया कोई तार ऐसे कि रात आंखों में कट गई
दर्द-औ-ग़म का मालूम नहीं मग़र ये खबर बंट गई

मेरी कमदिली के किस्से मशहूर हो गये
वो फेंक के पत्थर ठहरे पानी में कहीं मशगूल हो गये

चंद अल्फ़ाज़ों में मेरा ग़म ढूंढना है फिज़ूल
जो चर्चे थे कभी महफिल में, अब राह की धूल हो गये

जिन्हें किताबों में रख के छोड दिया हो
किताब पर भी बोझ, हम वो फूल हो गये

लाख चाह कर भी सुधरे ऐसी सूरत नहीं कोई
हम चांद में दाग जैसी खुदा की भूल हो गये

Tuesday, July 6, 2010

मैं फलक की तरफ चली रेत पे कदम के निशान बनाते हुए...
मेरी हमकदम थीं लहरें मेरा हर निशां मिटाते हुए...

Sunday, July 4, 2010


दिन सूने और रातें उजली
संग सजे मुस्कान और सिसकी
सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

दिल में सबके कुछ राज़ दफ़न हैं
हर एक अदा है ज़रा अलग सी
वो लुटती अपनों के हाथों
इसी से उसको कहते पगली
खामख्वाह ही बन जाते किस्से
और बंट जाते जैसे चिठ्ठी पत्री

सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

उसके दुःख में कई मुनाफ़े
सुख में निरों की हालत पतली
उसे सुना कर तीखी बातें
खुद ही खुद को लगती मिर्ची
राम नाम का सत्य भुला कर
नीयत कुछ सिक्कों पर फिसली

सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

कहते किये अह्सान कई हैं
करते बातें अगली पिछली
कुछ पे वो बस हंस देती है
कुछ पे घिन से आती मितली
चील कौवे से बैठे फिराक़ में
कब उस पर टूटेगी बिजली

सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

Friday, July 2, 2010

पाप और पुण्य

कमरे की खामोशी में उनकी आंखों से दर्द बहा करता है
और मैं उसे चुप्चाप पी लिया करती हूं
करते हैं जब सब उनसे अपनेपन की बातें...
झूठे दिखावे के कडवे किस्से और एह्सान के तौर पर जागती रातें...
तभी कोई आंसू ना ढुलक जाये...
इस डर से पलकों के कोर-सी लिया करती हूं

ऐसा भी नही कि बेहद प्यार है हमें उनसे या उनकी कमी बेहद खलेगी
बस ये सच चुभता है कि जाडों में अंगीठी फिर ना जलेगी

मगर इस सब को हटा के परे,
मैं ईश्वर से उनकी मौत की प्रार्थना किया करती हूं
कोंचती सुइयों और ग्लूकोज के सहारे पुण्य बटोरते हैं सभी
और मैं उनकी मौत की दुआ का पाप ओढ लिया करती हूं