Tuesday, December 21, 2010

पैच अप wid परमात्मा

कई दिनों की गरमा गरमी के बाद मेरा और राम जी का पैच अप हो गया... कुछ बातें उन्होने मेरी मान लीं और कुछ जगह मैं भी रानी बेटी की तरह झुक गई. तो मेरी बहुत प्यारि दोस्त प्रेरणा ने मुझे राम जी को थैंक्स कहने के लिए एक कविता लिखने की प्रेरणा दी क्योंकि मैंने राम जी से झगड के भी कई कविताएं लिखी थीं जैसे कि "उसे बख्श देना" और "आत्मसमर्पण"... तो प्रेरणा की प्रेरणा, शेखर के टेक्निकल गाइडेंस, मेरी श्रद्धा और तुम्हारे प्रेम का नतीजा ये कविता हाज़िर है ः)



एक दीवानी सी लडकी इक रोज़ झगड बैठी मुझसे...
बोली, तू सबको नाच नचाए.. मैं ना बोलूंगी तुझसे...

मुझ पर ये इल्ज़ाम रखा था कि...
मैंने उसकी खुशिया छीनीं,
मैंने उसके सपने तोडे,
आस दिखा कर सुखद भविष्य की... असमंजस के रिश्ते जोडे...

गुस्से में मुझको धमका कर पगली बोली थी मुझसे...
प्रियतम की ग़र खुशियां छीनी... ना बात करूंगी फिर तिझसे
नर-नारायण के इस झगडे के प्रत्युत्तर में मैं तब केवल हंस पाया था...
कैसे उसको भवितव्य दिखाता.. जिस पर खुशियों का साया था???

पर कल रात हो गया तरुणी के सम्मुख वो सारा सत्य उजागर
जान गई कि खुशियों के ही पुष्प बिछे हैं उसके प्रियवर के पथ पर

आज फिर वो सरला आई थी मुझसे मिलने मंदिर में...
नैंनों में कुछ नीर भरा था, बोली प्रफुल्लित स्वर में...

"उसको दे कर इतनी खुशियां, प्रभु तुमने मुझको जीता
आज से तुम भी मित्र हो मेरे.. मैं भूली जो कल बीता
आब से कोई शिकायत होगी ना मुझको तुमसे
जान गई तुम तारणहार हो.. तारोगे तम से.. ग़म से...

अब से मेरे अधरों पर सद प्रमुदित मुस्कान रहेगी
ग़र तरल हुए भी नैना तो मन में ये बात रहेगी

उसकी खुशियां संजो संजो कर मैं नित ही मुसकाऊंगी
नहीं वो मेरा...एह्सास है मुझको... फिर भी जश्न मनाऊंगी
मन मंदिर के इक हिस्से में कर के तेरी प्राण प्रतिष्ठा
मेरी भक्ति के दिए में एसके प्रेम की जोत जलाऊंगी"

Saturday, December 11, 2010

पहली दो कवितायें

This is my 50th post over dis blog. Truelly speaking, i get bored wid things very soon n wen i started dis blogging, i had no idea that even a single person will follow me except a few friends of mine but for my surprise nw i have a no. of frnds here.

Today i want to treat you ol wid my VERY FIRST POEMS.

मुझे अच्छी तरह याद है कि इनमें से पहली कवित मैंने कोई १२ साल की उम्र में लिखी थी. कारगिल युद्ध के समय हम्रा विद्यालय से कारगिल के जवानों के लिए पोस्टकार्ड भेजे जाने थे और हर बच्चे को कुछ लिखना था. तब मैंने उस खुले मैदान में बैठ कर ये कविता लिखी थी.

उठो जवानों वक़्त आ गया अब हिम्मत दिखलाने का
दुश्मन के नापाक इरादे मिट्टी में दफ़नाने का
गांधीवादी बन कर हमने अब तक तो था मौन धरा
अब ऐसा कुछ कर जायेंगे कांप उठेगी वसुंधरा




अब मैं अपनी लिखी कोई कविता इतनी बार नहीं पढटी जितना इस कविता को पढा था. और उस वक़्त मुझे ये दुनिया की सबसे बेहतरीन कविता लगती थी.. आज सोचो तो हंसी आती है.

दूसरी कविता उसी शाम मैंने लिखी थी जो कुछ इस तरह थीः


सहमी सहमी, चुप चुप सी...बैठी आंगन के कोने मे
बचपन भूली, यौवन भूली...घर आंगन के कामों में
पत्नी,मां,बेटी के पद उसकी ज़िम्मेदारी हैं
फिर भी इतनी बेबस दुर्बल क्यूं दुनिया में नारी है



ये कविता आज भी मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है. अपने घर वालों को इस ब्लोग के बनने तक मैं ये यकीन नहीं दिला पायी थी कि मैं इन्हें कहीं से चुरा कर नहीं ला रही हूं. मेरे भाई बहन को आज तक भरोसा नही है इस बात का. हां शायद मां अब मान गई हैं... अब मुझे खुश करने के लिए मान गईं हैं या सच में मान गईं हैं ये कहना मुश्किल है :D

Saturday, December 4, 2010

तुम और तम...


नींद मेरी आंखों से कोसों दूर रहती है
बोझिल होती हैं पलकें मगर आराम नहीं
ये रात मुझे जगये रख कर बहुत कुछ कहती है
मेरी तन्हाई और अपने अंधेरे को तौला करती है,
पता नहीं...
मेरे हिस्से में कडवाहट ज़्यादा या व ही ज़्यादा सहती है?

बांटा करती है अपने दामन में छिपा कर रखे काले किस्से
मेरी ये सहेली भी मेरी तरह उजालों से डरा करती है

कई बार इसकी बातों को नज़रांदाज़ कर जाती हूं
इसके किस्सों को दरकिनार कर आगे बढ जाती हूं
मगर दूसरे ही पल इस पछतावे से घिर जाती हूं...
कि ये तो अपनी कालिमा में मेरे आंसू छिपा लेती है,
है तिमिर से घिरी, उपेक्षित...फिर भी दोस्ती निभा लेती है...

फिर मुझमें ये स्वार्थ क्यूं जाना?
और तब से ही इसे सुनती हूं...हर रोज़...बिना नागा...