tag:blogger.com,1999:blog-27606573415315788032024-03-12T16:17:59.417-07:00मन के झरोखे से...monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.comBlogger100125tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-56454699576037148502017-10-10T01:11:00.000-07:002017-10-10T01:11:09.050-07:00Harappa- curse of the blood river<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
It is such an interesting read that you are forced to read page after page. The curiosity to know the unfolding events makes this book un-put-downable. The author Vineet Bajpai has wonderfully woven this tale of times and places apart.<br />
A moment you are reading about mesmerizing Saraswati Civilization (yes, I am convinced that it is not Indus Valley Civilization) and another moment this book takes you to the ghats of Benaras.<br />
<br />
My views may be different from others but I think that the book is exceptionally fast which, though makes it engaging but, leaves you craving for some more information. It has everything that a fiction lover may think of... The mystery of Harappa, the charm of Banaras, the hidden underworld of Paris, an innocent looking assassin, a man who is one of the saptrishis and the reincarnation.<br />
<br />
The novel gave me an urge to know more about the lost Civilization and I was appalled to know that British ACTUALLY tried to destroy the ruins of a whole Civilization which could tell so much about the history. So rest assured of the facts given in the books.<br />
<br />
The book weaves many present day facts with the story and let you learn some real fascinating things about Harappa.<br />
<br />
This is without a doubt, worth reading.<br />
<br />
The only disappointment that I had was the incomplete story which is yet to be told in the next book of the series. And I am anxiously waiting for it.<br />
<br />
It is definitely the book that has the simplicity of language to hook even a non reader and the wonderfully researched plot to amuse a book lover. </div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-68540687641327575132017-09-19T04:27:00.000-07:002017-09-19T04:27:24.102-07:00तुमसे छुपा कर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जानते हो...<br />
मैंने रोप दिया है एक हिस्सा अपना<br />
तुम्हारे मन के एक कोने में<br />
चुपचाप...बिना तुम्हारे जाने...<br />
...फैल रही हूं मैं तुम्हारे भीतर<br />
<br />
कभी महसूस करने बैठे तो पाओगे<br />
मुझे अपने रोम रोम में साँस लेते हुए...<br />
...तब भी जब मैं नहीं रहूँगी इर्द गिर्द तुम्हारे<br />
<br />
और तब,<br />
<br />
तुम सुनना...<br />
वो आवाजें जो मैंने सहेज दी हैं बस तुम्हारे लिए<br />
तेल नमक डाल कर...<br />
...की बरसो बरस तक खराब न होने पाएं।<br />
<br />
तुम देखना...<br />
वो तस्वीरें जिनमें मैं मुस्कुराई हूं बस तुम्हारे लिए<br />
और टाँग दिया है उन्हें...<br />
...वक़्त की पहुंच से ऊँची खूंटियों पर।<br />
<br />
और फिर,<br />
तुम माँगना...<br />
दुआएं खुद के लिए,<br />
की मेरे लिए पूजा इबादत के मानी बस यही है<br />
... पिछले कई बरसों से।</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-77432114984123405702015-01-29T05:46:00.000-08:002015-01-29T05:46:11.141-08:00नये बहाने लिखने के...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr">
तन की सरहदों के दायरे में ही एक गांव बसाया था। कोख की
मिट्टी में मासूमियत रोपी थी और सोचा था कि इक रोज़ किलकारियों की फसल
महकेगी। चाहा था कि उन किलकारियों को पिरो कर एक खूबसूरत बन्दनवार तैयार
करूंगी और अांगन के ठीक. सामने वाले दरवाज़े पर टांग दूंगी। उसमें लटकानी
थी मुझे नन्ही नन्हीं लोरियों की घण्टियां कि जिन्हें आते जाते हल्का सा
हिला दूंगी और उन सुरों से भर जाएगा सारा खालीपन।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
तुम्हारे गालों के गड्ढे में भर कर मेरी हंसी कैसी लगेगी,
ये भी देखना था। मेरी बेवकूफियों से लिपट कर तुम्हारी समझदारी की बेल कितना
ऊपर जायेगी, ये भी जानना था।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
मैंने उस फसल को हर खाद मुहैया कराई थी लेकिन मां के लाख समझाने पर भी नींबू मिरची नहीं टांगा था।</div>
<div dir="ltr">
खैर ... ये भी होना था कि मैं ही कब से कहती आ रही थी कि लिखने का कोई बहाना नहीं मिलता।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
नन्हीं मासूम मुस्कुराहटों से उठते किसी भंवर में<br />
अपनी तमाम उलझनें फेंक आने के ख्वाब थे<br />
तेरे-मेरे बीच आ कर भी पाट दे हर दूरी<br />
ऐसी कारीगरी के नमूने वाले पुल बनाने के ख्वाब थे</div>
<div dir="ltr">
खाली सपाट दीवारों पर चस्पा तस्वीरें मज़ा नहीं देतीं<br />
काली पेन्सिलों वाली कलाकारी सजाने के ख्वाब थे</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
ख्वाब थे ...<br />
छोटे ऊनी मोज़े बुनना सीखने के,<br />
ख्वाब थे ...<br />
अनन्त तक भर कर, निर्वात तक रीतने के<br />
ख्वाब थे ...<br />
दर्द की लहरों भरे दिन, हंसाते हुए बीतने के<br />
ख्वाब थे ...<br /> </div>
<div dir="ltr">
रच कर स्वयम् कुछ, पकृति को जीतने के</div>
<div dir="ltr">
लेकिन क्योंकि ख्वाब बस करवट बदलते ही टूट जाते हैं<br />
इसलिये इस बार हकीकतों को पालूंगी।<br />
नहीं फेरूंगी हाथ प्यार से खुद पर,<br />
इस बार तुझे अपनी नज़र से बचा लूंगी</div>
</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-14313250930893606832015-01-16T02:28:00.001-08:002015-01-16T02:48:23.289-08:00पापा!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-ZNJ457h-j90/VLjsW_wi6EI/AAAAAAAAA38/BeV7GBRQdvU/s1600/IMG-20141203-WA0018.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-ZNJ457h-j90/VLjsW_wi6EI/AAAAAAAAA38/BeV7GBRQdvU/s1600/IMG-20141203-WA0018.jpg" height="320" width="240" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
पिता...<br />
सबृ और सख्ती को घोल कर<br />
पिला देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
डांट और नरमी को मिला कर<br />
पहना देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
फिकर और गुस्से को बुन कर<br />
ओढा देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
प्यार और चिन्ता को फेंट कर<br />
चटा देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
भरोसे और नज़र अंदाज़ी को छौंक कर<br />
खिला देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
सीख और चोट से रगङ कर<br />
चमका देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
मरहम और तीखे शब्दों से घिस कर<br />
संवार देना चाहता है<br />
<br />
पिता...<br />
गोद और फटकार में पिरो कर<br />
सजा देना चाहता है<br />
<br />
पिता केवल पिता नहीं, वो मां भी है<br />
पिता... सबृ है संयम भी<br />
ज़ख्म है मरहम भी<br />
अात्मा है तन-मन भी<br />
हंसी है अनबन भी<br />
<br />
पिता...<br />
सङकों पर छोङ देता है<br />
...कि तुम रास्ते ढूंढ पाओ<br />
<br />
पिता...<br />
मुंह पर दरवाज़ा फेर देता है<br />
...की तुम घर बना पाओ<br />
<br />
पिता...<br />
चौखटों में जकङ देता है<br />
...कि तुम अपनी ज़िद की कीमत समझ पाओ<br />
<br />
पिता...<br />
तुम्हारी कमियों को उघाङ देता है<br />
... कि तुम कहीं अधूरे ना रह जाओ<br />
<br />
पिता...<br />
तीखे शब्दों से छील देता है<br />
... कि तुम जिंदगी की हर चोट से उभर पाओ<br />
<br />
पिता है तो तुम हो<br />
खेल है खिलौने हैं<br />
सुरक्षा है सपने हैं<br />
पिता मां जितने ही अपने हैं<br />
<div>
<br /></div>
</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-75777407971740529142014-11-19T22:51:00.003-08:002014-11-19T22:52:25.461-08:00साढे बारह घण्टे...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">तमाम शाम सोचा कि फकत एक रात की बात है</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">फिर सुबह मुझे भी चल देना है इक राह पकङ कर</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">हिसाब लगाया घण्टों-मिनटों और निबटाने को पङे तमाम कामों का</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">ठीक बारह घण्टे और तीस मिनट बिताने थे तुम्हारे बिना इस घर में</span><br />
<br />
<span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">जो मुझे बता गये कि वक्त फकत घङी की सुइयों का खेल नहीं है...</span><br />
<span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;"><br /></span>
<span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">वक्त वो तोहफा है जिसे तुम घर लौटते हुए डाल लाते हो जेब में</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">वक्त वो मरहम है जिसे तुम हताशा वाले दिनों में मल देते हो मेरे माथे पर</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">वक्त वो जज़्बा है जिसे मेरे गिर्द लपेट देते हो तुम ठण्डी रातों में</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">वक्त वो गोटी है जिसे कैरम के इस बोर्ड पर बिखेर देते हो तुम बोझिल शामों में</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;"><br /></span><br />
<span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">और...</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">बक्त वो बोझ भी है जिसे उठाए फिलवक्त मेरी पीठ दुख चुकी है</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">वक्त वो उङी हुई नींद भी है जो रेंग रही है मेरी उंगलियों में</span><br />
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">
<br /></div>
<span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">वक्त मेरा और तुम्हारा साझा खाता है...</span><br style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;" /><span style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; line-height: 23.799999237060547px;">जो अकेले संभाले नहीं संभलता...</span></div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-40055706473199120032014-02-05T00:58:00.000-08:002014-02-05T00:58:24.548-08:00वो जो हममें तुममें क़रार था... तुम्हें याद हो कि ना याद हो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-CFJ_VNt2-QU/UvH8drQxp8I/AAAAAAAAAto/GIn3XkA1zCk/s1600/index.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><br /></a></div>
<div style="text-align: right;">
<br /></div>
<br />
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-CFJ_VNt2-QU/UvH8drQxp8I/AAAAAAAAAto/GIn3XkA1zCk/s1600/index.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-CFJ_VNt2-QU/UvH8drQxp8I/AAAAAAAAAto/GIn3XkA1zCk/s1600/index.jpg" /></a>नहीं... मुझे इस दर्द की काट नहीं चाहिये. कोई दवा ग़र पा भी लो तो छुपा लेना मुझसे. <br />... कि इन ज़ख़्मों से उठता जिस्मानी दर्द मुझे तमाम रूहानी तकलीफों से आज़ाद करता है. जब ये दर्द रगों में बहता है तो मुझे ज़िन्दा होने का अहसास होता है. बदन का दर्द दुनिया जहान की उलझनों से ध्यान हटा देता है. पोर-पोर उठती तपकन पर अपना सारा चित्त एकाग्र कर लेना चाहती हूं लेकिन हवा में बहती हुई कोई आवाज़ आ रही है...<br /><br />"वो मेरे हैं... मुझे मिल जायेंगे... आ जायेंगे<br />..ऐसे बेकार के ख़यालात ने दिल तोड दिया है"<br /><br />कैसी भारी और गहरी आवाज़ है.. बेचैन सी कर देने वाली. रात भारी होती जा रही है.<br />
<br />यूं तो दिन में भी लगता है जैसे गले पर कोई बोझ सा है, सांस लेना मुश्किल होता जाता है. लेकिन रात... रात के अंधेरे में, जब सिर्फ कल्पनायें ही दृश्य़ होती हैं, मैं जैसे देख पाती हूं उस साये को जो आंखों में प्यार के डोरे और भवों में नफरत के फन्दे डाले मेरे गले पर अपने अंगूठे का दवाब बढाता चला जा रहा है... उसका चेहरा कितना मिलता है तुमसे.<br /><br />मैं जाने किस सम्मोहन तले उसे परे हटाने की कोशिश नहीं करती. तब तक तो नहीं जब तक मेरा जिस्म अगली सांस के लिए बग़ावत नहीं कर बैठता.<br /><br />हाथों में जाने कौन आ बैठता है और उसे परे धकेल देता है. मैं हडबडा कर उठ जाती हूं... हाथ-पैर फेंकती हूं "उसे" ढूंढने-टटोलने के लिए.<br />... कि मैं अपने क़ातिल को बांहों में भर कर चूम लेना चाहती हूं, जो मेरा सारा बोझ अपने हिस्से लिखा कर मुझे मौत की खुली आज़ाद दुनिया बख़्शना चाहता है... जो मेरी आज़ादी के एवज़ में ज़िन्दगी की ग़ुलामी ताउम्र करने को तैयार है.<br /><br />मैं शायद चीख रही थी कि तुम हडबडाये से मेरे कमरे में आ गये हो.. सब रौशन कर दिया है तुमने लेकिन मुझे जिसकी बेतरह तलब है इस वक़्त वो जाने कहां गायब हो गया है. मैं तुम्हारे लिए नफरत से इस कदर भर चुकी हूं कि छलकने को हूं.<br /><br />नफरत करती हूं मैं तुमसे.. घृणा है मुझे इन उजालों से...<br /><br />... कि मेरा इश्क़ बस अंधेरों में ज़िन्दा होता है.<br />...कि तुम रौशनी में बडे दूर हुए मालूम होते हो.<br />...कि उजाले मेरी सौत हैं.<br /><br />.. कि मैं इक रोज़ मर जाने की आस पर ही ज़िन्दा हूं.<br /><br /><br /></div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-83971144482236918702014-01-27T00:24:00.000-08:002014-01-27T00:35:17.790-08:00तुझसे बंधी... तुझमें बसी... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वो अलसुबह तुम्हारा चेहरा देख कर दिन शुरु करना<br />
सब्जी चलाते हुए, आटा गूंथते हुए...<br />
... एक सरसरी निगाह घडी पर डालते रहना <br />
झुंझलाना इस बात पर कि क्यूं कभी तुम्हें तौलिया नहीं मिलता?<br />
तुम्हारी मंथर गति देख कर बिगडना...<br />
नाश्ता खत्म करने को बहलाना...<br />
बच्चों की तरह खाने का डिब्बा पकडाना और, <br />
मफलर ढंग से लपेटने की ताकीद करना<br />
"सुबह सुबह गोकि मैं तुम्हारी मां हो जाती हूं "<br />
<br />
<br />
फिर दोपहर भर सोचना ये फिज़ूल सी बातें<br />
लिखना तुम्हें वो बेतुकी चिट्ठियां ...<br />
.. और उन्हें अपने सिरहाने की किताब में सुला देना.<br />
पढना वो ख़त तुम्हारे,<br />
कि जिन पर तहों के निशां तले अल्फाज़ धुंधला से गये हैं<br />
कभी मुस्कुरा देना किसी ख़याल पर<br />
और कभी झूठमूठ ही हो जाना नाराज़ किसी बेतुकी सी बात पर..<br />
"तपती दुपहरों में मेरे अंदर अलसाई पडी,<br />
तुम्हारी प्रेमिका अंगडाईयां लेती है."<br />
<br />
शाम में खंगालना साग-भाजी की डलिया<br />
बीनना पसंद तुम्हारी और छौंक देना ठीक वैसे जैसे भाये तुम्हें<br />
एक-एक फूली रोटी तुम्हें खाते हुए तकना <br />
और उन कडी जली चपातियों को अपने लिये रखना<br />
ह्ंसना, ठिठोली करना, छीनना-झपटना, भागना-पकडना...<br />
... तब कि जब दिन तुम्हारा अच्छा ग़ुज़रा हो<br />
या फिर चुपचाप बदलना टी.वी. के चैनल कि तुम पर थकान तारी है. <br />
"दिन ढलते-ढलते जागने लगती है तुम्हारी अर्धांगिनी मुझमें"</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-75153155992145770382013-09-30T04:17:00.001-07:002013-09-30T04:17:37.711-07:00...बिखरे बिखरे ख़याल!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अकेले सूने घर में बर्तन धोते-धोते अचानक कटोरी को पटिया पर फेंक कर खडी हो जाती है, सलवार झाडने लगती है. कुछ भी तो नहीं है.. लगा जैसे कुछ रेंग रह हो अंदर. चूहे, छिपकली, कांतर सभी कुछ तो है इस मकान में और परले साल तो एक संपोला भी निकल आया था उपलों वाली कुठरिया में.<br /><br />"तू कब से डरने लगी?"<br />"जब से अकेले रहने लगी."<br />"ह्म्म्म् अब तो रघु भी नहीं है यहां"<br />"था भी तब भी कहां ही था.. तब भी अकेली ही थी जब पलंग पर उसके पांव दबाते दबाते नींद से जूझती रहती थी."<br />
<br />
क्या ऊल-जुलूल सोचे पडी है. अकेले रहते रहते शायद दिमाग कुछ चल गया है वरना कोई यूं खुद से ही बात करता है. ग़र खुद ही जवाब देना हो तो फिर सवाल रहा ही कहां?<br />
<br />लेकिन बात है तो सही.. ये डर सचमुच अकेलेपन से ही उपजा है. अम्मा के घर में तो कभी नहीं लगा डर.. सांप, बिच्छू, छिपकली तो वहां भी थे मगर भरोसा सा था कि कोई बचा लेगा और ना भी बचा पाये तो कितने ही ढेर सारे लोग होंगे जो घेर कर आंसू बहायेंगे. <br /><br />ये भी कैसा अजीब सा सुकून है कि आपके मर जाने पर कितने लोग रोएंगे जबकि कोई रोए या ना भी रोए, कौन सा कुछ पता चलना है मौत के बाद. लेकिन फिर भी एक सुकून है.. नहीं, सुकून 'था'. अब तो मर जाना भी डरावना लगने लगा है. और बीमार या चोटिल हो जाना.. बेतरह भयानक.<br /><br />जाने कितने ही दिन बुखार में तपेगी, भूख से आंतें इठीं जाती होंगी मगर खाना पकाने की ताकत नहीं होगी.<br />कभी आंगन में पैर फिसल जायेगा, मोरी की ईंट माथे में घुस जायेगी..खूब खूब खून बह जायेगा मगर उठ जाने की हिम्मत नही होगी.<br /><br />और ऐसे ही कभी बुखार में तपते या वहीं मोरी के पास औंधे मुंह पडे मौत आ जाएगी. कौन बैठा है जो किसी को कुछ मालूम होगा? तो क्या चूहे कुतर डालेंगे देह को... कीडे पड जाएंगे? सडांध फैलना शुरू होगी तब कोई दरवाजा तोड कर कहेगा; "ओहो, मर गयी बेचारी. उंहू.. म्युनिसपैलिटी वालों को खबर करो, कैसी सडांध फैल रही है. फूंकने-फांकने का इंतज़ाम करो."<br /><br />और फिर वो 'कोई' मुंह पर कपडा रखे रखे ही बहर चला जायेगा. तो क्या इतनी लम्बी छ्ब्बीस साला ज़िन्दगी में एक 'कोई' ही जुटा मेरे हिस्से में? मैंने तो भरे-पूरे कुनबे के सपने सजाये थे. दादी सास लाड लडाएगी... सास चिढ कर कम दहेज का ताना देगी, मैं भी शुरु के कुछ साल सुनूंगी फिर उल्टे जवाब देना सीख जाऊंगी. ननद मेरा सामान बांटेगी, मैं बस कुढ कर रह जाऊंगी. देवर ठिठोली करेगा... "अपने भतीजे-भतीजियों को बिगाडे दे रहे हो तुम, लल्ला जी" ऐसा ताना दूंगी मैं. और एक "तू" होगा जो आते-जाते कोई इशारा कर देगा और मैं घूंघट को और आगे खींच कर ओट में ही शर्म से दुहरी हो जाऊंगी.<br />
<br />लेकिन तू तो यूं ही बीच में धोखा दे कर चला गया. क्या इसी दिन को मैं सब आगा-पीछा भूल कर तेरे संग चली आई थी? क्या हक़ था तुझे ऐसे मझधार में मुझे छोड जाने का?<br /><br />तेरे तो सब कर्मकाण्ड मैंने किसी तरह निबटा डाले लेकिन मेरा अंतिम संस्कार किसके भरोसे छोड कर चल दिया तू? कहते हैं सब सही से ना हो तो आत्मा भटकती है.. जीते जी जो भटक रही हूं, क्या मरने के बाद भी मेरे हिस्से चैन नहीं आना है?<br /><br /><br />कुछ तो छोड कर जाता मरे. कोई आस, कोई औलाद. हां, जानती हूं कि तेरे जैसे लम्पट और मेरे जैसी कुलच्छिनी का जना सपूत तो ना होना था मगर कोई तो होता जिसे कोसने में उमर तमाम होती रहती.<br /><br />कोई जमीन-जायदाद.. अपनी नहीं, रेहन-गिरवी रखी छोड जाता जिसे छुडाने के नाम पर मैं किसी रोज़ खुद को बेच डालती. कुल्टा हो जाने का "कोई एक बहाना भर" ही छोड जाता रे!<br /><br />तू तो बस ख़याल छोड गया है. मैं ख़याली पुलाव पकाती ही चली आयी तेरे संग... तेरा ख़याल ही रखती रही इतने बरस और अब भी क्या ही है हाथ में? अतीत के ख़याल ... भविष्य के ख़याल .. जी पाने के ख़याल .. मर जाने के ख़याल. <br /><br />ख़याल...ख़याल...ख़याल...फक़त ख़याल... <br /><br /><br /></div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-6460523870372192052013-09-12T12:34:00.001-07:002013-09-12T12:34:22.209-07:00"फिक्र की खुराक इश्क का ज़ायका खराब किये दे रही है..."<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />कोई किसी जाहिल को इतना याद कर सकता है???<br />जबकि पता हो कि तुम होते भी तो इस वक़्त तक सो गये होते, <br />इस बात से बेपरवाह कि मैं करवटें बदलती हूं रात सारी... <br />तुम्हें जगाना चाह कर भी जगा नहीं पाती, हालांकि मालूम है मुझे कि;<br /><b>"फिक्र की खुराक इश्क का ज़ायका खराब किये दे रही है..."</b><br /><br />कोई किसी जाहिल को इतना याद कर सकता है???<br />जबकि पता हो कि तुम होते भी तो इस वक़्त तक सो गये होते <br />तब तुम्हारी उस बेपरवाह नींद को मैं सारी रात खुली आंखों से निहारती, <br />चाहती उठ जाना और टहलना यूं ही इस सूने, बिना आंगन वाले घर में... <br />किसी किताब से अपनी मनपसंद पंक्तियां पढ लेने की शदीद इच्छा को दबा देती कि;<br />कहीं तुम जाग ना जाओ... <br /><br />कोई किसी जाहिल को इतना याद कर सकता है???<br />जबकि पता हो कि तुम होते भी तो इस वक़्त तक सो गये होते ...<br />चिढती, खांसती- खखारती मगर ऐसे कि;<br />कोई खलल ना पडे तुम्हारी नींद में... <br />और सोचती कि तुम्हारा होना- ना होना बराबर सा ही है...<br /><br />मगर जब बिस्तर में तुम्हारी जगह एक निरा निश्चल तकिया भर पडा देखती हूं तो मालूम होता है कि तुम्हारा नींद में करवट भर बदल लेना भी एक सुकून है..<br />कभी यूं ही कच्ची नींद मे पूछ लेना कि "सोयी नहीं अब तक" और मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना ही फिर करवट बदल कर सो जाना भी एक सुख है...<br /><br />जब तक खो ना जाये, तब तक निरा अनजाना ही रहता है बहुत कुछ</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-70496137899825188202013-08-31T13:18:00.001-07:002013-08-31T13:18:26.967-07:00ज़रा संभल कर...मेरी ख्वाहिशों को छूने की ग़लती ना कर बैठना !!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम अब भी याद आते हो. ना... उतना तो नहीं कि जितना आया करते थे मगर फिर भी एक दम गायब नहीं हुये हो अब तक. हालांकि अब तुम्हारी याद में वो धार नहीं रही कि सोच पर फेरते ही ख़याल कट कर रह जाये, बस किसी नरम पंख जैसी छुअन भर बाकी है.<br /><br />अभी भी किसी-किसी रात तुम्हारी याद का कोई टुकडा सिर उठाता है जैसे हारमोनियम के किसी सुर पर से तार फिसल के हट गया हो लेकिन अब जीवन का राग बेसुरा नहीं होने देती मैं. कोई सुन पाये उससे पहले ही सब कुछ वापस उसकी जगह पर करीने से लगा देती हूं. टूटा-फूटा यादों का वो कोलाज अपनी बातों के सजावटी गुलदान के पीछे छिपा देती हूं.<br /><br />जानते हो आज भी किसी के उंगली के पोरों में मेरा जिस्म तुम्हारी छुअन टटोलता है. आंखों को मींच के खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि हां, ये तुम ही हो लेकिन रूह छिलती-सी चली जाती है. सुबह मैं वहां तुम्हारी नज़रअंदाज़ी का मरहम लगा देती हूं. कोशिश करती हूं कि ज़ख़्म भर जाये लेकिन खुद घाव को ही ग़र मरहम से ज़्यादा दर्द प्यारा हो तो भला आराम कहां मुमकिन है!<br /><br />मैं जानती हूं कि तुम अपनी स्ंपूर्ण पूर्णता के साथ कहीं और हो फिर क्यूं हमेशा तुम्हारे ख़यालों की चिंदी-चिंदी कर बिखेर दी कतरनें मुझे अपने आस-पास उडती दिखाई देती हैं?<br />इस सवाल के जवाब में मैं खुद से एक बेहद खूबसूरत झूठ कह देना चाहती हूं कि; "मैं भी तुम्हारे भीतर कहीं ज़िन्दा हूं अब तक... दिल में ना सही, दिमाग के किसी अंधेरे, सीलन भरे ज़रा से टुकडे में तुमने मेरी याद को मर जाने के लिये अकेला छोड दिया है."<br /><br />अगर इतनी बेरूखी से भी तुम कभी-कभी मुझे याद करो तो मुझे चैन मिल जायेगा... मेरी सांसें थोडी कम मुश्किल हो जायेंगी... मेरी धडकन कुछ कम भारी... मेरा जीन ज़रा कम तकलीफदेह.<br /><br />मैं कोशिश करती हूं कि कम से कम य कि ना ही लिखूं लेकिन अक्सर मेरा स्वार्थ मेरे अहम पर भारी पड जाता है. कभी- कभी ही सही मैं हर संभव तरीके से तुम्हें जता देना चाहती हूं कि <span style="background-color: white;"><i><b>मेरा तुम पर नेह शायद उतना उथला नहीं जितना तुमने या खुद मैंने समझा था.</b></i></span><br /><br />मैं जानती हूं कि तुम ये सब पढ रहे हो मगर ज़रा संभल कर... बडी मुश्किल से सुलाई मेरी इन ख्वाहिशों को पढ या देख भले लो मगर इन्हें छूने की ग़लती ना कर बैठना क्यों कि तुम्हारे छूने भर से ये जान कर ज़िन्दा हो जायेंगी और फिर हम दोनों को चाहे या अनचाहे ताउम्र आंखों में एक-दूसरे का अक्स लिये फिरना होगा.<br /><br />ख़ैर...</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-91278834581664276232013-05-02T05:28:00.001-07:002013-05-02T07:38:30.099-07:00संगमरमरी देह पर कोयले घिसने के दिन..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-WjS5n8Bi0Zs/UYJbcycI7AI/AAAAAAAAApI/VZj1s31uXHE/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-WjS5n8Bi0Zs/UYJbcycI7AI/AAAAAAAAApI/VZj1s31uXHE/s1600/images.jpg" /></a></div>
सफ़ेदी मानो कालिमा से ढंकती जा रही है. हर ओर शुभ्रता पर हौले-हौले कालिख फैलायी जा रही है... किसी गहरी साज़िश के तहत. कहीं बडी गहरी, बेहद भीतरी तहों से शुरु हुआ था ये सब... पहले-पहल मन मैला हुआ था. <br />
<br />
अगर अभी याद्दाश्त पर काला पर्दा नहीं पडा है तो शायद रंगीन इन्द्रधनुषी रंगों के, बारिशों की नमी के दिन थे जब प्यार का लबादा पहने किसी ने दस्तक दी और मेरे भीतर पसरना शुरु किया. मैंने तो बस उसे एक कमरा भर दिया था मगर उसने हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लिया, मेरे
भीतर से सबको एक-एक कर के कब बाहर कर दिया, पता भी नहीं चला. होश तो तब आया
जब मुझे भी एक रोज़ मेरे अंदर से बाहर फेंक दिया. मेरी देह, मेरे आत्म पर
एकक्षत्र राज्य हो गया उसका. <br />
<br />
उसकी छाया मेरे उगाये त्याग, संस्कार के नन्हे पौधों पर पडी और वो मुरझा गये. प्यार और अपनेपन वाली भी सारी पौधें सड गईं. पहले पीली पडीं फिर मिट्टी बनी और कई सदियों जाने कितना कुछ भुगतने के बाद काले पत्थरों में तब्दील हो गईं. लपलपाती ज़ुबान से आग बरसी और कोयलों ने दहकना शुरू किया. एक कोने से दूसरे कोने तक सबके भीतर बचे र्ंगों के आखिरी हिस्सों ने अपने अपने हिस्से की आखिरी सांसें लीं. लाल, पीली, नीली, नारंगी लौ उठीं और उसके बाद.. राख़, सिर्फ राख़.<br />
<br />
जाने कौन कह मरा था कि बंजर ज़मीनों में कुछ नहीं उगता. अगर उसने राख़ में बेरूखी की धूल, बेपरवाही की खाद मिला कर देखा होता तो उसे मालूम होता कि उसने बेवफाई की फसल के लिये दुनिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी तैयार की है. रात के अंधेरों में सर्र्-सर्र की डरावनी आवाज़ें होतीं और सुबह ग्लानि के आंसुओं का छिडकाव करते हुये मालूम होता कि फसल खूब बढ रही है... वासना के खर-पतवार भी दिखने लगे थे कहीं-कहीं कि ज़रूरी नहीं कि जो बोया जाये वही काटा भी जाये हर बार. बल्कि बिना बोये जो उग आता है उसे ही काटना ज़्याद मुश्किल होता है.<br />
<br />
ख़ैर... अब तो इस सब को भी उजडे हुये अर्सा हो गया. अपनी बर्बादी की याद तब आयी जब भीतर की कालिमा देह की झीनी चादर से झलकने लगी. ओह! मन की कालिख तन पर भी चढने लगी है अब शायद.<br />
<br />
ख़ैर...<br />
<br />
मेरी जिन खूबियों के चलते मैं भा गई थी तुमको,<br />
वो सब तो अब गुज़रे हुये कल की बातें हैं<br />
और उस पर तुम्हारा कहना कि; <br />
"कुछ भी नहीं बदला"<br />
मेरा दिल रखने की ये कोशिश बडी नाकाम लगती है...<br />
<br />
मेरी जिस पावन गरिमा पर खुद गर्व था मुझको,<br />
वो सब इतिहास के पन्नों में जडी मुर्दा रातें हैं<br />
और उस पर तुम्हारा कहना कि; <br />
"गंगाजल नहीं सडता"<br />
ये बात मेरे ही अंतस में हंसता कोई इल्ज़ाम लगती है...<br />
</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-1274191963803936452013-04-23T23:04:00.000-07:002013-04-23T23:04:03.299-07:00"आवाज़ों के शहर वाला दोस्त"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरा और उसका आवाज़ भर का रिश्ता था और मैं उसे "आवाज़ों के शहर वाला दोस्त" कहती थी.<br /><br />उसका और मेरा रिश्ता जिस दुनिया में बनता और पनपता था, वो दुनिया रात के अंधेरों में ही उजली होती थी. रातों.. खासकर सूनी खामोश रातों में ही देखी जा सकती थी. सूरज की किरणें पडते ही वो ख़ाक में तब्दील हो जाती थी या कि मन के घुप्प अंधेरों में छुप जाती थी.<br /><br />ऐसा नहीं था कि दिन के उजाले में उसके और मेरे बात करने पर कोई बंदिश थी लेकिन जाने क्यूं रौशनी बातों में बनावट के अजीब गंदले रंग भर देती थी. जबकि रात में... अंधेरे में... उन सचों को भी टटोल कर पढा जा सकता था जो ज़ुबान का रास्ता तक नहीं जानते थे.<br /><br />लेकिन अब वो अंधेरी रातें मेरी उमर के पटल से गायब होने वाली थीं. मुझे इस बात का अहसास था कि मैं उसकी आवाज़ के ठहराव में उसकी सिगरेट के कशों की महक को महसूस नहीं कर पाऊंगी... सन्नाटों में उसकी सांसों से डर कर उससे कुछ बोलने की गुज़ारिश करने की भी ज़रूरत नहीं पडेगी.. उसके शहर की हवा की ठण्डक सिहरन बन कर मेरी आवाज़ को अब फिर नहीं कंपायेगी...<br />... ऐसी ही कई सच्चाईयां शायद उस पर भी हर रोज़ ज़ाहिर हो रही होंगी लेकिन हम दोनों में से कोई भी बिछडने की बात नहीं कर रहा था. उन दिनों मैं चुप थी... बेहद चुप. कुछ भी कहने-सुनने को जी ना चाहता मगर उसे तो वही करना होता जो मैं ना चाहूं हांलाकि ये भी सच है कि हम दोनों की चाहत का सिरा एक ही जगह खुलता था और वो मुझे मुझसे बस थोडा-सा... ज़रा-सा ही ज़्यादा जानता था.<br /><br /><br />ख़ैर.. जाने कैसा अजीब सा लगा... जाने क्या तो जल-बुझ सा गया अंदर ही अंदर जब उसने कहा कि;<br /><br />"अब तुम गायब होने वाली हो"<br />"मैं शहर बदल रही हूं, मर नहीं रही"<br /><br />कहने को कह गई मैं मगर जानती थी कि वो लडकी जिसकी रगों उसका इश्क़ बहता है, उस नये शहर की हवा को सांसों में भरते ही मर जायेगी. ओह! उसने क्यूं कहा? क्यूं याद दिलाया कि मैं उससे दूर जाने वाली हूं जबकि ये राज़ आखिर तक मैं खुद से छिपा कर रखना चाहती थी.<br /><br />उस रोज़ के बाद से मैं हर दिन असम्ंजस के हिंडोले पर पींगे लेती रही कि उससे दूर जाने से पहले ही गायब हो जाना चाहिये जिससे मेरा जाना किसी किस्म का कोई vacuum create ना करे उसकी ज़िन्दगी मे या कि बचे हुये पलों में ज़्यादा से ज़्यादा जी लेना चाहिये.<br /><br />यूं तो दोनों में से कोई रास्ता मुश्किल नहीं.. मुश्किल है तो बस ये समझ पाना कि किस रास्ते के कांटे उसे खुद से बच कर निकल जाने देंगे... मुश्किल है तो ये समझना कि कौन सा रास्ता किसी रोज़ मेरी वाली सडक को समकोण पर काटेगा और उस चौराहे पर उससे मिल कर उसके तलवों के ज़ख़्मों से रिसते लहू को हल्दी डाल कर थामा जा सकेगा.. अपने दुपट्टे को फाड कर उसकी तकलीफों पर लपेटा जा सकेगा...</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-58967336218516190292013-02-18T20:32:00.002-08:002013-02-19T22:04:52.372-08:00हमारी नई दोस्ती को हमेशा याद रखने के लिये...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h5 class="uiStreamMessage userContentWrapper" data-ft="{"type":1,"tn":"K"}">
<span style="font-weight: normal;"><span class="messageBody" data-ft="{"type":3}"><span class="userContent">घर
लौटते हुये वो दो बच्चियां रोज़ वहीं बैठी दिखती हैं... बडी शायद ९-१० साल
की होगी और छोटी ४-५ साल की, मां बाप शायद आस-पास बन रही किसी इमारत में
मजदूरी करते हैं. शुरु-शुरु में मैं उन्हें देख कर मुस्कुराती तो दोनों
शर्मा के नज़र फेर लेती, फिर कुछ दिन बाद एक नन्हीं सी मुस्कान दिखाई देने
लगी, फिर कुछ और दिनों बाद हाथ हिला कर टाटा भी कहा जाने लगा. बस इत्ती सी
दोस्ती हुई हमारी ...<br /> <br /> अभी कुछ रोज़ पहले जैसे ही वहां से गुज़री तो
देखा बडी गायब है और छोटी चिल्ला चिल्ला के रो रही है, अभी सो कर ही जागी
थी शायद और आस पास बहन को ना पा कर डर गई थी. मैं वहीं सीमेंट के बोरों पर
बैठ के उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी मगर उसे हिन्दी नहीं आती और मुझे
गुजराती.. तो बात आगे बढे कैसे? <br /> <br /> मगर जैसे ही मैंने कहा, 'चॉकलेट खाती हो?'<br /><span class="text_exposed_show">
बच्ची एक दम चुप, मुस्कुरा के गर्दन हां में हिलाई. तब तक बडी भी आ गई
जिसे टूटी फूटी हिन्दी आती थी.. दोनों को चॉकलेट दिला कर मैंने हमारी
दोस्ती पक्की कर ली है.. :)<br /> <br /> Moral of the story : टॉफी चॉकलेट की भाषा सबसे आसान है... बचपन मिठास को सुनता गुनता है ..</span></span></span></span></h5>
</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-82239944636812119562012-12-31T00:37:00.000-08:002013-04-20T03:23:29.612-07:00काश! मैं लगा सकती आग उन सारे काग़ज़ों पर..<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सोचती हूं.. ज़ाया ही गई वो सारी स्याही<br />
जिससे मैंने या किसी ने भी लिखी नारी की व्यथा, दशा या सम्मान की कथा.. <br />
इससे तो बेहतर ये होता कि,<br />
वो सारी स्याही बिखर जाती इतिहास, समाजशास्त्र की तमाम किताबों पर<br />
जो हमें बरगलाती हैं... अहिल्या, वैदेही, शंकुतला के बारे में बता कर <br />
बहलाती हैं.. नारी मां है.. पूजनीया है.. कह कर<br />
<br />
काश! मैं लगा सकती आग उन सारे काग़ज़ों पर<br />
कि मेरी बेटी को इन झूठी कहानियों में लिपटे,<br />
सच्चे त्याग और दोगले संस्कारों के सबक नहीं पढने पडते<br />
<br />
काश! मैं जा कर लिख पाती उन स्कूली किताबों के हर पन्ने पर कि,<br />
बेटी, हम ऐसे जंगलराज में रहते हैं जहां भेडिये खुले आम घूमा करते हैं.. <br />
अपने दांतों, हाथों और आंखों से नोंचा करते हैं अपने 'शिकार' को<br />
कि मैं तुझे परियों और राजकुमारों वाली कहानियां सुना कर किसी धोखे में कैसे रखूं ?<br />
जबकि सच ये है कि, <br />
जो जीना है तो हिंसक होना होगा तुझे... <br />
...अपनी सारी मासूमियत खो कर </div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-70034355847823740432012-12-31T00:24:00.001-08:002013-04-20T03:23:43.212-07:00कई डरों को बेखौफ़ छोड कर.. मर गई तो अच्छा हुआ!! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
श्श्श्श... चुप रहो... मौन धरो...<br />
घोर दुःख की घडी है..<br />
आज "पहली बार" मेरे देश में,<br />
एक लडकी बलात्कार के बाद मरी है.<br />
<br />
वरना हम बलात्कारियों को मौका ही कहां देते हैं!<br />
कोख से ज़्यादा सुरक्षित जगह क्या होगी?<br />
हम लडकी को वहीं 'बिना कोई तकलीफ' दिये मार देते हैं...<br />
गर किसी तरह बच गई तो 'उसके' पिछले जन्म के कर्मों के फल हैं..<br />
<br />
अच्छा हुआ जो अपना सा मुंह लिये मर गई.<br />
कल को जो जीती तो मांगती... ढेरों हक़<br />
हक़.. मरज़ी से पहनने ओढने का<br />
.. मरज़ी से देखने परखने का<br />
.. मरज़ी से जीवनसाथी चुनने का<br />
<br />
मैं तो कहती हूं कि भला हुआ जो मर गई<br />
जीती तो मर्ज़ी से जी कर घर वालों को शर्मसार करती<br />
कहीं सच बोलने का रोग पाल बैठती तो "समाज" में ग़लत उदाहरण पेश करती<br />
<br />
कई डरों को बेखौफ़ छोड कर,<br />
मर गई तो अच्छा हुआ... दो-चार के तो ज़मीर ज़िन्दा हुए<br />
<br />
मगर कुछ लोगों का ज़मीर अब भी सोता है...<br />
.. ओढे हुये पुंसत्व की मोटी रजाइयां<br />
.. बगल में दुबकाये हुये घिनौनी हसरतें<br />
<br />
अब गर इनके ज़मीर को जगाने के लिये भी,<br />
किसी दामिनी के खून के छींटे ही चाहिये..<br />
<br />
तो आओ लडकियों!!!<br />
अपने उघडे बदन को परोस दो इनके सामने<br />
कर दो "समर्पण" उनके आगे<br />
जो पिता/ भाई/ प्रेमी बनने का ढोंग किये फिरते हैं<br />
और तुम्हारे तन का नहीं तो मन का नियमित भक्षण करते हैं...<br />
<br />
बता दो उन्हें कि इस तरह वो तुम्हारी नहीं, अपनी इज़्ज़त उतारते हैं<br />
क्योंकि तुम्हारी इज़्ज़त मांस और हडडियों के ढेर में नहीं बसती<br />
जो किसी के नोंचने-खसोटने से भरभरा कर गिर जायेगी...<br />
<br />
बल्कि तुम्हारी इज़्ज़त उस सोच में बसती है..<br />
.. जिसे तुम आनुवांशिकी में दे जाओगी अपनी बेटी को<br />
<br />
जिसे तुम हरग़िज़ नहीं सिखाओगी चुप रहना.. सब सहना...<br />
जिसमें तुम भरोगी ज़ोर कि,<br />
वो अकेले ही दिखा सके हर वहशी को वहशियत का आईना...<br />
<br />
<br /></div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-1867370153301065832012-12-29T00:08:00.002-08:002013-04-20T03:23:53.045-07:00एक लडकी ही तो मरी है... :-/<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक लडकी ही तो मरी है...<br />
<br />
मैंने खोल दी हैं घर की तमाम खिडकियां, बिछा दी है गुलाबी फूलों वाली नई चादर, टी.वी. पर set कर दिया है reminder नये साल पर आने वाले नय program के लिये. <br />
<br />
ओह्! नये साल का resolution तो रह गया.<br />
क्या कहा? देशहित.. नारीहित में संकल्प लूं? कसमें खाऊं उन्हें तोड देने के लिये?<br />
<br />
क्यूं? ऐसा क्या हो गया है रातोंरात? "एक और" लडकी ही तो मरी है.. और मैं तो उसे जानती भी नहीं. हां मैं भी गई थी एक candle march में मगर वो तो बस सबको ये बताने के लिये कि मैं भी खासी संवेदनशील हूं.. और फेसबुक पर फोटो भी तो लगाने थे, image का ख़याल रख्ना पडता है यार...<br />
<br />
क्या कहा??? जानवरों से बद्तर है मेरी सोच!! मैं खुद भी!!! <br />
हो सकता है.. लेकिन मैं तो कई बरसों में मेहनत कर के सीख पाई हूं आपके सिखाये हुये नियम कायदे... अब आप ही उन्हें बदलने को कह रहे हैं?<br />
<br />
आप ने ही तो मुझे 'बद्तमीज़' कहा था जब मां की किसी गलती पर पिताजी ने उनके सारे खानदान को तार दिया था और मैंने पलट कर कह दिया था कि, "ऐसे ही अगर मां आपके खानदान, अम्मा-बाबा को गालियां दे तो??" ... आप ही ने तो सच की categories बनाईं थीं सुविधा और संस्कार के हिसाब से.<br />
<br />
आप उस भीड का हिस्स नहीं थे क्या जब किसी लडके-से दिखने वाले जीव ने चौराहे पर बैठ कर ऊंची आवाज़ में कुछ कहा था और आपने उसे 'देखने' की बजाय मुझे, मेरी पोशाक को देखा था.. मेरी सहेली ने बताया था कि उस रोज़ आप घर जाते हुये उसके लिये नये 'दुपट्टे' लाये थे.. भाई के साथ ट्यूशन जाने की हिदायत दी थी उसे (और लडके को सिखाया था कि किसी दुसरे के पचडे में मत पडना)... दिन ढलने से पहले घर लौट आने की भी हिदायत आपने फिक्र के wrapping paper में लपेट के पकडाई थी... आपकी ही तो बात मान रही हूं मैं, दूसरों के पचडे में नहीं पडती अब.<br />
<br />
और मैं आपको क्यूं दोष दूं कि आप पुरुष थे, मेरा मन नहीं पढा गया आपसे? मेरी मां तो एक स्त्री थी.. उसने क्यूं मेरी बातें सुन कर माथा पकड लिया था अपना और कोसा था उस दिन को जिस दिन मैं इस घर में पैदा हुई. मैंने तो सोचा था कि उसे गर्व होगा मुझ पर ये जान कर कि "आज बस में एक बेहूदा आदमी को मैंने खींच कर झापड रसीद कर दिया".. अब मैंने गांठ बांध ली है ये बात कि ना खुद के खिलाफ हुये किसी गलत को गलत कहूंगी... न किसी और के प्रति हुये गलत को तवज्जो दूंगी.<br />
<br />
आप भी उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हो ना जहां एक लडकी का चरित्र इस बात ये तय होता है कि उसने love marriage की है या arranged marriage...<br />
आपके इस मानक के हिसाब से मैं खासी चरित्रहीन हूं. और जब चरित्र नहीं.. तो कैसा ज़मीर!... कैसा दुःख!!... कैसा दिखावा!!!<br />
<br />
मेरे पास फ़कत कुछ वादे हैं खुद से करने के लिये जिनकी नुमाइश करने का मुझे कोई फायदा नहीं दिख रहा फिलहाल.. समय आने पर en cash करूंगी...</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-19835030281330746342012-12-07T21:29:00.005-08:002012-12-07T21:29:59.117-08:00कसम पुराण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
By God की कसम हद हो गई. किसी इज़्ज़तदार शख़्स की बेज्जती की जाये तो समझ भी आता है मगर.. हमारी बेज्जती... हमारी???<br /><br />और अकेले बेज्जती हो तो जाने भी दिआ जाये कि हम कौन सा इज्जत हथेली पे लिये फिरते हैं.. लेकिन साथ में आरोप भी!!! और आरोप भी कोई ऐसा वैसा नहीं, 'खुद खुश हो के भी depression फैलाने का' <br />ये तो मतलब किसी नेता से compare किये जाने की हद तक घिनौना आक्षेप था, ऐसा नेता जो करोडों कमाये और हजारों दिखाये. (क्या आप जानते हैं कि गुजरात का मुख्यमंत्री एक चपरासी से भी कम सालाना तन्ख्वाह पाये)<br /><br />ख़ैर मुद्दे पे आया जाये...<br />
<a href="http://agadambagadamswaha.blogspot.in/" target="_blank">देवांशु निगम</a> नामक एक तथाकथित BLOGGER ने हम पर ये इल्ज़ाम लगाया है कि सब कुछ मनचाहा मिल जाने के बाद भी हमारी पोस्ट्स सुसऐड नोट सरीखी होती हैं और उन्हें हर पोस्ट के बाद कॉल कर के पूछना पडता है कि हम निकल तो नहीं लिये भगवान जी को depress करने!!!<br /><br />एक बार कहे, २ बार कहे.. चलो हम बेशर्म हैं तो ३ बार कह ले.. मगर बार-बार.. हर बार. बस हमने भी प्रतिज्ञा ली अगली पोस्ट होगी तो बिना depression वाली वरना नहीं होगी.<br />तो बस आज हम हाज़िर हैं, बांचने को "कसम पुराण"... :-D<br /><br /> कसम कब आई, कहां से आई ये सब तो पता नहीं मगर जब से सुनने-समझने की अकल आई , हमने कसम सदा आस-पास ही पाई.<br />"बहन तुझे मेरी कसम पापा को मत बताना कि तेरा चश्मा मेरे थप्प्ड से शहीद हुआ है"<br />"मोनी तुझे कसम है जो किसी से कही ये वाली बात" इत्यादि.. इत्यादि... :P<br /><br />यहां तक तो चलिये ठीक था कि ऐसी कसमें आपको blackmailing के भरपूर अवसर प्रदान करती थीं.<br /><br />मगर जनाब हद तो तब हो गई जब हमारे मां-बाप ऐसी हरकतों पर उतर आये; :O<br />"तुम्हें कसम है दाल पी जाओ"<br />"मोनी, कसम है ये सेब खाओ"<br />"सोनी, कसम है ये बालूशाही गटक जाओ"<br />"मुन्ना, बहुत झगडा हो रहा है ना... कसम है जो दो दिन आपस में बात की तो.. "<br /><br />बस हमारा कसम पर से विश्वास उठ गया. 'भरे बचपन' में कसम खाई कि अब से कसम बस तभी खायेंगे जब झूठ बोलना होगा.<br /><br />हमारी माताजी हमारी "कसमभीरू" बहन से सच उगलवाने के लिये कसम नामक युक्ति का गाहे-बगाहे प्रयोग करतीं, हम पर भी ये पैंतरा चलाने की कोशिश की गई;<br /><br />"तुम्हें कसम है हमारी, सच सच बताओ कि फलाना 'लडाई काण्ड' में किसने किसे कूटा है?"<br />हमने कहा, "बोल हम सच ही रहे हैं मगर कसम नहीं खायेंगे, वो हम तभी खाते हैं जब झूठ पे सच्चाई की seal लगानी हो."<br />अब माताजी ने अपना ब्रह्मास्त्र निकाला,<br />"देखो झूठी कसम खाओगी तो हम मर जायेंगे"<br /><br />होना ये चाहिये था कि बॉलीवुड फिल्मों से प्रेरित इस super senti dialogue को सुन कर हम पिघल जाते.. सच बताते.. खुद कुटते, बहन को कुटवाते.. इस कूटा-कूटी में २-४ झापड बिना गलती वाले बच्चे को भी रसीद किये जाते. मगर हुआ यूं कि हमने लोटपोट हो कर खिलखिलान शुरु कर दिआ कि,<br /><br />"मम्मी अगर ऐसा होता तो मज़ा आ जाता. कोई हथियार्, बम, गोला, बारूद पर पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं.. यूं ही सारे दुश्मन तबाह हो जाते" :D<br />खैर.. कूटे तो हम तब भी गये होंगे मगर आप मानें या ना मानें idea गज़ब का था...<br />
<br />
अखबार में खबरें आतीं, 'नलकूप पर सोते बुज़ुर्ग की कसम खा कर हत्या'<br /><br />हमारे नेता एक-दूसरे को कसम देते कि, 'देखिये आपको पाकिस्तान की कसम जो आपने कोई घोटाला किया.' लीजिये साहब, अगले दिन पाकिस्तान तबाह... credit goes to 'घोटाले वाले नेताजी' जिन्होंने देश की खातिर सीने पे गोली नहीं, दामन पे दाग़ लिया.<br /><br />ओबामा लादेन को मारने की साजिश के तहत कहते, "कसम लादेन की.. मैं भारत को नौकरियां outsource करने के खिलाफ नहीं हूं." बस... लादेन मियां टें!!!<br /><br />फिल्मों में हीरो धमकी देता, "कुत्ते-कमीने मेरी हीरोइन को वापस कर दे वरना मैं तेरी कसम खा जाऊंगा"<br />और बाज़ी कुछ यूं पलटती कि मोना डार्लिंग हीरो की "बेचारी अंधी मां" को ले कर अवतरित होती कि, "खबरदार जो किसी ने किसी की कसम खऐ.. मेरा हाथ इस बुढिया के सिर पर है... अगर किसी ने होशियारी दिखाई तो मैं इसकी कसम खाने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगाऊंगी"<br /><br />वैसे मार्केट में कसमों के प्रकार भी उपलब्ध हैं.. 'विद्यारानी की कसम' जैसी मासूम कसमें हैं तो कुछ international level की कसमें भी हैं जिन्हें खान, चबाना, निगलना और हज़म करना सबके बस की बात नहीं, ये कसमें ज़्यादातर सच्चे आशिक अपनी 'आशिकाइन' की सच्चाई जानने के लिये खाते हैं. जैसे कि- 'मरे मुंह की कसम'. मतलब कि मुई कसम ने जीते-जी तो चैन लेने ना दिया, अब मरी मरे मुंह पे भी आ के चिपक गई.<br /><br />ख़ैर... आपको इस सब से परेशान होने की ज़रूरत नहीं. कसम के असर से निजात पाने के लिये कई टोटके भी उपलब्ध हैं :)<br /><br />मेरी बहन का फेवरिट था, "कसम कसम चूल्हे में भसम"<br />अब इसे modify कर के जमाने के अनुरूप, "कसम कसम ओवन में भसम" कह सकते हैं... यू नो चूल्हा इज़ सो आउट ऑफ फैशन नॉव अ डेज़... ;)<br /><br />वैसे इस देहाती तरीके से ऊपर का तरीका है, "हरी सुपारी वन में डाली सीता जी ने कसम उतारी". मगर एक तो आज कल वन रहे नहीं (जाने किस कमबख्त ने कसम खा मारी सारे जंगलों की), दूसरे अगर आप नास्तिक हैं तो आप सीता जी वाली कसम पे भरोसा नहीं करेंगे. :B<br /><br />लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं, "आप लोहा छू के हरी पत्ती देख लो, कसम फौरन उतर जयेगी" ये टोटका अक्सर तब काम में आता था जब कक्षा में मास्साब मौजूद होते थे और बोलते ही सज़ा देने का प्राव्धान था.<br /><br />ओह!!! आप तो BLOGGER हैं आपकी रचनात्मक संतुष्टि के लिए इसे थोडा creative होना चाहिये. तो फिकर नॉट साहब.. तुकबन्दी भी मौजूद है... <br /><br />पूछा जायेगा, "तेरे पीछे क्या?"<br />आप कहेंगे, "चक्की"<br />"कसम उतरी पक्की".. खतरा टल जायेगा...<br />
<br />
ये तो रहा उतना कि ज्ञात है हमें जितना.. अब अगर कसम का कोई आकार.. कोई प्रकार... कोई तथ्य-कथ्य, उपचार रह गया हो तो आपको आपकी खुद की कसम बताइयेगा ज़रूर.. :) :) :)<br /></div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-46407742105176299242012-11-03T21:07:00.000-07:002012-11-03T21:08:13.586-07:00रिश्ता अंधेरों का... रिश्ता आवाज़ों का...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वो आज जा रहा है.. दूर... मुझसे दूर, जाने किसी के पास या सबसे दूर!<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://thinklink.in/wp-content/uploads/2011/02/meganne_forbes_sacred_relationshipS274.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://thinklink.in/wp-content/uploads/2011/02/meganne_forbes_sacred_relationshipS274.jpg" width="243" /></a></div>
<br />
<br />
अब उसे परेशान करना चाह कर भी मैं उस तक नहीं पहुंच पाऊंगी. उसकी आवाज़ की ताजगी शायद अब लम्बे अरसे तक नसीब ना हो. बासी पुरानी आवाज़ से काम चलाना होगा जो तेल, चीनी, नमक डाल कर कण्टरों में भर कर Preserve कर दी है.<br />
<br />
उसने एक बार कोई कहानी सुनाई थी जिसमें लोग पेडों को confession box बना कर अपना सारा सच फूंक आते थे लकडी के कानों में. अब चूंकि मुझे भी बदले में कुछ कहना था तो मैंने भी उसे अपने बचपन से उठा कर एक कहानी अपनी सांसों में gift wrap कर के दी थी जिसमें पेडों से बने साज़ों ने लोगों के सारे सच दुनिया के सामने उजागर कर दिये थे.<br />
<br />
उसकी सारी समझदारी भरी बातों के जवाब में बस मेरा जाहिलपन ही मुखर होता था मगर फिर भी वो कहता था कि "हम दोनों एक-दूसरे के confession box हैं." बिना इस डर के कि हमारे सचों के लिये हमसे नफरत भी की जा सकती है, हम एक-दूसरे के कान में बिना झूठ की मिलावट के कभी शहद से मीठे और कभी ज़हर से कडवे सच उगल देते थे. और उन दिनों में अक्सर सोचा करती थी कि अच्छा है जो हमारे बदन की हड़ी-चमडी से कोई साज़ नहीं बनाये जा सकते और जिस तरह उसके सच मेरे साथ खाक़ हो जायेंगे, मेरे सच भी दुनिया की नज़रों से बचे रहेंगे. वैसे अगर मेरे सच उसकी दुनिया में सरे-बाज़ार हुये भी तो क्या ही फर्क पडने वाला है! ये भी एक तसल्ली ही है कि उसकी दुनिया में मुझे और मेरी दुनिया में उसे कोई नहीं जानता.<br />
<br />
समझ ही नहीं आता जाने कैसे तो शब्दों का जामा पहनाया जा सकेगा हमारे रिश्ते को. कैसा अजीब सा किसी परिभाषा में ना बंध सकने वाला रिश्ता.. उन रिश्तों से एक दम अलग जो अपने पुरअसर वजूद के साथ आप पर हावी नहीं रहते.<br />
<br />
ऐसा रिश्ता जो होता है तब भी आपको नहीं बांधता और जब नहीं होता तब भी आपको भरोसा होता है कि कहीं कोई तो है जिससे कभी भी कुछ भी बेझिझक कहा जा सकता है, बिना judge किये जाने के डर के.ऐसा रिश्ता जिसमें भरोसा रहता है कि चाहें लाख अंधेरे आपको घेर लें, एक जगह ऐसी भी है जहां रौशनी है... जहां जा कर खुद को ढूंढा जा सकता है... जहां तमाम guilts के बाद भी आंखों में आंखें डाल के बात की जा सकती है.<br />
<br />
रिश्ता जिसे नाम देना चाह कर भी किसी रिश्ते की हद में नहीं बांधा जा सकता... रिश्ता जो कोई नाम ओढते ही मैला पड जायेगा.. प्यार, परिवार, दोस्ती, वासना इन सबमें थोडा-थोडा बंटा हुआ और फिर भी इन सबसे परे... रिश्ता अंधेरों का... रिश्ता आवाज़ों का... रिश्ता आज़ादियों का... रिश्ता मेरा और तुम्हारा</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-35763447739947272312012-10-17T21:41:00.001-07:002012-10-17T21:41:17.740-07:00तुम्हें क्यूं लगता है कि मैं बडी हो गई हूं?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उसे हर बात, मेरा हर राज़ बिना कहे मालूम हो जाता मगर वो मेरी सबसे अच्छी सहेली नहीं थी क्योंकि सहेलियां ढूंढी और बनाई जा सकती हैं. वो मेरी ख्वाहिशें, मेरे ख्वाब पूरे करना जानती थी मगर वो कभी भगवान नहीं बन सकी मेरे लिये क्योंकि ज़िन्दगी में ऐसे दौर भी आते हैं जब भगवान के होने पर संदेह हो सकता है. उसे उन रास्तों की कोई समझ नहीं थी जिन पर मैं चलना चाहती थी मगर वो अकेली थी जिसने उन रास्तों के सही नहीं बल्कि 'सुरक्षित भर' होने की दुआ मांगी थी.<br /><br />उसने मेरे बचपन में किताबों और अखबारों के ढेर से मेरे लिये नन्हीं कहानियां बीनीं. उसने मुझे बताया कि गिरना बुरा नहीं, गिर कर ना उठ पाना बुरा है. उसने मुझे सूखे आटे को रोटियों में तब्दील करना सिखाया. उसने मुझे सिखाया कि चूल्हे पर सब्र पकाना आने से ज़्यादा मुश्किल कुछ नहीं. उसी ने बताया कि मुस्कान से बेहतर ऋंगार कोई नहीं. हालांकि मैं सीखी नहीं लेकिन उसने मुझे सिखाने की कोशिश की कि सुख आपके अंदर नहीं बल्कि आपके करीबियों की मुस्कुराहट मे है. उसने बताना चाहा कि मन मार कर मुस्कुराने से ज़्यादा मुश्किल और 'सुकून भरा' कुछ भी नहीं. उसने मुझे अदृश्य पर भरोसा करना और दृश्य को खुले दिमाग से टटोलना सिखाया.<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-ChBqk9Iv_fE/UH-H_aeHkiI/AAAAAAAAAe4/mBF1Gt2chnQ/s1600/Mother_child_720.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="255" src="http://2.bp.blogspot.com/-ChBqk9Iv_fE/UH-H_aeHkiI/AAAAAAAAAe4/mBF1Gt2chnQ/s320/Mother_child_720.jpg" width="320" /></a></div>
<br /><br />बस वो मुझे ये सिखाना भूल गई कि अगर कभी वो रूठ जाये तो उसे क्या कह कर मनाया जाये... कि उसे कैसे बताया जाये कि वो मेरी ज़िन्दगी के सबसे खास लोगों में भी सबसे खास है.... कि जैसे चांद-तारों को रौशनी सूरज से मिलती है, उसे नहीं मालूम कि मेरी मुस्कुराहट उसके अधरों से खिलती है.<br /><br />उसने मुझे तमाम रोगों के लिए घरेलू नुस्खे सिखाये, बस उसका दिल दुखाने से पैदा होने वाली ग्लानि को मिटाने का तरीका नहीं बताया.<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-ChBqk9Iv_fE/UH-H_aeHkiI/AAAAAAAAAe4/mBF1Gt2chnQ/s1600/Mother_child_720.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><br /></a></div>
<br />उसने मुझे नहीं बताया कि उसके बिना कैसे रहा जाता है, कि रात भर जब नींद ना आये और कोई बालों में उंगलिया सहलाने को ना हो तो कैसे सोया जाये... जाने उसने नहीं सिखाया या मैंने नहीं सीखा मगर मुझे पता नहीं कि जब ऐसा कुछ महसूस हो तो उसे कैसे बताया जाये, कैसे जताया जाये कि मैं अब भी बडी नही हो पाई हूं...</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-44780799535788375862012-10-02T20:32:00.001-07:002012-10-02T20:32:36.636-07:00किस्सा एक दम सच्चा है...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-hh42wGVLbWI/UGuxaVxKopI/AAAAAAAAAdk/LM_BRFw6PkA/s1600/6a00d83527e90e69e20120a61a0a0e970b-500pi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="http://3.bp.blogspot.com/-hh42wGVLbWI/UGuxaVxKopI/AAAAAAAAAdk/LM_BRFw6PkA/s320/6a00d83527e90e69e20120a61a0a0e970b-500pi.jpg" width="320" /></a></div>
अजनबी... नितान्त अजनबी. शहर, घर, लोग, यहां तक कि लोगों के नाम भी अजनबी.<br /><br />वो एक अलग दुनिया की लडकी थी.. और एक रोज़ उसकी दुनिया में एक मुसाफिर आया. उन दोनों की दुनिया अलग होने के बावज़ूद लडकी के मन की डोर का एक सिरा उस मुसाफिर के उलझे मन के धागों में अटक गया. इन कच्चे धागों को तोडने के कई पक्के यत्न किये गये. लडकी ने खुद अपनी मुट्ठियों में जकड कर इस डोर को ज़ोरों से झटका, इतनी ज़ोर से कि रगों की गिरहों से लहू रिसने लगा लेकिन कच्ची डोर जस की तस. लडके ने भी अपने दांतों से डोर को काटने की कोशिश की मगर सब बेकार. दोनों तरफ की दुनिया के कई हज़ार लोगों ने मिल कर धागों को अपनी-अपनी ओर खींचा और हार कर खुद के पैरों तले ही खुद की खींची हुई हदों को बेरहमी से कुचल दिया.<br /><br />लडकी को लडके की अनदेखी, अनजानी दुनिया में भेजने का फैसला किया गया. उस रात लडकी के शहर में लोगों ने छक कर खाना खाया, जम कर दारू पी ... और लडकी की मौत पर किराये पर बुलाये गये लोग ज़ार-ज़ार रोए.<br /><br />उधर, लडके की दुनिया में लडकी अपना अतीत, अपनी दुनिया, अपना आप भूल कर रमने की कोशिश करने लगी. बदले में लडके की आंखों की चमक मज़दूरी के तौर पर देना तय हुआ. इस सब के बाद भी लडके की दुनिया के लोग उसे 'ग़ैर' समझते और लडकी की खुद कि दुनिया के लोग्.. "मुर्दा". लडकी खुद को ज़िन्दा साबित करने के लिये गहरी सांसें लेती , तेज़ आवाज़ें करती ...<br />
<br />बस लडका देख पा रहा है कि लडकी के भरे बदन के अन्दर दबा मन घुल रहा है... और जितनी तेज़ी से ये मन घुल रहा है, उतनी ही तेज़ी से वो डोर भी जो ज़माने भर कि कोशिसों से बेअसर रही थी.<br /><br />सुना है कि इस डोर के टूटते ही लडकी की सांसें भी टूट जायेंगी और फिर दोनों दुनिया के लोग मिल कर फिर से उस हद की लकीर को खींचेंगे जिसे उन्होंने मिटा दिया थ. तेरह दिन लम्बा जश्न चलेगा जिसमें दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे को बधाई देंगे... फिर से छक कर खाना खाया जयेगा, जम कर दारू पी जायेगी और किराये के लोग फिर से रोयेंगे.<br /><br />दाद देनी होगी, ऐसी ग़ज़ब रणनीति से काम किया गया है कि किसी के सिर दकियानूसी, सिरफिरा हत्यारा होने का इल्ज़ाम नहीं आयेगा और लडकी की रगों में बूंद-बूंद घुलता ज़हर अपना असर दिखाता रहेगा...</div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-26187451345717341742012-07-14T11:44:00.001-07:002012-07-14T11:44:37.631-07:00जुगनू सरीखे रिश्ते...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
<br />
<br />
मेरी उदासी (जो अमूमन बेवज़ह होती है) को, बहला-फुसला कर या शायद थोडी बहुत रिश्वत दे कर, वो घर आते ही बाहर निकाल करता है. और फिर अपनी कहना शुरु करता है, इस बात से बेखबर कि मैं सुन भी रही हूं या नहीं. उसकी किस बात का मुझ पर क्या असर हो रहा है इस बात की उस रत्ती भर भी फिक्र नहीं नहीं. ज़रा भी फुर्सत नहीं कि मेरे पास बैठ कर घडी दो घडी मुझे देख बर ले या कि अपनी निगाहों क एक सुरक्षा कवच मेरे गिर्द बुन दे, वो जानता है कि इसके लिए उसकी आवाज़ ही काफी है. <br />
अपनी धुन में मगन वो कुछ ढ़ूंढ रहा है.. तकियों के नीचे, दरवाज़ों के पीछे, चीनी के डिब्बे मे, गहनों के लॉकर में...<br />
क्या???<br />
ये जानने में ना मेरी दिलचस्पी ना बताने की उसे फुर्सत. पूरे घर को तितर-बितर कर दिया है... डिब्बे-डिब्बियां, बर्तन, फर्नीचर सब उसे गुस्से से घूर रहे हैंऔर वो सब पर अपनी आवाज़ का मरहम रखता जा रहा है, अपनी रौ में बोले जा रहा है जाने क्या क्या...<br />
<br />
और मैं... मैं उसके इर्द-गिर्द होने के अहसास भर से पुरसुकून दीवार से पीठ टिकाये, आंखें बंद किए बैठी हूं.. लम्हा-लम्हा उसकी आवाज़ का कतरा-कतरा खुद में जज़्ब कर रही हूं जो मेरे कानों से होती हुई मेरी रग-रग में उतर कर बह रही है...<br />
<br />
उसकी सांस इतनी उथल-पुथल करने में बेतरह तेज़ हो गई है, इतनी तेज़ कि इस खाली घर में ऐसे सुनी जा सकती है जैसे वो सामने ही बैठा हो...और फिर जब ये आवाज़ एक झटके के साथ अचानक मुझसे लिपटती है तो मालूम होता है कि वो वाकई बेहद करीब बैठा हुआ है... एकदम सामने.<br />
<br />
"यार वो नई वाली का भी पहले से एक boy friend है... "<br />
<br />
और फिर मेरी खिलखिलाहट बिखरे सामान से बचती-टकराती सारे घर मे घूम आती है.<br />
<br />
"चलो रे... लडकी गई तो गई मगर जो ढूंढ रहा था वो तो मिला..."<br />
<br />
"मेरा पूरा घर तहस-नहस किये बिना तुझे कुछ मिलता क्यूं नहीं?"<br />
<br />
"गलती तेरी है... मेरे आते ही बता क्यूं नहीं दिया कि यहीं नाक के नीचे छिपा रखी है ये बत्तीस दांतों वाली perfect smile..."<br />
<br />
जाने कैसा तो दर्द गले को तर कर जाता है, मुश्किल से उसका नाम ज़ुबान से फूटता है... <br />
<br />
"कमल..."<br />
<br />
"ओये, ज़रा सी तारीफ क्या कर दी मुस्कुराहट की ऐसे छिपा ली जैसे नज़र ही लग जायेगी."<br />
<br />
"बकवास बंद कर और ये सब समेट जो बिखेरा है."<br />
<br />
"बिखरा हुआ समेटने ही तो आया हूं."<br />
<br />
"u are late boy... आधा हिस्सा हवा के साथ हवा हो गया और आधा पानी में घुल कर पानी. अब समेटने को कुछ नहीं."<br />
<br />
"तो ऐसा समझ लो कि मैं अवशेषों को सहेजने आया हूं"<br />
<br />
उसकी उंगली मेरे चेहरे के तिलों को एक imaginary line से जोडती हुई रेंग रही है और जैसे सब उजला-उजला दिख रहा है नीम अंधेरे में भी. उसे बांहों में भर लेने की तलब फिर से मेरे दिल से मेरी उंगलियों की तरफ फिसलने लगी है.<br />
<br />
"तू हर बार मुझे अधमरा छोड कर वापस जिलाने क्यूं आ जाता है?"<br />
<br />
"मैं क्या करूं कि मेरी जान तुझमें बसती है... मैं खुद की जान लेने का कोई ऐसा तरीका नहीं जानता जो तुझे घायल ना करे. चाकू उठाऊं तो तेरी कलाई पर लाल निशान उभर आते हैं... फन्दा बनाऊं तो तेरी आवाज़ गले में अटक जाती है. मैं हर बार खुद को मारने की तैयारी कर लेता हूं और हर बार तेरी तडप देख कर जीने की तलब होने लगती है. सांसें अमृत हो जाती हैं और धडकन.. धडकन संजीवनी.<br />
<br />
मेरे आंसू उसकी मुस्कुराहटों में घुल रहे हैं और मेरी हंसी उसके आंसुओं को सोख रही है. इस पूरे बिखरे घर में हमारे लिए कहीं जगह नहीं.. या शायद इस पूरी दुनिया में हम दोनों के लिए बस एक ही पनाह है... <br />
<br />
एक-दूसरे की बांहों से एक-दूसरे के इर्द-गिर्द खडे किये गये इन बेहद मज़बूत मकानों में ... जिन्हें हम रोज़ तोडते हैं, रोज़ बनाते हैं... रोज़ बिखेरते हैं, रोज़ सजाते हैं... हम हर रात साथ-साथ जन्म लेते हैं और हर भोर साथ-साथ मर जाते हैं...</div>monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-40253813073600808742012-06-24T11:12:00.002-07:002012-06-24T11:12:31.801-07:00ज़िन्दगी से परे...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
<br />
<br />
<br />
आज़ाद... हर डर, हर दर्द, हर दुश्चिंता से परे मैं चल रही हूं पानी की लहरों पर. पीठ पर परों का हल्का-सा बोझ है लेकिन मन ऐसा हल्का जैसे कपास के फूल से हवा के साथ बह चला कोई रोंया...<br />
<br />
एक नज़र मुड कर देखती हूं क्षितिझ के पास उन लोगों के धुंधले चेहरों को जो मुझे घेरे बैठे हैं. जाने दूरी या मेरी आंखों की नमी की वज़ह से कुछ भी साफ-साफ दिखाई नहीं देता...इस सब को बिसरा कर मैं, मेरे और तुम्हारे दरम्यान की दूरी को पाटते इन्द्रधनुष पर दौडी चली आ रही हूं.<br />
<br />
इस इन्द्रधनुष का छोर ठीक तुम्हारे कमरे कि खिडकी पर खुलता है. सामने तुम मेरी तस्वीर पर आंखें गडाये बैठे हो, सिसकने की आवाज़ साफ सुन सकती हूं मैं... शायद तुम्हें भी लगता है कि मौत मुझे तुमसे दूर ले गई है जबकि मौत केवल एक रास्ता भर थी तुम्हारे नज़दीक आने का. पागल लडके...इधर देखो, मैं और भी नगीच हो गई हूं तुमसे, देह के भी फासलों को मिटा कर.<br />
<br />
ओफ्फो... लैपटॉप पर मेरी ये तस्वीर छोडो अब, देखो तो तुम्हारे इश्क़ के लिबास मे लिपती मेरी रूह कितनी दमक रही है आज. अब तुममें और मुझमें कोई दुराव-छिपाव नहीं. तुम मेरे आर-पार देख सकते हो और मैं तुमसे एकाकार हो सकती हूं...monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-81108839830800741352012-04-25T00:28:00.000-07:002013-01-04T19:12:38.957-08:00तुम्हें सोच कर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
<br />
"बुद्धू... गंवार... अनपढ... पागल लडके"<br />
"क्या बात है! आज बहुत प्यार आ रहा है?"<br />
"किसी को बुद्धू, गंवार, अनपढ तब कहते हैं क्या कि जब प्यार आता हो? तुम तो सच में ही पागल हो."<br />
"अरे हां, तभी तो कहते हैं... तुम्हें नहीं पता?"<br />
"नहीं... सब कुछ तुम्हें ही तो पता होता है."<br />
"हां, ये भी है. चलो फिर हम ही बता देते हैं कि ये सब तब कहते हैं जब खूब... खूब...खूब प्यार आ रहा हो लेकिन छुपाना बताने से ज़्यादा आसान लगे."<br />
"और जब कोई किसी को नालायक कहे तब? तब भी क्या सामने वाले पर टूट कर प्यार आ रहा होता है?"<br />
"हां, तब भी... फर्क बस इतना है कि तब आप छुपाना नहीं, जताना चाहते हो"<br />
"ह्म्म्म्..."<br />
"समझीं... नालायक लडकी?"<br />
"...."<br />
"...."<br />
"...."<br />
"क्या हुआ? सच में समझ गईं क्या?"<br />
"तुम्हारी बकवास सुन लें वही क्या कम है जो समझने की भी मेहनत करें?"<br />
"फिर खामोश क्यूं हो गई थीं?"<br />
"तुम्हें ये बताने के लिए कि हम हद वाला पक जाते हैं तुम्हारे फालतू फण्डों से.."<br />
"इतना बुरा लगता हूं?"<br />
"इससे भी ज़्यादा बुरे लगते हो."<br />
"आच्छा???"<br />
"हां... इतने बुरे... इतने बुरे कि अगर सामने होते तो तुम्हारी उंगलियां काट लेते ज़ोरों से"<br />
"उंगलियां?"<br />
"हां... उंगलियां. क्योंकि ये जादू जानती हैं, लिखती हैं तो मन कोरा कागज़ बन जाना चाहता है... छूती हैं तो पत्थर की मूरत..."<br />
"फिर तो इन्हें सच में ही सज़ा मिलनी चाहिये कि ये उसकी जान सोख कर मूरत बना देना चाहती हैं जिसमें मेरी जान बसती है."<br />
"अबे तेरे की!!! डायलॉग!!! "<br />
"शुरु किसने किया था?"<br />
"उसने जिसे शुरुआत से डर नहीं लगता."<br />
"फिर तो वो तुम हरगिज़ नहीं हो सकतीं. तुम्हें तो आगाज़ से बडा डर लगता है."<br />
"तब तक कि जब तक अंजाम के सुखद होने का भरोसा ना हो."<br />
"और अगर मैं कहूं कि कोई मुश्किल तुम्हे छू भी नहीं पायेगी, तो?"<br />
"तो मैं मान जाऊंगी... तुम कितने भी बुरे सही, झूठे नहीं हो."<br />
"और?"<br />
"और... हां!!!"<br />
"उस सवाल के लिए जो आज सुबह मैंने पूछा था?"<br />
"नहीं, उस कुल्फी के लिए जिसके लिए कल ना कह दिया था... ओफ्फो! तुम सच मे ही बुद्धू हो लडके."<br />
"और बुद्धू लडका तुम्हें पा कर बहुत खुश है."<br />
"और???"<br />
"और ... और.. I Love You"<br />
"Oh! say something else boy. I hate predictable people."<br />
"ओके... तुम.. तुम बहुत बडी वाली नालायक हो."<br />
"ह्म्म्म्... अब सुनने में नॉर्मल लग रहा है."<br />
<br />
इस बात को बरसों बीत जाने के बाद भी लडकी को लडके की उंगलियां बिल्कुल पसन्द नहीं हैं कि आज भी लडके का लिखा पढ के वो सब भूल कर कोरे यौवन के दिनों में पहुंच जाती है.. आज भी अगर लडका उसे छू भर ले तो पल दो पल को सांस ऐसे थम जाती है जैसे सच ही मूरत बन गई हो...<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-z5ZI_etCoQM/T5enc_bSUKI/AAAAAAAAAdA/V_7ssj5_vp4/s1600/VivirEntreEstrellas.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="276" src="http://3.bp.blogspot.com/-z5ZI_etCoQM/T5enc_bSUKI/AAAAAAAAAdA/V_7ssj5_vp4/s400/VivirEntreEstrellas.jpg" width="400" /></a></div>
<br /></div>
monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-17187214069443946712012-04-11T10:14:00.003-07:002012-04-25T21:23:07.522-07:00हुआ है कभी ऐसा.. तुम्हारे साथ???वो रात-बेरात अपनी अधपकी नींद से एक झटके के साथ उठ कर बैठ जाती और फिर तमाम दराजों को टटोलने लगती. जबकि ये बात उसे भी पता होती कि वो जो ढूंढ रही है उसे अगर दराजों में सहेज कर रखा जा सकता तो खुदा ने इंसान को आंसुओं की नेमत नहीं बख्शी होती और इंसानों ने नींद की दवाओं का आविष्कार नहीं किया होता.<br />
<br />
जब मनचाही चीज़ कहीं किसी कोने में नहीं मिलती तो उसे अपने चेहरे पर ढूंढने के लिये वो कमरे में लगे आदमकद शीशे के सामने खडी हो जाती और उस सुकून को खोजने की कोशिश करती जो मां के चेहरे पर बिखरा रहता था लेकिन अपने चेहरे पर उसे अपने पिता से विरासत में मिली कठोरता और व्यावहारिकता के मेल से बनी कोई अजीब-सी चीज़ फैली हुई मिलती.<br />
<br />
तब वो खुद से बातें करने लगती.. खुद से भी नहीं, किसी और से जो भले उस कमरे मे मौजूद नहीं था लेकिन लडकी की रग-रग में बडे हक़ के साथ बसा हुआ था. उससे तेज़ आवाज़ में पूछती...<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-9Qxkq0ub08k/T4W7tkBBzzI/AAAAAAAAAcw/RVvnTYrI8og/s1600/mothers_love_lonliness_depressed_alone_street_child_separation_ode_orphan_oil_media_ishrath_humairah_paintings_figurative_art_people_hands_emotions.jpg" imageanchor="1" style="margin-left:1em; margin-right:1em"><img border="0" height="400" width="295" src="http://3.bp.blogspot.com/-9Qxkq0ub08k/T4W7tkBBzzI/AAAAAAAAAcw/RVvnTYrI8og/s400/mothers_love_lonliness_depressed_alone_street_child_separation_ode_orphan_oil_media_ishrath_humairah_paintings_figurative_art_people_hands_emotions.jpg" /></a></div><br />
<br />
पार की है कभी एक रात से अगली सुबह तक की दूरी खुली आंखों से? वो भी तब जब मालूम हो कि हर दर्द से पनाह बस नींद ही दे सकती है... मगर नींद के आगोश में छुप जाना मुश्किल लगा हो <b>क्योंकि आंखें बंद कर के इस दुनिया से मुंह फेर कर आप एक नई दुनिया ज़िन्दा कर लेते हो... खुद के भीतर. </b><br />
<br />
कभी सोने से डर लगा है कि नींद अब वैसे सपनों का हाथ पकड कर नहीं आती जिनके टूट जाने का अफसोस होता हो?<br />
<br />
कभी बांए हाथ के किसी नाखून को दांए कंधे पर ज़ोर से कुछ ऐसे गडाया है कि दर्द की लहर कई देर तक बदन में बहती रहे? फिर उस<b> दर्द को अपने जिस्म की चौकीदारी में छोड कर गये हो कभी तन की सरहदों और मन की हदों के पार?</b><br />
<br />
... और ठीक उन्हीं पलों में खुद से मीलों दूर इत्मिनान से सोते<b> किसी शख्स की आवाज़ सुनने की तलब बही है आंखों की कोर से कान के पास वाले बालों को भिगोती हुई?</b><br />
<br />
यादों के दरवाज़े को ज़ोरों से भडभडा कर गिडगिडाए हो कभी कि बस एक बार वो खुल जाएं और लौट आने दे बिसरी बातों, बिछडे लोगों को वापस तुम्हारे पास?<br />
<br />
नहीं... तुमने ऐसा कुछ भी, कभी भी महसूस नहीं किया. वरना उस रोज़ तुम्हारी चौख़ट से वापस लौटते हुये मेरी गीली आंखों ने खिडकी के शीशे के परे तुम्हारी पीठ पर पसरी बेपरवाही को मेरा मज़ाक बना कर हंसते ना देखा होता... तुम्हारी सिगरेट के धुंए मे ही सही, कहीं तो तुम्हारी आंखों की नमी दिखती मुझे...<br />
<br />
मेरे दर्द को समझने के लिये तुम्हें दौडना होगा किसी अजनबी के पीछे बेतहाशा, दोनों हाथ हवा में उठाए किसी अपने का नाम पुकारते हुए.. करनी होगी अपनी मनपसंद किताबों से बेपनाह नफरत और... सीखना होगा हुनर चीखों से संगीत निचोडने का...<br />
<br />
और शायद तब तुम जान पाओ कि मेरी आवाज़ में जो रिसता था, वो मेरा इश्क़ था.. तुम्हारे लिये. जब दर्द ही दवा सरीखा लगने लगेगा और दुआओं से भरोसा उठ जायेगा तब तुम जान पाओगे की मुहब्बत करना कितना मुश्किल काम है... <br />
<br />
जब मेरी ज़िन्दगी के ये सारे दर्द तुम्हारे अंदर ज़िन्दा हो जाएं और कहीं किसी कोशिश, किसी नुस्खे, किसी टोटके से कोई आराम ना मिले तब... तब बस एक बार मुझे दिल से याद करना.. बस एक बार शिद्दत से मेरे नाम को पुकारना. बस उतना भर कर देने से ही मैं तुम्हें अपने सारे खून माफ कर दूंगी. अपने अंदर के 'मैं' की हत्या के इल्ज़ाम से बरी कर दूंगी... बाइज़्ज़त.<br />
<br />
और ये सब इस्लिये नहीं कि तुम्हें चाहती हूं, बल्कि इसलिये कि ऐसा ना कर पाने तक मैं खुद भी आज़ाद नहीं हो पाऊंगी.<br />
<br />
पता है, हर सांस मरना और हर मौत जीना आसान नहीं है. ये ऐसे है <i>जैसे किरच-किरच दर्द को खरोंच कर खुद से होते हुए बहने का न्यौता देना और फिर ज़ार-ज़ार रोना... जैसे ज़ख्मों को चीखों में तब्दील होते हुये देखना और उन चीखों का वापस जिस्म से टकरा कर ज़ख्मों में बदल जाना</i>... जाने तुम समझ भी रहे हो या नहीं, लेकिन ये सच में उतना ही मुश्किल है जितना तुम्हारा मुझसे मुहब्बत और मेरा तुमसे नफरत करना...<br />monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2760657341531578803.post-31823781088264925322012-03-30T12:39:00.000-07:002012-03-30T12:41:48.410-07:00पूर्वाभास...शादी होने से पहले लडकियां जैसे सपने देखती हैं, वैसा कोई सपना ना उसे सोते हुये आया... ना जागते हुये ही. जाने कैसे, अपनी पसंद के लडके शादी करते हुये भी उसे ये लगता रहा कि वो गहनों और भारी कपडों से लदी-फदी, खिलखिलाती हुई अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम बढा रही है. <br />
<br />
शादी वाले दिन भी उसके चेहरे पर हया या चाल मे थमाव नहीं... वो इधर-उधर की दुनिया से बेपरवाह किसी बच्चे की तरह चल रही है जो मगन भाव से गलियों में गुब्बारे वाले के पीछे फिर रहा हो... उसकी मां उसे बार-बार टोक रही है कि हंसे कम, नज़रें झुका कर चले लेकिन वो मंत्रमुग्ध सी मुस्कुराते हुये बस मां का चेहरा देखे चले जा रही है. मुझे उसे देख कर जाने क्यूं लगा कि वो किसी असर तले है और उसे मां के हिलते होंठ तो दिखाई दे रहे हैं लेकिन उनसे फूटते बोल उसके कानों तक नहीं पहुंच रहे हैं.<br />
<br />
जाने क्यूं मुझे लगा जैसे उसका सारा ध्यान अपनी मां की नाक के बांईं तरफ वाले एक मस्से पर केन्द्रित है, फिर मुझे याद आया कि ठीक वैसा ही एक मस्सा उसकी भी नाक पर था लेकिन अब नहीं है. जैसे किसी गलती की सज़ा के तौर पर उसे इस विरासत से बेदखल कर दिया गया हो... शायद शिशिर से प्रेम विवाह करने की सज़ा के तौर पर.<br />
<br />
सब लोगों को लग रहा है कि वो बहुत खुश है लेकिन जाने क्यूं मुझे लगता है जैसे वो सोच-समझ से परे वाली किसी हालत में है और एक मुस्कुराहट किसी हवा के झोंके के साथ उड कर उसके चेहरे पर आ कर उलझ सी गई है.<br />
<br />
मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठी अधेड उम्र की वो औअरत बडबडाती-सी है, "शिशिर की बहू तो लाज-हया सब मैके में ही छोड आई है.".. या ऐसा ही कुछ और. उन्हें पता नहीं कि वो जीने लायक सांसें भी मैके में ही छोड आई है.<br />
<br />
वो और शिशिर हाथों में वरमाला लिए एक्-दूसरे के ठीक सामने खडे हैं ... वो अपनी बडी आंखों को और भी फैला कर मौजूद लोगों की भीड को एक ओर से दूसरे छोर तक देखती है. कुछ ऐसे, जैसे.. जैसे कोई दुल्हन कभी नहीं करती. मानो हर शख्स का मन टटोल रही है.<br />
<br />
.<br />
.<br />
.<br />
<br />
हालांकि अभी तक आपने सोचा नहीं है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि आप सोचें कि मुझे उसके बारे में सब कुछ इतनी तफसील से कैसे पता है??? इस से पहले कि आप मुझे उसकी कोई करीबी सहेली समझ लें, मैं आपको बता देना चाहती हूं कि ये सब उसने मुझे खुद बताया था. तब, जब वो वाकई अपनी मौत की तरफ बढ रही थी.. बल्कि मुझे कहना चाहिये कि तब, जब मैं उसे उसकी मौत की तरफ धकेल रही थी.<br />
<br />
उसके हाथों को बांधने के बाद जब मैंने ब्लेड को उसके गले की उभरी हुई नस पर रखा तो उसने सहम कर अपनी आंखें नहीं भींच लीं, वो चिल्लाई भी नहीं. उसने बस मुस्कुरा कर कहा कि शादी वाले रोज़ से ही उसे लगता था कि वो अपनी मौत की तरफ एक-एक कदम बढ रही है. ये भी कि, वो खुश है आखिरकार उसकी सोची कोई एक बात सच होने जा रही है.<br />
<br />
एक मरते हुये इंसान के होठों पर आपका नाम कितना मुर्दा लगता है ये मुझे तब ही मालूम हुआ जब उसने कहा कि, "जानती हो मारिया, आज तक मेरी कही कोई बात सच नहीं हुई. जैसा कि अक्सर होता है कि आप बिजली गुल होने का डर ज़ाहिर करें और बस उसी पल कमरे में अंधेरा हो जाये, या कि मेरे कहने भर से कोई क्रिकेट टीम मैच जीत जाये... ऐसा कोई संयोग मेरे साथ कभी नहीं घटा. मैं दुनिया की सबसे अच्छी बेटी होने का भ्रम लिए चौबीस साल जीती रही. शिशिर मुझसे प्यार करता है, ये भ्रम भी पांच-छः साल मेरे गिर्द लिपट रहा..."<br />
<br />
इतना कहते-कहते उसकी नस से खून की कुछ गर्म बूंदों ने फिसलना शुरु कर दिया था और मुझे ताज्जुब था कि उसकी आवाज़ में दर्द नहीं था, शायद वो इतना सह चुकी थी कि दर्द की सीमाओं से परे पहुंच चुकी थी...उसका बोलना अभी भी जारी था...<br />
<br />
"मुझे हमेशा से लगता था कि मेरी शादी के फेरे मेरी मौत की तरफ बढने वाले रास्ते के कुछ एक मोड भर हैं. जीवन में मुझे सिर्फ एक बात का पूर्वाभास हुआ है... मेरी मौत का. शायद मैं आज पहली बार खुशी को उसकी पूरी पूर्णता के साथ महसूस कर पा रही हूं मार्...<br />
...<br />
..."<br />
<br />
वो शायद और भी कुछ कहना चाहती थी लेकिन मैं अपना नाम उसके लगभग मुर्दा हो चुके होठों से फिर से नहीं सुन सकती थी. इसलिये उसे धीरे-धीरे यातना दे कर मारने का इरादा छोड कर मैंने एक झटके में उसे आज़ाद कर दिया. <br />
<br />
लेकिन उसकी शादी वाले दिन जो मुस्कुराहट उसके चेहरे पर हवा के किसी झोंके के साथ आ कर अटक गई थी, वो आज उसके निश्चल होठों पर भी उसी बेफिक्री के साथ पसरी हुई थी.<br />
<br />
उसे अपना पूर्वाभास सही होने की शायद वाकई बेहद खुशी थी...monalihttp://www.blogger.com/profile/00644599427657644560noreply@blogger.com18