Sunday, June 24, 2012

ज़िन्दगी से परे...






आज़ाद... हर डर, हर दर्द, हर दुश्चिंता से परे मैं चल रही हूं पानी की लहरों पर. पीठ पर परों का हल्का-सा बोझ है लेकिन मन ऐसा हल्का जैसे कपास के फूल से हवा के साथ बह चला कोई रोंया...

एक नज़र मुड कर देखती हूं क्षितिझ के पास उन लोगों के धुंधले चेहरों को जो मुझे घेरे बैठे हैं. जाने दूरी या मेरी आंखों की नमी की वज़ह से कुछ भी साफ-साफ दिखाई नहीं देता...इस सब को बिसरा कर मैं, मेरे और तुम्हारे दरम्यान की दूरी को पाटते इन्द्रधनुष पर दौडी चली आ रही हूं.

इस इन्द्रधनुष का छोर ठीक तुम्हारे कमरे कि खिडकी पर खुलता है. सामने तुम मेरी तस्वीर पर आंखें गडाये बैठे हो, सिसकने की आवाज़ साफ सुन सकती हूं मैं... शायद तुम्हें भी लगता है कि मौत मुझे तुमसे दूर ले गई है जबकि मौत केवल एक रास्ता भर थी तुम्हारे नज़दीक आने का. पागल लडके...इधर देखो, मैं और भी नगीच हो गई हूं तुमसे, देह के भी फासलों को मिटा कर.

ओफ्फो... लैपटॉप पर मेरी ये तस्वीर छोडो अब, देखो तो तुम्हारे इश्क़ के लिबास मे लिपती मेरी रूह कितनी दमक रही है आज. अब तुममें और मुझमें कोई दुराव-छिपाव नहीं. तुम मेरे आर-पार देख सकते हो और मैं तुमसे एकाकार हो सकती हूं...