Tuesday, July 7, 2009

सोचा ना था


हर कही अनकही जीनी होगी, सोचा ना था
ये बातें कडवी पीनी होंगी, सोचा ना था
रिश्तों की जिस चादर को ओढ़ॅ, महफू समझते थे खुद को
वो चादर इतनी झीनी होगी, सोचा ना था

जीवन पर अपना वश ना होगा, सोचा ना था
रिश्तों में कोई रस ना होगा, सोचा ना था
जब खुशियां बांटते चलते थे, तब नही किसी ने समझाया
हिस्से में खुशियां थोडी होंगी, सोचा ना था

सब संगी साथी छोड़ने होंगे, सोचा ना था
नाते अप्नों से तोडने होंगे, सोचा ना था
गैरों की जिस महफिल में अजनबी-से लगते थे चेहरे
अब इन्हीं अजनबी चेहरों में फिर से अप्ने खोजने होंगे, सोचा ना था

सब हमसे ऐसे रूठेंगे, सोचा ना था
हम भीड में तन्हा खडे रहेंगे, सोचा ना था
हम तो सोचे बैठे थे, उम्र भर की पूंजी जमा हुयी
रिश्ते भी डाल के ताले तिजोरियों में भरने होंगे, सोचा ना था

अधूरा ख्वाब


जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी
अपनी सुनहरी यादों की किताब में,
ये अनुभव भी समेटना चाहती थी
अंदाजा था मुझे... है ये क्षणिक, जल्द ही टूटेगा
और कल बनेगा वजह तक्लीफ की

इसलिये जी भर कर हंस लेना चाहती थी

जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी

ख्वाब में थी मैं और धुंधला सा एक साया था साथ
धीरे से आगे बढ कर जिसने हाथों में लिया था हाथ

इस छुअन को बखूबी पहचानती थी
और सच के धरातल पर कभी महसूस ना कर पाऊंगी इसे,
ये भी मानती थी

मगर... ख्वाब में ही सही,
ये सफर पूरा करना चाह्ती थी

जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी

Monday, July 6, 2009

...जो तुमने दिया


हां याद आती है तुम्हारी;
जब कोई पूछता है, पीठ पर ये निशान कैसे हैं?
जब कोई पूछे वजह मेरी खामोशी की
उस वक्त तुम्हें भुला देना नामुमकिन होता है,
जब कोई बात करता है... दुख की, दर्द की...

औएर सबसे ज्यादा तुम्हें याद करती हूं तब...
जब मेरी बेटी हंसती है, मुस्कुराती है...
क्योंकि;
तुमने ही तो दिया है ये सब...
...ये निशान,
...ये खामोशी,
... और मेरी बेटी

व्यतिक्रम


गूंजता शोर से संसार है
तो खामोश सितारे भी हैं
दर्द का मंजर आंखों में ला देता है पानी
पर आंखों से दिल में उतर जायें वो नजारे भी हैं
माना सागर अनंत और अपार है
लेकिन इसके किनारे भी हैं
ठोकर दे कर गिराने वलों की कमी नहीं
मगर बेलों को मिले सहारे भी हैं
शिकायत पतझड़ की करने वालों ने गौर नहीं किया शायद
मौसम के साथ आयी बागों में बहारें भी हैं