Sunday, December 20, 2009
दिल्ली
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
हर पल भागता है, फिर भी लगे सूना
इसके शोर में भी सन्नाटा सुनाई दे
जमा जमा लगता है ये शहर कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
रिश्तों की क्दर तो इसने कभी नहीं की
हर चीज बनी खिलवाड्, हर चीज से दुश्मनी की
धुआं धुआं लगता है ये शहर कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
ये रंग बदलता है कई रूप ये धरता है
फिर भी न जाने क्यूं मुझे कुरूप ही दिखता है
सूना सूना लगता है ये श्ह्र कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
ये हंसी को है मारे, हर ग़म को संवारे
हर आदमी दूसरे का काम बिगाडे
फ़ना फ़ना लगता है ये शहर कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
Tuesday, November 17, 2009
!!!!!!!
वो धार है पानी की
अपनी रौ में बहता हुआ
बेखबर...बेअसर...
मगर...हर जिन्दगी को छूता हुआ...
उसकी शीतल छुअन हर तपन से आजाद करती है...
उसकी कल-कल की आवाज मेरी खामोशी से बात करती है...
कभी लगता है जैसे मैंने अपने प्यार के बांध से उसे रोक लिया है
और कभी...लगता है कि मैं उसके साथ बह रही हूं...
उसकी हर बात अपने होठों से कह रही हूं...
और् सच कहूं तो मैं बह जाना चाहती हूं उसके साथ...
चाहती हूं कि वो थामे मेरा हाथ और कर ले खुद से करीब...
चाहे ये करीबी मुझे डूब के हासिल हो...
भले हो जाएं वापसी के सारे रास्ते बंद मगर वो मेरी मंजिल हो
कि जो...
धार है पानी की
अपनी रौ में बहता हुआ
बेखबर...बेअसर...
मगर...हर जिन्दगी को छूता हुआ...
Tuesday, October 6, 2009
आत्मसमर्पण
मैं जब भी भ्रम और हक़ीकत में से किसी एक को चुनना चाहती हूं
मैं जब भी खुद को निश्चिन्त और किनारे पर पाती हूं
तुम सब कुछ बदल देते हो... मुझे फिर से मझधार में धकेल देते हो...
क्योंकि, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता
तो मत दो... ना खुशी...न हंसी...ना आजादी...ना खुदी
बस्...मुझे सपने न दिखाओ...
रोज जिताने की आशा दिखा कर...नित नये खेल ना खिलाओ...
तुम नहीं समझोगे सपने टूटने की तकलीफ़ ...
मेहनत से रंगे पन्नों पर स्याही बिखरने की तकलीफ़...
क्योंकि, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता
मेरी शिकायतों पर हंस देते हो तुम...
कहते हो... मैं तुम्हें लडना सिखाता हूं
चुनौतियों से भिडना सिखाता हूं...
झूठ... तुम बस अपना खेल जमाते हो...
साथी-सखा कह कर ऐसा खेल खिलाते हो...
कि जिसमें नियम हैं तुम्हारे, लोग भी तुम्हारे हैं...
खेला है तुम्हारा...सदा तुम जीते और हम हारे हैं
क्योंकि, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता
किन्तु अब मुझमें सामर्थ्य नहीं बची...
हारा खेल खेलने नहीं रही मेरी रुचि...
मैं हार मानती हूं सदा के लिये...टूटी अब हर आशा मेरी...
खुश हो जाओ अब तो... खत्म हुई प्राप्ति की पिपासा मेरी...
अब मुझे जीने दो बस जीने के लिये...
अपनों को हंसाने के लिये... उनके अश्रु पीने के लिये...
उम्मीद है कि ये देना तो दुष्कर ना होगा...
इतना तो दे ही सकते हो तुम...
आखिर, तुम्हारी मर्जी के बग़ैर पत्ता भी नहीं हिलता
तुम ना चाहो तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ नहीं मिलता
Wednesday, September 9, 2009
तेरी खातिर...
मैं खुद से ही दूर होती गई
खुद ही जाने क्यूं खोती गई
तुझे जीतने की यूं ख्वहिश जगी
मैं तुझमे ही खुद को डुबोती गई
तेरी भोर से आखें मेरी खुली
तेरी रात से मेरी पलकें मुंदी
तेरी खुशी से लब खिल उठे
तेरे दर्द में ये नैना झरे
मैं तुझमें ही गुम होती गई
मैं खुद से ही दूर होती गई
मैं तेरे इशारों पर चलती रही
तुझको ठोकर लगी,मैं संभलती रही
अपनी खुशी तो ना देखी कभी
मैं तेरे लिये ही बिखरती रही
मैं तुझमें ही गुम होती गई
मैं खुद से ही दूर होती गई
सब पूछें क्या पाया, क्या खोया मैने?
किसकी खातिर हर सपना है धोया मैंने?
कुछ खो कर है पाया, पा कर कुछ खो दिया
बस तेरे लिये नहीं ग़म बोया मैंने
हर विरासत तेरी संभालने के लिये
मैं कंटकों से हंस के गुजरती गई
कर्तव्य की पगडण्डी पर चलते हुये
'मोनाली' हर पल न्यौछावर होती गई
तेरी इक प्यार भरी मुस्कान को
तेरी जुबां को और तेरे सम्मान को
मैं अपनी खुदी को ही खोती गई
मैं तुझमें ही गुम होती गई
मैं खुद से ही दूर होती गई
Monday, September 7, 2009
यादें...
तेरी यादें जेहन में आया करेंगी
उम्र भर हंसाया रुलाया करेंगी
तन्हाईयों में भी ना तन्हा करेंगी
वो बातें मुझे गुदगुदाया करेंगी
बनायेंगी मुझको ये बार बार
बना कर के खुद ही मिटाया करेंगी
मेरी जिन्दगी को वीरान बनाने
तेरी यादें जेहन में आया करेंगी
उम्र भर हंसाया रुलाया करेंगी
कांच की किसी किरच की तरह
दिल में कसक छोड जाया करेंगी
मेरे ख्वाब में तुमको सजाकर ये यादें
नीदें मेरी ये चुराया करेंगी
भीतर तक मुझे तोड जाने
तेरी यादें जेहन में आया करेंगी
उम्र भर हंसाया रुलाया करेंगी
सजायेंगी तेरी खुशियां मेरे लबों पर
मेरी आखों से गम तेरे बहाया करेंगी
ना जाने क्यूं कर बनी हैं ये दुश्मन
रुलाकर मुझे खिलखिलाया करेंगी
हमेशा तुम्हें मेरे पास रखने
तेरी यादें जेहन में आया करेंगी
उम्र भर हंसाया रुलाया करेंगी
Thursday, August 27, 2009
सफ़र...
देखती हूं रेल की खिडकी से झांक कर
कहीं धरा उर्वर तो कहीं है बंजर
कहीं झुकी डालियां तो कहीं पतझड
मौसम के हर वार को सह कर खडे हैं पेड अक्खड
कहीं पहाड, कहीं नाले, कहीं नदी
कुछ गांव भरे पूरे, कुछ ऐसे जैसे वीरान सदी
कहीं गूंजते कहकहे दूर तक, कहीं आंसुओं से खुश्क चेहरे पत्थर
देख्ती हूं रेल की खिडकी से झांक कर
कहीं धरा उर्वर तो कहीं है बंजर
कहीं झुकी डालियां तो कहीं पतझड
मौसम के हर वार को सह कर खडे हैं पेड अक्खड
कहीं पहाड, कहीं नाले, कहीं नदी
कुछ गांव भरे पूरे, कुछ ऐसे जैसे वीरान सदी
कहीं गूंजते कहकहे दूर तक, कहीं आंसुओं से खुश्क चेहरे पत्थर
देख्ती हूं रेल की खिडकी से झांक कर
Tuesday, July 7, 2009
सोचा ना था
हर कही अनकही जीनी होगी, सोचा ना था
ये बातें कडवी पीनी होंगी, सोचा ना था
रिश्तों की जिस चादर को ओढ़ॅ, महफू समझते थे खुद को
वो चादर इतनी झीनी होगी, सोचा ना था
जीवन पर अपना वश ना होगा, सोचा ना था
रिश्तों में कोई रस ना होगा, सोचा ना था
जब खुशियां बांटते चलते थे, तब नही किसी ने समझाया
हिस्से में खुशियां थोडी होंगी, सोचा ना था
सब संगी साथी छोड़ने होंगे, सोचा ना था
नाते अप्नों से तोडने होंगे, सोचा ना था
गैरों की जिस महफिल में अजनबी-से लगते थे चेहरे
अब इन्हीं अजनबी चेहरों में फिर से अप्ने खोजने होंगे, सोचा ना था
सब हमसे ऐसे रूठेंगे, सोचा ना था
हम भीड में तन्हा खडे रहेंगे, सोचा ना था
हम तो सोचे बैठे थे, उम्र भर की पूंजी जमा हुयी
रिश्ते भी डाल के ताले तिजोरियों में भरने होंगे, सोचा ना था
अधूरा ख्वाब
जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी
अपनी सुनहरी यादों की किताब में,
ये अनुभव भी समेटना चाहती थी
अंदाजा था मुझे... है ये क्षणिक, जल्द ही टूटेगा
और कल बनेगा वजह तक्लीफ की
इसलिये जी भर कर हंस लेना चाहती थी
जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी
ख्वाब में थी मैं और धुंधला सा एक साया था साथ
धीरे से आगे बढ कर जिसने हाथों में लिया था हाथ
इस छुअन को बखूबी पहचानती थी
और सच के धरातल पर कभी महसूस ना कर पाऊंगी इसे,
ये भी मानती थी
मगर... ख्वाब में ही सही,
ये सफर पूरा करना चाह्ती थी
जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी
Monday, July 6, 2009
...जो तुमने दिया
हां याद आती है तुम्हारी;
जब कोई पूछता है, पीठ पर ये निशान कैसे हैं?
जब कोई पूछे वजह मेरी खामोशी की
उस वक्त तुम्हें भुला देना नामुमकिन होता है,
जब कोई बात करता है... दुख की, दर्द की...
औएर सबसे ज्यादा तुम्हें याद करती हूं तब...
जब मेरी बेटी हंसती है, मुस्कुराती है...
क्योंकि;
तुमने ही तो दिया है ये सब...
...ये निशान,
...ये खामोशी,
... और मेरी बेटी
व्यतिक्रम
गूंजता शोर से संसार है
तो खामोश सितारे भी हैं
दर्द का मंजर आंखों में ला देता है पानी
पर आंखों से दिल में उतर जायें वो नजारे भी हैं
माना सागर अनंत और अपार है
लेकिन इसके किनारे भी हैं
ठोकर दे कर गिराने वलों की कमी नहीं
मगर बेलों को मिले सहारे भी हैं
शिकायत पतझड़ की करने वालों ने गौर नहीं किया शायद
मौसम के साथ आयी बागों में बहारें भी हैं
Monday, May 4, 2009
असमंजस
एक ख़्वाब जो देखा करती थी
एक बात जो सोचा करती थी
जिस्को मैं सपना कहती थी
सपने में जीती रहती थी
वो सपना अब सपना ना रहा
वो कुछ ऐसे अब पूरा हुआ
कि अब मुझको डर लगता है
मन मेरा उस से डरता है
जिनको मैंने सच माना था
वो सारे भ्रम अब टूट गये
जिनको मैंने भ्रम जाना था
वो सच बन कर यूं लूट गये
जाने ये कैसी बात हुयी
कैसे संग दिन के रात हुयी
मुस्कान में आंसू ऐसे मिले
बहती धारा में जैसे रेत चले
अब साथ मेरे कुछ भी ना रहा
मनमीत गया, मन भी ना रहा
सच भी ना रहा, भ्रम भी ना रहा
फिर भी हालात से लडती हूं
कल मेरा उज्जवल हो ना हो
मैं आज भी सप्ने बुनती हूं
हर आहट पर कान लगाये हूं
खुशियों की आवाजें सुनती हूं
रिक्ति
जो नहीं मिला तुझे मुझे उस्की तलाश है
जिन्दगी बिन तेरे बेरंग पलाश है
मैं ढूढ्ती,मैं पुकारती
मैं यहां वहां निहारती
तेरे साथ की मुझे अब भी प्यास है
जिन्दगी बिन तेरे बेरंग पलाश है
हर जगह, हर कहीं ढूढे मेरी नजर उसे
हां वही कि तू नहीं हासिल कर सका जिसे
हमारे उस घरौदे की मुझे अब भी आस है
जिन्दगी बिन तेरे बेरंग पलाश है
Saturday, April 18, 2009
खुशी की खोज...
आज सोचा खुशी ढ़ूढ़ेंगे, एक चेहरे प हंसी ढूढेंगे
अगर व्यस्त ना हो आप तो आयें, मिल कर हम सभी ढ़ूढेंगे
सबसे पहला निशाना मन्त्री जी के घर को बनाया,
किन्तु उन्हें विपक्ष ने बहुत सताया,
उन्होने अपना दुखडा सुनाया, हमने उन्हें दिलासा दिलाया
अगला पडाव एक अधिकारी का घर था,
किन्तु उन्हे आयकर विभाग का डर था,
उन्होने भी स्वयम को दुखों से ग्रस्त बताया, जाने कितनी परेशानियों से त्रस्त बताया
तो यहां भी हमारी मन्शा न हुई पूरी, हंसी देखने की इच्छा रही अधूरी
लेकिन हमें कहां चैन था, खुशी देखने को मन बेचैन था
अब हमने अपने शुभ कदम एक धनी व्यवसायी के घर रखे,
और वे भी हमारा उद्देश्य पूरा ना कर सके
क्योंकि उन पर टूटा दुखों का पहाड था, बिखरता दिख रहा घर बार था
अब मैंने सोचा 'मोनाली' नसीब में ही खुशी नहीं,
भटकी सारे दिन लेकिन मिली हंसी नहीं...
निराश हो बोझिल कदमों से घर की ओर लौटने लगी,
तभी मेरी नजर किसी मजदूर के बच्चे पर पड़ी...
उसके पास न धन था, ना पद था,
फिर भी चेहरे पर अनोखा तेज, अनोखा मद था
क्योंकि उसका मन था निष्पाप, दिल मे थी सच्चाई
तब लाख बातों की एक बात समझ मे आयी
खुशी के दो पलों के लिये धन दौलत नही चहिये,
मिल जायेगी खुशी अभावों मे भी... "उसे ढ़ूढ़ने को वक्त तो लाइये"
Monday, April 6, 2009
प्रतीक्षारत ...
जब जब मैंने उसको देखा, सदा प्रतीक्षारत पाया
विधाता ने उसके भाग्य में लिखा असमंजस का साया
करती है परिश्रम कठोर, भीषण सूर्यताप में
ना थकते देखा है उसको वर्षा के उत्ताप में
और करती है मौन प्रतीक्षा... थोड़ा सा धन पाने को
जिसका करती है दोहन, दो जून के खाने को
घर जा कर छोटे बालक को प्यार से पुचकारती है
भूख से व्याकुल उसके मुख को कातरता से निहारती है
आटे में कुछ पानी मिला कर उसकी भूख मिटाती है
सुख की आस करे ईश्वर से किन्तु प्रतीक्षा ही पाती है
इसी प्रतीक्षा के पूर्ण होने की बीस साल प्रतीक्षा करती है...
अब म्रतप्राय देह उसकी उस पुत्र की राह तकती है
जो गया था दवा को लाने और अभी ना आया है
त्याग देती है प्राण अभागिन, म्रत्यु संदेश जो आया है
किन्तु साया प्रतीक्षा का अभी ना हटने पाया है
निश्चल शव पड़ा है उसका
कफन नहीं मिल पाया है...
अंततः ...
अंततः मेरे ही सम्मुख आओगे
सत्यता मुझमें ही शामिल पाओगे
चख लो नीर करोड़ों सागर का, किन्तु मिठास गंगाजल में ही पाओगे
कदम से कदम मिला ले भले कोई
मित्रता का सार मुझसे ही पाओगे
अंततः मेरे ही सम्मुख आओगे
सत्यता मुझमें ही शामिल पाओगे
एक बार हाथ बढाकर देखो
फिर कोई दीवार कभी ना पाओगे
म्रत शरीर को कंधा दे देंगे कई
दुःख ढोने को हाथ मेरा ही पाओगे
अंततः मेरे ही सम्मुख आओगे
सत्यता मुझमें ही शामिल पाओगे
हंसी ठिठोली कितने ही करते रहें
आंसुओं से परिचय मेरा कराओगे
लाख होंगे साहिल पर हाथ थाम कर चलने वाले
मझधार में जो किनारा दे वो कश्ती मेरी ही पाओगे
Tuesday, March 31, 2009
पाषाण पीड़ा
तुम नीर मैं पाषाण हुई
तुम चले गये कुछ पीर हुई
झर झर झरना-सा बनकर
तुम प्रतिदिन मुझसे मिलते रहे
तन पर भी छोडी छाप और मन में भी तुम घुलते रहे
अब छाप छोड मुझ पर अपनी
तुम आगे बढना चाह्ते हो
पाषाण कहें सब मुझको, पाषाणता तुम दिखलाते हो
कहते हो धार नयी कोई फिर तुमको छू जायेगी
कहते हो जल की नयी लहर फिर शीतलता दे जायेगी
गर मान भी लूं ये बात सभी,
क्या पीर कभी छुप पायेगी???
माना कोई नयी जलधारा फिर पत्थर पिघलायेगी
लेकिन जो छाप है तुमने छोडी,
क्या छाप कभी मिट पायेगी???
दुनिया तो बस पत्त्थर को ही पाषाण को ही पाषाण ह्र्दय बतलायेगी...
लेकिन जो सहा है पत्त्थर ने,
क्या कभी जान भी पायेगी???
तुम चले गये कुछ पीर हुई
झर झर झरना-सा बनकर
तुम प्रतिदिन मुझसे मिलते रहे
तन पर भी छोडी छाप और मन में भी तुम घुलते रहे
अब छाप छोड मुझ पर अपनी
तुम आगे बढना चाह्ते हो
पाषाण कहें सब मुझको, पाषाणता तुम दिखलाते हो
कहते हो धार नयी कोई फिर तुमको छू जायेगी
कहते हो जल की नयी लहर फिर शीतलता दे जायेगी
गर मान भी लूं ये बात सभी,
क्या पीर कभी छुप पायेगी???
माना कोई नयी जलधारा फिर पत्थर पिघलायेगी
लेकिन जो छाप है तुमने छोडी,
क्या छाप कभी मिट पायेगी???
दुनिया तो बस पत्त्थर को ही पाषाण को ही पाषाण ह्र्दय बतलायेगी...
लेकिन जो सहा है पत्त्थर ने,
क्या कभी जान भी पायेगी???
काश...
काश कि दो लम्हे और मिल जाते तेरे साथ जीने के
काश कि दो लम्हे और मिल जाते जिन्दगी का जाम पीने के
अभी तो तरुणाई अंगडाई ली ही थी
काश कि दो लम्हे और मिल जाते इस उम्र मे रहने के
सागर, साहिल हवा और नदिया अभी तो महके ही हैं
काश कि दो लम्हे और मिल जाते इनकी महक लेने के
एक लम्बा अर्सा तेरे आगोश मे बिताने के बाद लगता है कि
काश कि दो लम्हे और मिल जाते इन बांहों में रहने के
Saturday, March 28, 2009
बोनसाई
बोनसाई का ये व्रक्ष
जो होना चाहता था विस्त्र्त्, असीम्, अनन्त
नापना चाहता था अन्तराल.. धरा और आकाश के बीच का
चाहता था फलो से लद जाना, नम्रता से झुक जाना
मस्त पुरवाई के साथ बौराना
पेड़ होने की सार्थकता पाना
लेकिन हसरतो की कलिया खो गई कला की आन्धी मे
हा आन्धी कला की...
लोग इसे कला ही कहते है
दूसरे के अस्तित्व को समेट कर प्रसिद्धि और प्रशन्सा के किले खड़े करना
किसी के असीम होने के स्वप्न को चारदीवारी मे बान्ध देना
और खुद को कलाकार का दर्जा देना
यही कला है?
लेकिन ये क्या?
ये बोनसाई तो हन्स रहा है
कहता है मै खुश हू
क्योकि आशा का दामन अभी छूटा नही है
उम्मीद से रिश्ता टूटा नही है
क्या हुआ जो मै यहा हू?
मेरे अन्श, मेरे बीज विस्त्र्त्, असीम्, अनन्त
नापेगे अन्तराल धरा और आकाश के बीच का...
जो होना चाहता था विस्त्र्त्, असीम्, अनन्त
नापना चाहता था अन्तराल.. धरा और आकाश के बीच का
चाहता था फलो से लद जाना, नम्रता से झुक जाना
मस्त पुरवाई के साथ बौराना
पेड़ होने की सार्थकता पाना
लेकिन हसरतो की कलिया खो गई कला की आन्धी मे
हा आन्धी कला की...
लोग इसे कला ही कहते है
दूसरे के अस्तित्व को समेट कर प्रसिद्धि और प्रशन्सा के किले खड़े करना
किसी के असीम होने के स्वप्न को चारदीवारी मे बान्ध देना
और खुद को कलाकार का दर्जा देना
यही कला है?
लेकिन ये क्या?
ये बोनसाई तो हन्स रहा है
कहता है मै खुश हू
क्योकि आशा का दामन अभी छूटा नही है
उम्मीद से रिश्ता टूटा नही है
क्या हुआ जो मै यहा हू?
मेरे अन्श, मेरे बीज विस्त्र्त्, असीम्, अनन्त
नापेगे अन्तराल धरा और आकाश के बीच का...
Friday, March 27, 2009
अभिशाप
पडोसी घर से आ रहा था रुदन
अनिष्ट की आशन्का से कापता मेरा मन
किन्तु वहा जा कर तो दूसरा ही नजारा पाया
हुआ था चान्दनी सी एक कन्या का जन्म
कन्या जन्म् और ये रुदन
अब ना जाने क्यू कसैला हुआ मेरा मन
किसी तरह मन को समझाया, कदमो को आगे बढाया
देखा एक बच्ची की आखो से बरसता सावन
भाई की तरह किताबो को पाना चाह्ता थ उसका बचपन
यह दोगला रवैया देख होने लगि चिढन
लेकिन मेरे पैर भी कहा जमते है?
विचारो की तरह यहा वहा विचरण करते है...
फिर से मन के विचारो को समेटा
निराशा भरे तन को कुछ और आगे घसीटा
एक परिचिता के घर की तरफ बढे मेरे कदम
वही ले कर चल दी उदास मन्
दरवाजे से जो द्रश्य देखा उसे देख मन खिसिया रहा था
वहा उनकी सजी धजी कन्या का मोल लगाया जा रहा था
वर पक्ष सामान कि लम्बी सूची थमा रहा था
और उन्का मन शायद कन्या से मुक्ति पाना चाह रहा था
अचानक उन्होने मुझे देखा, उठ कर मेरा सत्कार किया
और वर पक्ष की सभी मान्गो को खुशी खुशी स्वीकार किया
कन्या अप्ना मोल लगता देख मुर्झा रही थी
उसकी आखो मे पानी की बूद मुझे साफ नजर आ रही थी
मैने फिर इस पुरुष प्रधान समाज को धिक्कारा
लेकिन कही न कही मेरे मन ने इस सच्चाई को स्वीकारा
कमी हमारी है जो खुद को नहि पहचाना
अपनी एकता की शक्ति को कभी ना जाना
काश केवल अपने घर को सभाला होता
तो एक घर ही ना जाने कितनी नारियो का आसरा होता
maa
"मा"...
ना जाने कितने लबो से रोझ यह शब्द निकलता होगा
तुम्हारे सामने भी इसे देख कर कोइ आकार उभरता होगा
माथे की गोल लाल बिन्दी के साथ कोई रुप सन्वरता होगा
मेरे सामने भी उनकी तस्वीर कुछ यू उभर आती है
मानो पानी मे अपनी ही परछाई नजर आती है
जानते हो कैसी है वो?
जानना चाहोगे कैसी है वो?
मेरे घर के हर काम से कुछ ऐसे जुड़ी है
मानो हर चीज का आधार वो, हर चीज की धुरी है
चेहरे पर ऐसी शान्ति नजर आती है कि देखते ही हर परेशानी उड़न छू हो जाती है
सन्यम और धैर्य की साकार प्रतिमूर्ति है वो
कुछ् यू उन्होने मेरी हर गल्ती को स्वीकार किया
मानो कोई कमी उनकी ही रही, उन्होने ही कुछ गलत किया
यू पाला है मुझको मानो कोई चित्रकारा रन्ग सजाती है
फिर भी जैसे अपनी कला से असन्तुष्ट हो
उसकी तूलिका प्रति पल चल्ती जाती है
रोज किसी नयी कमी को ढूढ कर उसे सुधारती है
नियम कायदे का ऋगार कर प्यार से सन्वारती है
अपनी कला को निखारती है
गर वो ये पढेगी तो की शब्द न चुप्पी तोडेगा
नैनो से ही भव झरेगे, वात्सल्य क झरना फूटेगा
त्तो ये शब्द तो उनसे दूर रहेगे, न कोई और कहेगा और ना हम कहेगे
मन की ये बात जताना बताना हमारे वश की बात नही
गर चाहे भी तो लब देगे साथ नही
ना जाने कितने लबो से रोझ यह शब्द निकलता होगा
तुम्हारे सामने भी इसे देख कर कोइ आकार उभरता होगा
माथे की गोल लाल बिन्दी के साथ कोई रुप सन्वरता होगा
मेरे सामने भी उनकी तस्वीर कुछ यू उभर आती है
मानो पानी मे अपनी ही परछाई नजर आती है
जानते हो कैसी है वो?
जानना चाहोगे कैसी है वो?
मेरे घर के हर काम से कुछ ऐसे जुड़ी है
मानो हर चीज का आधार वो, हर चीज की धुरी है
चेहरे पर ऐसी शान्ति नजर आती है कि देखते ही हर परेशानी उड़न छू हो जाती है
सन्यम और धैर्य की साकार प्रतिमूर्ति है वो
कुछ् यू उन्होने मेरी हर गल्ती को स्वीकार किया
मानो कोई कमी उनकी ही रही, उन्होने ही कुछ गलत किया
यू पाला है मुझको मानो कोई चित्रकारा रन्ग सजाती है
फिर भी जैसे अपनी कला से असन्तुष्ट हो
उसकी तूलिका प्रति पल चल्ती जाती है
रोज किसी नयी कमी को ढूढ कर उसे सुधारती है
नियम कायदे का ऋगार कर प्यार से सन्वारती है
अपनी कला को निखारती है
गर वो ये पढेगी तो की शब्द न चुप्पी तोडेगा
नैनो से ही भव झरेगे, वात्सल्य क झरना फूटेगा
त्तो ये शब्द तो उनसे दूर रहेगे, न कोई और कहेगा और ना हम कहेगे
मन की ये बात जताना बताना हमारे वश की बात नही
गर चाहे भी तो लब देगे साथ नही
Monday, March 16, 2009
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
छोटा सा एक घर बन लिया
रन्गो से उसको सज दिया
सामान भी सारा जमा दिया
हमने सन्ग इसको बसा लिया
किन्तु है ये बस स्वप्न स्वप्न् होना है इसको भग्न भग्न
फिर भी मै देखू बार बार्
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
तेरे साथ चलू परछाई बन
हर बुराई हर अच्छाई बन्
तू भी मेरा प्रतिबिम्ब बना
सन्ग सूर्य उगा सन्ग चन्द्र ढला
किन्तु हम नदिया के तीर तीर, ये प्रेम बस देगा पीर पीर
फिर भी मै देखू बार बार्
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
तेरे दुख मेरे ऑसू
हर सुख तेर मै भी बान्टू
हर बात तेरी हो मुझे पता
मै भी पाऊ सब तुझे बता
किन्तु ना होगा पूर्ण पूर्ण, ये स्वप्न तो होगा चूर्ण चूर्ण
फिर भी मै देखू बार बार्
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
छोटा सा एक घर बन लिया
रन्गो से उसको सज दिया
सामान भी सारा जमा दिया
हमने सन्ग इसको बसा लिया
किन्तु है ये बस स्वप्न स्वप्न् होना है इसको भग्न भग्न
फिर भी मै देखू बार बार्
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
तेरे साथ चलू परछाई बन
हर बुराई हर अच्छाई बन्
तू भी मेरा प्रतिबिम्ब बना
सन्ग सूर्य उगा सन्ग चन्द्र ढला
किन्तु हम नदिया के तीर तीर, ये प्रेम बस देगा पीर पीर
फिर भी मै देखू बार बार्
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
तेरे दुख मेरे ऑसू
हर सुख तेर मै भी बान्टू
हर बात तेरी हो मुझे पता
मै भी पाऊ सब तुझे बता
किन्तु ना होगा पूर्ण पूर्ण, ये स्वप्न तो होगा चूर्ण चूर्ण
फिर भी मै देखू बार बार्
एक सपना देखू बार बार
हम साथ साथ हम सन्ग सन्ग् मै रन्गी हू तेरे रन्ग रन्ग
Sunday, March 15, 2009
कभी कभी खामोशी ही काफी है सब कुछ कह जाने के लिए
और चन्द कदम ही बहुत है लाख फासले मिटाने के लिए
कभी कभी ऑसु भी जताते है खुशियॉ और
मुस्कुराह्ट भी काम आती है कोइ दुख जताने के लिए
जानती हू खोना पड़ता है बहुत कुछ, कभी कभी कुछ पाने के लिए
लेकिन मना नही पाती खुद को तेरे बिना जी पाने के लिए
खमोश रातो मे तेरे बारे मे सोचना ही खुशी से भर देता है
नही चाह्ती कोई रिश्ता बस लोगो को दिखाने के लिए
और चन्द कदम ही बहुत है लाख फासले मिटाने के लिए
कभी कभी ऑसु भी जताते है खुशियॉ और
मुस्कुराह्ट भी काम आती है कोइ दुख जताने के लिए
जानती हू खोना पड़ता है बहुत कुछ, कभी कभी कुछ पाने के लिए
लेकिन मना नही पाती खुद को तेरे बिना जी पाने के लिए
खमोश रातो मे तेरे बारे मे सोचना ही खुशी से भर देता है
नही चाह्ती कोई रिश्ता बस लोगो को दिखाने के लिए
Heart vs Mind
When u were here wid me, i knew dat u r important
But now i realised dat 'no' u r nt important than me
when u were here wid me, i knew that i like u
But now i realised that 'no' i dont like u more than me
when u were here wid me, i knew that i luv to b wid u
but now i realised that i dont like to b wid ne1 else than me
when u were here with me, i knew that i was very much concerned about,
u, ur family n ur problems
but now i realised that i am nt concerned about ne1 else that me
And do u know who told me all this??
My MIND...
yeah, ppl say that mind is not that reliable..
but i know that my mind is more reliable than my HEART...
But with all this, i want to CONFESS something too...
My MIND is always thinking of u...
When my HEART is trying hard not to think of u even once
My MIND is constantly reminding me the time, i spent with u..
My MIND is constantly telling me that how loving and caring you were
My MIND keeps on saying that u are too adorable to forget..........
N now i m confused...
Whom to believe???
HEART or MIND???
My HEART only makes me cry for a certain time...
But this MIND which i think so reliable,
it let not me do anything at anytime.............
Subscribe to:
Posts (Atom)