Saturday, April 18, 2009
खुशी की खोज...
आज सोचा खुशी ढ़ूढ़ेंगे, एक चेहरे प हंसी ढूढेंगे
अगर व्यस्त ना हो आप तो आयें, मिल कर हम सभी ढ़ूढेंगे
सबसे पहला निशाना मन्त्री जी के घर को बनाया,
किन्तु उन्हें विपक्ष ने बहुत सताया,
उन्होने अपना दुखडा सुनाया, हमने उन्हें दिलासा दिलाया
अगला पडाव एक अधिकारी का घर था,
किन्तु उन्हे आयकर विभाग का डर था,
उन्होने भी स्वयम को दुखों से ग्रस्त बताया, जाने कितनी परेशानियों से त्रस्त बताया
तो यहां भी हमारी मन्शा न हुई पूरी, हंसी देखने की इच्छा रही अधूरी
लेकिन हमें कहां चैन था, खुशी देखने को मन बेचैन था
अब हमने अपने शुभ कदम एक धनी व्यवसायी के घर रखे,
और वे भी हमारा उद्देश्य पूरा ना कर सके
क्योंकि उन पर टूटा दुखों का पहाड था, बिखरता दिख रहा घर बार था
अब मैंने सोचा 'मोनाली' नसीब में ही खुशी नहीं,
भटकी सारे दिन लेकिन मिली हंसी नहीं...
निराश हो बोझिल कदमों से घर की ओर लौटने लगी,
तभी मेरी नजर किसी मजदूर के बच्चे पर पड़ी...
उसके पास न धन था, ना पद था,
फिर भी चेहरे पर अनोखा तेज, अनोखा मद था
क्योंकि उसका मन था निष्पाप, दिल मे थी सच्चाई
तब लाख बातों की एक बात समझ मे आयी
खुशी के दो पलों के लिये धन दौलत नही चहिये,
मिल जायेगी खुशी अभावों मे भी... "उसे ढ़ूढ़ने को वक्त तो लाइये"
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सुन्दर कविता , बहुत पसंद आई.
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