Monday, December 31, 2012

कई डरों को बेखौफ़ छोड कर.. मर गई तो अच्छा हुआ!!

श्श्श्श... चुप रहो... मौन धरो...
घोर दुःख की घडी है..
आज "पहली बार" मेरे देश में,
एक लडकी बलात्कार के बाद मरी है.

वरना हम बलात्कारियों को मौका ही कहां देते हैं!
कोख से ज़्यादा सुरक्षित जगह क्या होगी?
हम लडकी को वहीं 'बिना कोई तकलीफ' दिये मार देते हैं...
गर किसी तरह बच गई तो 'उसके' पिछले जन्म के कर्मों के फल हैं..

अच्छा हुआ जो अपना सा मुंह लिये मर गई.
कल को जो जीती तो मांगती... ढेरों हक़
हक़.. मरज़ी से पहनने ओढने का
  .. मरज़ी से देखने परखने का
  .. मरज़ी से जीवनसाथी चुनने का

मैं तो कहती हूं कि भला हुआ जो मर गई
जीती तो मर्ज़ी से जी कर घर वालों को शर्मसार करती
कहीं सच बोलने का रोग पाल बैठती तो "समाज" में ग़लत उदाहरण पेश करती

कई डरों को बेखौफ़ छोड कर,
मर गई तो अच्छा हुआ... दो-चार के तो ज़मीर ज़िन्दा हुए

मगर कुछ लोगों का ज़मीर अब भी सोता है...
                   .. ओढे हुये पुंसत्व की मोटी रजाइयां
                   .. बगल में दुबकाये हुये घिनौनी हसरतें

अब गर इनके ज़मीर को जगाने के लिये भी,
किसी दामिनी के खून के छींटे ही चाहिये..

तो आओ लडकियों!!!
अपने उघडे बदन को परोस दो इनके सामने
कर दो "समर्पण" उनके आगे
जो पिता/ भाई/ प्रेमी बनने का ढोंग किये फिरते हैं
और तुम्हारे तन का नहीं तो मन का नियमित भक्षण करते हैं...

बता दो उन्हें कि इस तरह वो तुम्हारी नहीं, अपनी इज़्ज़त उतारते हैं
क्योंकि तुम्हारी इज़्ज़त मांस और हडडियों के ढेर में नहीं बसती
जो किसी के नोंचने-खसोटने से भरभरा कर गिर जायेगी...

बल्कि तुम्हारी इज़्ज़त उस सोच में बसती है..
.. जिसे तुम आनुवांशिकी में दे जाओगी अपनी बेटी को

जिसे तुम हरग़िज़ नहीं सिखाओगी चुप रहना.. सब सहना...
जिसमें तुम भरोगी ज़ोर कि,
वो अकेले ही दिखा सके हर वहशी को वहशियत का आईना...


1 comment:

  1. Kya bole .. Bas sharmindaa haii.. Itna kasht ek naari ke jeevan main.. Dhikkar hai khud par aur is purush pradhan samaj par..


    And a grand salute to you and all females.

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