
पता नहीं ऐसा सबके साथ होता है या नहीं मगर मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है, किसी किसी दिन मन एक अजीब किस्म के अवसाद से भर जाता है.ज़्यादा खीझ शायद इसलिये होती है क्योंकि इस उदासी.. इस अवसाद का दोष किसी पर मढा नहीं जा सकता सिवाय प्रेमचंद की किसी कहानी या जगजीत सिंह जैसे गायक के लिए श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे गये, अखबार में छपे, उन articles को जिन्हें पढ कर समझना मुश्किल होता है कि लिखने वाले ने इन्हें किसी को श्रद्धांजलि देने के लिये लिखा है या स्वयं के महिमा मण्डन के लिये.
मगर अपने अवसाद का दोष उन दुखांत कहानियों या भारी ग़ज़लों को देने से कोई फायदा नहीं होता. प्रत्युत्तर में ये ग़ज़लें या कहानियां आपसे झगडा नहीं करतीं और क्योंकि किसी तरह की बहस नहीं होती इसलिये ध्यान भी भटकने नहीं पाता.
ऐसे ही किसी दिन में अपने किसी बेहद करीबी से ये सब कह देने का मन होता है मगर फिर एक एक कर के सबके नामों पर गौर करने के बाद आपको अहसास होता है कि आप बेहद practical लोगों से घिरे हुये हैं और कुछ भी कहने से पहले आपको अपनी उदासी की वज़ह बतानी होगी जो यक़ीनन आपके लिये भी नितांत अजनबी है.
और तब मुझे "तुम" याद आते हो. हां, तुम... बताया तो तुम्हें किसी और के सामने मैं बेवकूफ नहीं बन सकती, सबने मुझे 'समझदार' का तमगा दिया हुआ है और मेरी निहायत बेवकूफाना बातें मेरे समझदार होने के भ्रम के साथ साथ उनके इस भरोसे को भी तोड देंगी कि मैं उनकी उलझनें सुलझा सकती हूं. मगर तुम्हारे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं, मैंने पहले दिन से ही तुम्हें समझदार बता कर खुद को बेवकूफ कहलवा लिया है.
कुछ भी तो नहीं जानती तुम्हारे बारे में मगर फिर भी ना जाने क्यूं ऐसी उदास शामों में तुम्हारी बातों के रंग घुले दिखते हैं. मगर पांच रोज़ पहले ही मैंने एक बार फिर खुद को तुम्हारे असर से आज़ाद कराने का वायदा किया है. ritual of 21 days जैसी किताबी बातों को भी अमल में लाने की कोशिश कर रही हूं.
तुमसे दूर रहने का हर संभव प्रयास कर रही हूं. तुम्हें call या message करने से खुद को रोकने के लिए ritual of 21 days का wallpaper चस्पा कर रखा है. अन्तर्जाल से यथासंभव दूरी बनाये हुये हू मगर लगता है मानो फिर से कायनात कोई साजिश रच रही है. हर तरफ दीवारें खडी करने के बाद जब मैं सुकून की सांस ले कर अखबार उठाती हूं तो आज वहां भी तुम्हारा नाम झांक रहा है. आधे घण्टे तक फिज़ूल खबरें पढने की नाकाम कोशिश करती हूं मगर हर २-४ मिनट में तुम्हारी (या तुम्हारे हमनाम किसी शख्स की) लिखी वो २ पंक्तियां पढ लेती हूं जो जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिये छापी गई हैं...
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोडा करते
वक्त की शाख से पत्ते नहीं तोडा करते
जाने क्यूं इन २ पंक्तियों में खुद को ढूंढना चाहती हूं. जाने कौन नासमझ ये सुनना चाहता है कि ये तुम्हारी आवाज़ है.. मेरे लिये. ख़ैर, मैं उस नासमझ को इसी ग़ज़ल का दूसरा मिसरा सुना कर समझा लूंगी...
शहद जीने को मिला करता है थोडा थोडा
जाने वलों के लिए दिल नहीं तोडा करते
कभी कभी सोचती हूं कि अपने बचपने भरी ज़िद को थोडा परे सरका पाती तो ये सब तुमसे कह सकती थी मगर मेरी expectations (जो करने का यक़ीनन मुझे कोई हक़ नहीं) मेरे ego को हवा देती जाती हैं और जाने कितना कुछ मेरे अंदर ही अंदर जल जाता है. और तब मुझे अपने आलस को परे धकेल कर diary-pen उठाना पडता है. ये पन्ने मेरे अवसाद को जज़्ब कर पाने की ग़ज़ब की काबिलियत रखते हैं, एक अजीब सी संतुष्टि देते हैं. मानो मैं इनकी महबूबा हूं और मेरा हर दुख, हर आंसू,हर हंसी, हर खुशी ये सहेज लेना चाहते हों. शायद इसीलिये जब सब मेरी उदासी से हार जाते हैं तो मैं कलम के हाथों एक ख़त इन काग़ज़ों के नाम भेज दिया करती हूं.ये काग़ज़ स्याही बन कर बहने वाली मेरी सारी उदासी को सोख लेते हैं.
इन पन्नों में किसी किस्म की insecurity भी नहीं. शायद इनकी मुझमें incredible faith है कि मैं लौट कर इनके पास ज़रूर आऊंगी या शायद दुनिया क तजुर्बा बहुत है और ये जानते हैं कि मैं फिर फिर लौटा दी जाऊंगी.. लोग कभी ना कभी मुझसे थक कर मुंह फेर लेंगे और ऐसा ना होने तक ये मेरा इंतज़ार करते हैं.
तुम्हारी कई लाख पलों तक बाट जोहने के बाद भी जब तुम नहीं आते तो मैं तुम्हारी और तुम्हारे जैसे हर शख्स की बुराइयां इन पन्नों से करती हूं जिन्होंने मुझे hold पर रखा हुआ है.
और आखिर हूं तो लडकी ही.. बुराइयां, निन्दा करने के बाद अवसाद भले ना मरे मगर तुम्हारी याद की शिद्दत में एक कमी-सी आ जाती है.
हर सवाल का जवाब मिलता है सिवाय इस बात के कि ढेर सारे दोस्तों और कई अजनबियों में से बस "तुम".. एक तुम ही क्यूं याद आते हो??? शायद इस्लिये क्योंकि तुम्हें चीज़ों की वज़ह नहीं देनी होती.मेरी फिजूल-सी किसी बात के बाद तुम्हारे मन में एक 'क्यों' नहीं उगता.
जैसे उस रात मेरी गहराइयों में उतरने के बाद जब तुमने कहा था कि, "तुम्हारी आंखें बहुत बोलती हैं, बहुत खूबसूरत हैं.. ठीक तुम्हारी उंगलियों की ही तरह"
और तब हमने ताक़ीद की थी कि हमारी करीबी के इन पलों में हमारी तारीफ मत किया करो.
ऐसी कितनी ही बातें सिर्फ इसलिये कह पाये क्योंकि यकीन था कि तुम पलट कर कोई सवाल नहीं करोगे.
ख़ैर...