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एक दीवानी सी लडकी इक रोज़ झगड बैठी मुझसे...
बोली, तू सबको नाच नचाए.. मैं ना बोलूंगी तुझसे...
मुझ पर ये इल्ज़ाम रखा था कि...
मैंने उसकी खुशिया छीनीं,
मैंने उसके सपने तोडे,
आस दिखा कर सुखद भविष्य की... असमंजस के रिश्ते जोडे...
गुस्से में मुझको धमका कर पगली बोली थी मुझसे...
प्रियतम की ग़र खुशियां छीनी... ना बात करूंगी फिर तिझसे
नर-नारायण के इस झगडे के प्रत्युत्तर में मैं तब केवल हंस पाया था...
कैसे उसको भवितव्य दिखाता.. जिस पर खुशियों का साया था???
पर कल रात हो गया तरुणी के सम्मुख वो सारा सत्य उजागर
जान गई कि खुशियों के ही पुष्प बिछे हैं उसके प्रियवर के पथ पर
आज फिर वो सरला आई थी मुझसे मिलने मंदिर में...
नैंनों में कुछ नीर भरा था, बोली प्रफुल्लित स्वर में...
"उसको दे कर इतनी खुशियां, प्रभु तुमने मुझको जीता
आज से तुम भी मित्र हो मेरे.. मैं भूली जो कल बीता
आब से कोई शिकायत होगी ना मुझको तुमसे
जान गई तुम तारणहार हो.. तारोगे तम से.. ग़म से...
अब से मेरे अधरों पर सद प्रमुदित मुस्कान रहेगी
ग़र तरल हुए भी नैना तो मन में ये बात रहेगी
उसकी खुशियां संजो संजो कर मैं नित ही मुसकाऊंगी
नहीं वो मेरा...एह्सास है मुझको... फिर भी जश्न मनाऊंगी
मन मंदिर के इक हिस्से में कर के तेरी प्राण प्रतिष्ठा
मेरी भक्ति के दिए में एसके प्रेम की जोत जलाऊंगी"