Friday, November 12, 2010

जिसके साथ सफर तय करना था
उसी ने मंज़िल से पहले बांहें छोड दीं

जिसके साथ छेडे थे तराने
उसी ने साज़ की धडकन तोड दी

संग जिसके जीने की आरज़ू थी
उसी ने जीवन की राह मोड दी

मैं नदी बन कर जिसमें समाना चाहती थी
उसी सागर ने साहिल की लकीर खींच दी

14 comments:

  1. क्या करें ऐसा भी/ही होता है

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  2. ohh ! Ye dard.. Bahut hi dukhi kar diya.. Achhi rachna.

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  3. सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

    .....अपनी तो आदत है मुस्कुराने की !
    नई पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  4. ऐसा भी होता है लेकिन जिंदगी रुकने का नाम नहीं है ...इसे चलना ही पड़ता है और चलना ही चाहिए..

    दर्द से भरी गज़ल.

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  5. जीजी का आखिर ख़त पढ़कर लगा कहीं कुछ चटक गया हो। कितनी खोखली जिंदगी जीते हैं न हम। ज़िंदा समाज हजारों साल की गुलामी के बाद मर गया है। हमने अपनी जिंदगी को ही गुलाम बना दिया है आने वाली नस्ल फिर कैसे नहीं गुलाम होगी।

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  6. जवाब हम देंगे.....
    मगर........
    शाम को.....
    अभी चला दफ्तर....
    लिल्लाह!
    आशीष

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  7. मै नदी बन कर जिसमे सामना चाहती थी
    उसी सागर ने साहिल की लकीर खीच दी
    वाह बहुत खूब कहा आपने

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  8. कितने ही दरिया मिलते हैं सागर में,
    मुहब्बत के प्यासे, वस्ल की तलब में!
    कौन सी नदी बताओ मगर तुम,
    पहुँच पाती है सागर के मन में?
    सागर शुरू से साहिल का ही है!
    वर्ना क्यूँ आता यूँ मुड़-मुड़ के?
    नदिया से पूछूँ, बुरा जो ना माने.....
    छोड़ा है उसने भी बालू को अधर में?
    ना नदिया है दोषी, ना कुसूर है सागर का
    प्यादे सभी हैं वक़्त के हाथों में!
    इसलिए...
    मुहब्बत करो ये जान कर ऐ रफीकों,
    ज़रूरी नहीं है मिलन हो क़िस्मत में!
    लिल्लाह!
    ज़िंदगी को सीर्यसली नहीं सिंसिअर्ली लीजिये...... खुश रहिये!
    आशीष

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  9. आशीष भैया ही जवाब दे सकते हैं..
    हम तो कमेंट मार के खाना पकायेंगे.. बहुत भूखा रह लिया इस छोड़ तोड़ जोड़ के चलते... अरे!! दूसरे को फिक्र नही तो हम क्यों करें..

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  10. कुछ लकीरों के आगे उन से भी बड़ी लकीर खींचने कि जरुरत महसूस होती है अक्सर

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  11. जिसके साथ सफर तय करना था
    उसी ने मंज़िल से पहले बांहें छोड दीं.....
    ulti pulti duniya me aisha hi hota hai...
    very nice post..

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  12. जीवन के नाज़ुक पलों को अच्छा संजोया है आपने

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  13. मोनाली जी
    सस्नेह अभिवादन !

    अच्छी कोमल भावनाओं को शब्द दिए हैं आपने

    मैं नदी बन कर जिसमें समाना चाहती थी
    उसी सागर ने साहिल की लकीर खींच दी

    दुर्भाग्य है उस सागर का …

    देखिए , सबको मनचाहा नहीं मिला करता ।

    मुहब्बत की राहों में चलना संभल के
    यहां जो भी आया गया हाथ मल के


    नहीं नहीं , मेरी कविता नहीं , पुराना फिल्मी गीत है … सुना ही होगा आपने ।

    बहरहाल , बढ़िया रचना के लिए बधाई
    और शुभकामनाएं
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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