Tuesday, November 23, 2010
मैं किस्से में बीती हूं...
सभी ये पूछते हैं मुझसे...
कि क्या मसरूफियत हैं मेरी?
भला दिन कैसे कटता है?
अब कैसे कहूं उनसे?
भला वो क्यूं कर मानेंगे?
कि दिन इस सोच में बीता
कि तुमको भूल गई हूं मैं,
और रातें...
...तुम्हारी यादों में!!!
कुछ पहर निकलते हैं सोचने में गुज़री बातें,
कुछ पहर निकल जाते, बातों से किस्से बनाने में!!!
ग़र कभी जुटा कर के मैं हिम्मत कह भी दूं किसी से ये,
तो कुछ हैरान होते हैं, कुछ रह जाते हैं बस हंस कर...
कुछ निकल कर दो कदम आगे,
बढ जाते हैं ये कह कर...
कि क्यूं बनाती हो बहाने तुम निकम्मापन छुपाने के???
भला ये इश्क़ मुश्क़ के किस्से होते हैं बताने के???
जोड के दो-चार शब्दों को कह देती हो तुम कविता...
कैसे भला मानें कि ये सब तुम पर है बीता???
मैं भी कभी हैरान...कभी परेशान होती हूं...
अब समझाऊं भी तो कैसे कि...
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
मैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं...
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मैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
ReplyDeleteआज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं...
waah......
प्रीतम/प्रिया की याद ऐसी ही होती है शायद, जैसा की तुलसीदास जी ने भी कहा है की जब बिजली चमकती ठिया तो श्री राम को सीता की याद आती थी....गोस्वामीजी कहते है..
ReplyDelete"गन घमंड गर्जत नभ गोरा, प्रियाहीन डरपत मन मोरा..."
अभिव्यक्ति अच्छी लगी...
राजेश
जोड के दो-चार शब्दों को कह देती हो तुम कविता...
ReplyDeleteकैसे भला मानें कि ये सब तुम पर है बीता???
मैं भी कभी हैरान...कभी परेशान होती हूं...
अब समझाऊं भी तो कैसे कि...
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
मैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं...
वाह वाह ... बहुत ही सुन्दर शब्द संयोजन ... बेहतरीन और एकदम अलग ढंग से आपने अपने मन की भावनाओं को कविता के रूप में लिख दी ...
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
ReplyDeleteयह पंक्ति दिल के बहुत करीब लगी ...सुन्दर रचना ..
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
ReplyDeleteमैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं...
ज़िन्दगी की हकीकत बयाँ कर दी…………………ये आखिरी की पंक्तियां बेहद पसन्द आयीं।
gahre jajbat ke sath sunder kavita
ReplyDeleteखूबसूरत एहसासों को सुंदरता से पिरो कर भाव प्रवाह अच्छा प्रदान किया है..थोडा कविता की तरह पेश करने का प्रयास करते तो देखने में भी अच्छी लगती.
ReplyDeleteकुछ पहर निकलते हैं सोचने में गुज़री बातें,
ReplyDeleteकुछ पहर निकल जाते, बातों से किस्से बनाने में!!!
यह जिन्दगी का फलसफा है यूँ ही बीतता है ......एक उम्र लगती है दिल को दिल बनाने में ...और जब दिल -दिल बन जाता है तो जिन्दगी का सफ़र खुशनुमा हो जाता है..पूरी कविता सुंदर भाव का सम्प्रेषण करती है......धन्यवाद
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
पहले हड़बड़ी में था, इसलिए फुर्सत से पढने चला आया....
ReplyDelete:)
हम भी आजकल यादों में ही जी रहे हैं..
ReplyDeleteजोड के दो-चार शब्दों को कह देती हो तुम कविता...
ReplyDeleteकैसे भला मानें कि ये सब तुम पर है बीता...
सुन्दर रचना ..
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
ReplyDeleteजैसे सबके दिलों का हाल लिख दिया यथार्थ के धरातल पर ला कर खड़ा कर
बहुत बढ़िया ...
ReplyDeleteलाजवाब ...
मोनाली जी,
ReplyDeleteआपकी प्रेमपरक कविता पढ़ी.
कविता लिखते समय जिस दर्द से आप गुज़री हैं उसकी झलक इसमें मौजूद है.
किसी का एक शेर याद आ गया:-
ये इश्क नहीं आसां ,इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
मोनाली जी,
ReplyDeleteनमस्कार !
मैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं..
बहुत ही सुन्दर शब्द संयोजन........बेहतरीन
आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
ReplyDeleteये लाइनें बेस्ट लगी..बस दिल बाग-बाग हो गया..
किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं
ReplyDeleteमैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं.
बेहतरीन!
सहमी सहमी, चुप चुप सी...बैठी आंगन के कोने मे
ReplyDeleteबचपन भूली, यौवन भूली...घर आंगन के कामों में
पत्नी,मां,बेटी के पद उसकी ज़िम्मेदारी हैं
फिर भी इतनी बेबस दुर्बल क्यूं दुनिया में नारी है//
best one...
bahut khubsurat abhivyakti..
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