Tuesday, November 2, 2010
जीजी की आखिरी चिट्ठी...
"कुछ बोलती क्यूं नहीं? विनय कहां हैं? तु अकेली कैसे आ गयी ससुराल से?"
"मां जीजी को अंदर तो आने दो." मैंने जीजी का बैग हाथ से लेते हुए कहा
"निवी, कुछ तो बोल. कहीं झगड के तो नहीं आयी ना? देख बेटा झगडे हर जगह होते हैं मगर यूं कोई अपना घर छोड देता है क्या? तू सुन भी रही है?"
मगर जीजी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गयी. शायद जानती थी कि अगर बोलेगी भी तो कोई नहीं सुनेगा. और् इसी तरह बिना कुछ कहे एक दिन वो चली गयी.
आज हम सब को छोड कर उसे गुज़रे हुये उसे २० दिन हो गये हैं. उसके कमरे को अब भाभी के लिए खाली करना है. उसके लिए ही जब जगह नहीं थी तो उसके सामान के लिए कहां से आयेगी? तभी एक लिफाफा नज़र में आता है. कोई चिट्ठी है शायद...हां, मां के लिए जीजी की आखिरी चिट्ठी... मां ने उसे सबके सामने लाने को मना किया है. रात को मैं मां के कमरे में कांपते हाथों से वो चिट्ठी खोलती हूं...
मां... तुम्हें याद है हमारा बचपन? जब बाबा नये बस्ते लाये थे? मैं, छुटकी और दादा तीनों को ही वो लाल बस्ता पसंद था मगर वो मेरे हाथ नहीं आया क्योंकि छुटकी छोटी थी तो पहली पसंद उसकी थी और दादा बडे थे मगर तुम्हारी समझदार बेटी हमेशा से मैं ही थी. वो मेरा 'त्याग' का पहला सबक था या शायद तुम्हारी पहली कोशिश मुझे समझाने की कि ज़िन्दगी ऐसे ही कटेगी. और तब से हर दिन ही ना जाने कितने समझौते मैं करती चली गई. ना जाने मेरी कितनी ही चीज़ों से सब अपनी पसंद बीनते रहे और मैंने कभी नहीं जाना कि वो मुझसे क्या छीनते रहे. मैं तब भी त्याग शब्द के मायने से अनजान थी मगर हां कुछ चुभता ज़रूर था जिसे कभी ज़ुबान नहीं दे पाई.मगर दूसरों के लिए खुद की खुशी को नज़रअंदाज़ करने की आदत धीरे धीरे मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई.
और वो दिन तुम भूल सकती हो मगर मैं नहीं कि जब मैंने एम.ए. हिन्दी में करने की इच्छा जताई थी मगर ये डिग्री शायद बाबा के स्टेटस को match नही करती थी और फिर मैंने एम्.बी.ए. किया.मेरी बैक में नौकरी लगने के बाद वो गर्व से सबसे कहते थे कि उनके एक सही निर्णय ने मेरी ज़िन्दगी बना दी. बना दी या बिगाड दी इस बहस में तो मैं कभी पडी ही नहीं..मगर हां बदल तो दी ही थी.
मेरी पसंद तो शायद तिलांजलि देने की आदि हो चुकी थी मगर मेरे शौक को ये सीखना अभी बाकी था मगर सिखाने के लिए कई लोग मौजूद थे और मैं ये भी सीख ही गयी...
बस एक वो ही था जिसने कभी मुझे बदलने की कोशिश नहीं की, खुद ही बदला... वो भी मेरे लिए. और ऐसे में अगर मुझे उस से मुहब्बत हो गई तो इसमें कोई अनहोनी तो नहीं थी. मैं दिन रात सपने सजाने लगी थी उसके साथ घर बसाने के. ठान लिया था कि इस बार सबसे लड जाऊंगी. मगर शायद मैं खुद को जानती नहीं थी. तुमने बस एक बात कही और मेरे सारे सपने झुलस गये. पता नही तुम्हें याद है या नही मगर तुम्हारा कहा हर शब्द मेरे ज़ेहन में तरोताज़ा है.. "चुन लो अगर अपनी ग्रहस्थी की नींव में छुटकी का भविष्य देख सकती हो. सोचा भी है कि तुम्हारे ऐसा करने से उसकी शादी में कितनी मुश्किलें आयेंगी?"
इस एक बात के सिवा तुमने कुछ नहीं कहा और इस एक बात के बाद मैंने भी कुछा नहीं कहा.तुम मुझे कितना अच्छे से जानती थीं ना मां? तुम जानती थीं कि इतना भर कह देना काफी होगा मुझे मेरे सपनों की आहूति देने को विवश करने के लिए.
मैंने अपने प्यार को मेरी और विनय की शादी कि अग्नि में स्वाहा कर दिया.विनय जो तुम्हारी पसंद थे मगर ये शादी उनके लिये भी एक समझौते से ज़्यादा कुछ नहीं थी.
मगर सच कहूं तो तुम पर कभी गुस्सा नही आया क्योंकि तुम खुद ऐसी ही कई आहूतियां देती आई थीं. मेरे और मेरे जैसी हर लडकी के लिए उसकी मां ही तो ऐसे त्याग के आदर्श गढती है...
और बस आज जब ये ख़त लिख रही हूं तो मेरी और विनय की शादी को एक महीना तो हुआ है. मगर ये एक महीना मुझसे सब कुछ ले गया.. मेरी जीने की उमंग भी और मेरी वो बेटी भी जो शायद अपनी मां की आपबीती से डर कर मेरे गर्भ में ही दुबक गई.
नहीं, विनय ने कभी कोई दुर्व्यवहार नहीं किया मेरे साथ, कभी ऊंची आवाज़ में बात भी नही की. बस शादी के कुछ दिन बाद इतना भर कहा था कि उनकी मां के रहने तक ये घर मेरा है मगर मां के बाद मुझे जाना होगा जिससे उनकी पसंद मेरी जगह ले सके. और इसके बाद ना जाने क्यूं जैसे कुछ नहीं रहा. मैं.. जो अपनों की हर ज़्यादती को पीती रही.. उस शख्स से कैसे हार गई जिसे बस कुछ ही दिनों से जानती थी.
मन में कई बार आया कि उनसे पूछूं कि ये सब उस रात क्यूं नही कहा जब फूलों से सजे उस बिस्तर पर मेरे पहले प्यार ने आखिरी सांसें ली थीं? मगर इस सवाल का जवाब मन ने ही दे दिया.. "तुम उस रात मुझे नज़र का टीका लगाना जो भूल गयी थीं"
मैं जानती हूं कि तुम रो दोगी और अनचाहे ही तुम्हारे आंसुओं का ये कर्ज़ मेरे सिर पड गया है. इसे चुकाने को अगले जनम में फिर से तुम्हारी बेटी बन कर आऊंगी बस तब मुझे "त्याग" के मायने मत समझाना...
जीजी का वो ख़त उन सब सवालों के जवाब दे गया जो वो अपने पीछे छोड गई थी. मगर मां नहीं रोयी.. शायद इसलिये कि कहीं जीजी के सिर उसके आंसुओं का कर्ज़ ना चढ जाये...
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jiji ki aakhiri chiththi ne man ko chhoo liya . bahoot hi sunder kahani..........
ReplyDeleteupendra ( www.srijanshikhar.blogspot.com )
मैं ऐसी पोस्ट इसलिये नहीं पढ़ता क्योंकि ये मुझे अन्दर तक झकझोर देती हैं... कुछ लाइनें पढकर छोड़ रहा हूं. बेहद भावुक कर रही हैं>.
ReplyDeleteत्याग.......उफ़ !
ReplyDeleteक्या कहूँ.......दिल भर आया......
ये तो हमारे शिक्षित समाज की व्यथा है...... घूंघट में घुटती स्त्री के बारे में क्या सोचा जाये......
कहानी बहुत सरल दिखती है मगर है नहीं
ReplyDeleteकई सारे पेच हैं जैसे जीजी ने छोटी बहन के बारे में कहे गए संवाद के बाद त्याग जैसी शय से दामन क्यों छुड़ा लिया, फिर क्या विनय इतना नाकारा होगा का सवाल भी मुझे परेशान कर रहा है और अंत में एक ख़त लिख कर चले जाना. मैं इसे फिर से पढ़ कर समझूंगा. कहानी का शिल्प बढ़िया है और भाषा में आपकी कविताओं का असर दिखता है.ये मुझे बहुत अच्छा लगा. बधाई.
@Upendra ji n Pradeep ji...thnx
ReplyDelete@Indian Citizen... Munh mod lena bhi ek achha tareeka h..m bhi aksar yehi karti hu :)
@Kishore ji... aapke sawaal bata rahe hain k ek baar fir meri kahaani likhne ki koshish dher ho gayi h Aur jahaan tak Vinay ka sawaal h to aise log bhi hote hain... hausla afzaayi aur margdarshan k lie Thnk u :)
ये कहानी तो सुबह ही पढ़ ली थी लेकिन कम्पूटर में अचानक आयी तकनीकी खराबी ने टिपण्णी करने से रोक दिया... आपने सुबह सुबह मौसम गमगीन बना दिया ...पता यह क़ुरबानी सभी को देनी होती है जीवन में..न जाने कितनी खुशियों का गला घोटना पड़ता है अपने से छोटे भाई-बहनों के भविष्य के लिए... हाँ लड़कियों से कम ही.... बहुत ही भावुक कर गयी आपकी ये कहानी....
ReplyDeleteमेरी नयी कविता पर आपका स्वागत है...
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी कथा ... आज भी हमारे समाज में नारी कि यही हालत है ...
ReplyDeleteमोनाली यह क्या है आपबीती या कोई कहानी। पढ़कर गहरे तक अवसाद से भर गया। कहानी है तो बधाई कि आपने जिस तरह से इसे लिखा वह दिल को छूती है। मुझे यह याद आ रहा है कि आपकी पहले की किसी कहानी पर मैंने कुछ टिप्पणी की थी। तब मुझे उसमें कुछ कमी लगी थी। लेकिन अगर यह कहानी है तो एक परिपक्व कहानी की तरफ बढ़ती हुई। भावों और शब्दों का चयन बहुत मार्मिक है।
ReplyDeleteबहुत खूब मन के तारो को झकझोरने वाली रचना पढकर आज के मौसम की ही तरह दिल भी रो पड़ा (वैसे आपको बता दू की हमारे शहर का मौसम पिछले कुछ दिनों से नमी लिए हुए है) सार्थक रचना ...दीप माला पर्व की आपको बहुत बहुत बधाई हो .....................
ReplyDeleteहिलाकर रख दिया………………कितना कुछ कह दिया जो भी अनकहा रह गया था……………वो भी सुन लिया………………………बेहद मर्मस्पर्शी……………॥
ReplyDeleteमन को झकझोरने वाली रचना
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं ...
बेहद मार्मिक !
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी कथा...आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा...
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ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपको और आपके परिवार में सभी को दीपावली की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं ! !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
hi... happy diwali and happy new year
ReplyDeleteबेहद भावुक और मन को झकझोरने वाली रचना.... मोनाली मर्मस्पर्शी कथा.... दीप उत्सव की शुभकामनाएं !
ReplyDeleteदीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ... ...
ReplyDeleteमोनाली.......ये सिर्फ एक कहानी है या सच ???? दिल पर बहुत गहरी चोट कर गया. एक एक संवाद मानों सुन रही हूँ क्योंकि बचपन में या जीवन में हम भी कहीं न कहीं इस त्याग की मूरत बनने की श्रेणी में आते रहे हैं. बहुत कुछ सोच रही हूँ, याद कर रही हूँ. इतना विश्वास के साथ कह सकती हूँ की जब त्याग अपनी सीमा पार कर जाता है तो विद्रोह तो होता ही है अब वो चाहें जीवन से हो या घर परिवार से
ReplyDeleteIs katha ke madhyam se aapne samajik manosthitiyon ka kaarunik chitran kiya hai.Vastutah jiji namak paatr ki swatantrta ka hanan hua jo nahin hona chahiye tha .
ReplyDelete@Shekhar ji, Indraneel ji, Amarjeet ji,Vandana ji,Shivam ji, Sanjay ji, fidaus ji, Monika ji n Vijay ji.. THNKS a TON...
ReplyDeleteAur Rachna ji n Rajesh ji.. ise AADHI HAQUIQAT AADHA FASANA wali category me daala ja sakta h shayad :)
Simple yet touching.
ReplyDeleteno words.. ये कमेंट सिर्फ इसलिए ताकि सनद रहे की मैंने इसे पढ़ा है..
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