पता नहीं ये कडवाहट का पतझड कब आया और
खिलखिलाहट अधरों से सूखे पत्तों की तरह झर गई
अब तो उन पत्तों के निशान भी नहीं मिलते...
बैठी रहती हूं दिन भर कथित अपनों से घिरी
मगर जिनसे घण्टों तक करूं बेवजह की बातें
ऐसे तो कोई इंसान नहीं दिख्ते....
दूर तक चली जाती हूं जानी पहचानी गलियों में
मगर कजिनके अंदर से आये ठहाकों की आवाज़
मुझको तो ऐसे अब मकान नहीं दिखते...
चुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...
बहुत ख़ूबसूरत नज़्म
ReplyDeleteक्या कहूँ बहुत भावुक कर गयी आपकी पोस्ट. पर ये ही आज का सत्य है.
ReplyDeleteआभार
bahut khubasurat rachna....man ke jhrokhe se nikali rachna.......main ye title suggest karanaa chaahunga---ve jo nahi milate...
ReplyDeleteआपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा नज़्म लिखी है।
ReplyDeletekabhi kabhi title dena mujhe bhi mushkil kaam lagta hai... :) :)
ReplyDeleteसच कहा है आपने..लेकिन मेरा एक शेर है:
ReplyDeleteसोच को अपनी बदल कर देख तू
मन तेरा जब यार मुरझाने लगे
सोच बदलने से सब कुछ बदल जाता है...
नीरज
sundar bhav.
ReplyDeleteman ki bechainiyan aakhir kahan le jaaoon
koi mile apna to udel kar khali ho jaaoon
tittle "apnepan ki talaash "
बहुत खूब...भावपूर्ण रचना, शब्दों का सटीक प्रयोग.
ReplyDeleteइसका शीर्षक "मेरे मन की बात" कैसा रहेगा?
Bahut hi sunder rachna. Apke blog par aaker bahut hi achha lagaa.
ReplyDeleteबहुत खूब !!...खुबसूरत भाव !!
ReplyDeleteA suggestion from me for the title of dis poem: "Banjar Mehfil"
ReplyDeleteI loved ol da suggestions... bt I found it most relevant bt stl thnk u ol... :)
ReplyDeletebqhut hi umda rachna...
ReplyDeleteचुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...
sahi kaha aapne... ab muskaan milna mushkil ho gaya hai ...