Friday, July 2, 2010

पाप और पुण्य

कमरे की खामोशी में उनकी आंखों से दर्द बहा करता है
और मैं उसे चुप्चाप पी लिया करती हूं
करते हैं जब सब उनसे अपनेपन की बातें...
झूठे दिखावे के कडवे किस्से और एह्सान के तौर पर जागती रातें...
तभी कोई आंसू ना ढुलक जाये...
इस डर से पलकों के कोर-सी लिया करती हूं

ऐसा भी नही कि बेहद प्यार है हमें उनसे या उनकी कमी बेहद खलेगी
बस ये सच चुभता है कि जाडों में अंगीठी फिर ना जलेगी

मगर इस सब को हटा के परे,
मैं ईश्वर से उनकी मौत की प्रार्थना किया करती हूं
कोंचती सुइयों और ग्लूकोज के सहारे पुण्य बटोरते हैं सभी
और मैं उनकी मौत की दुआ का पाप ओढ लिया करती हूं

13 comments:

  1. आपकी रचना कि अंतिम पंक्तियाँ पढ़ मन द्रवित हो गया ....एक ऐसा सच जब मरीज़ कष्ट उठा रहा हो तो यही दुआ निकलती है...मन से..

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  2. वैरी बिउटिफुल क्रीयेशन .....

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  3. कितना सच है !!!!और उतना ही दर्द!!!!!1

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  4. hmm, kahna theek nahi hoga.
    maun ko padh lijiye

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  5. मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  6. मनुष्य के जीने की चाह भी गजब की है, भले ही वह अनेक कष्टों को झेल रहा हो। देखने वाला व्यक्ति सिहर उठता है, मन ही मन प्रार्थना करने लगता है भगवान इसे उठा ले। इन सभी बातों को आपने पाप और पुण्य की संज्ञा देते हुए अपनी कविता मे सुन्दर ढंग से पिरोया है। बधाई।

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  7. आपने कुछ दुखभरी बातों को उकेरा है ... ऐसी बातें जो हम न सोचना ही बेहतर समझाते हैं ... फिर भी सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना !

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  8. आपकी रचना ने मेरी आँखों के सामने भी एक ऐसा चेहरा सामने ला खडा कर दिया जिसके लिए जीवन मृत्यु से भी बदतर है और कभी कभी दिल पर पत्थर रख कर उनके लिए भी यही दुआ निकलती है ! बेहद मार्मिक रचना !

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  9. बेहतरीन रचना है आपकी... नयी सोच और नयी उपमाओं के साथ....बहुत बहुत बधाई...
    नीरज

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  10. बिल्कुल सही कहा……………ऐसा सोचने को इंसान मजबूर हो जाता है जब किसी अपने को ऐसे हाल मे देखता है।

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