Thursday, September 29, 2011

कहानियों की किस्में...

कुछ कहानियां या कहना चाहिये कि ज़्यादातर कहानियां खुद को और उन कहानियों के पढने वालों को सुकून बख़्शने के लिए लिखी जाती हैं. ये कहानियां पढ कर आपको अहसास होता है कि इसी दुनिया में कहीं सुख भी exist करता है. वो सुख जो आपको छलावा सा लगता है वो वाकई में कुछ लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा होता है. ये सुख भरी कहानियां आपको आपके बचपन की... मां की लोरी में आपके हिस्से की याद दिलाती हैं ये कहानियां आपको उस वक़्त में ले जाती हैं जब ऐसा कोई नाम आपको मुश्किल से याद आता था जिसे आपसे नफरत करने वालों की सूची में लिख कर उसे मनाने के तरीके सोच सकें. ऐसी कहानियां सर्दी में किसी कम्बल की तरह आपके गिर्द लिपट जाती हैं. आप इन कहानियों से connect नहीं कर पाते फिर भी ये आपकी पसंदीदा कहानियों में से एक होती हैं. और यद्यपि ये कहानियां आपको सिर्फ खुशी देती हैं फिर भी आप इन्हें तभी पढते हैं जब आप पहले से ही खुश होते हैं. ग़मज़दा होने पर आप इन कहानियों को एक मुस्कुराहट की आस में नहीं उठा लेते. आप इन कहानियों अपने ग़म की परछाईं से भी दूर रखना चाहते हैं कि कहीं ये अपना असर ना खो दें...

और फिर भी अगर किसी उदास शाम में उन खुश्नुमा कहानियों में से किसी एक को पढ लेते हैं तो उनका असर जाता रहता हैं. आपकी उदासी का एक हिस्सा उस कहानी के ऊपर गर्द की तरह बिछ जाता है और फिर उस कहानी की खुशी इतिहास बन जाती है क्योंकि अगली बार उस कहानी को छूते वक़्त आपको अपनी उदास शाम भी याद आती है.


फिर कुछ दूसरे किस्म की कहानियां होती हैं. ये कहानियां सच्चाई के इस कदर करीब होती हैं मानो पुराने घर के ४x४ फुट के बाथरूम में आपके हाथ के बेहद करीब से गुज़र जाने वली छिपकली. ये दूसरे किस्म की कहानियां आपको आपकी ज़िन्दगी की उस हक़ीकत के नज़दीक ले जाती हैं जिसे आप उस छिपकली की तरह ही नज़रअन्दाज़ कर देना चाहते हैं जबकि आपको पता है कि ये हक़ीकत ठीक... ठीक उस छिपकली कि तरह ही harmless है मगर आप दोनों से ही खूब बच कर निकल जाना चाहते हैं. इस हक़ीकत के आपके ज़ेहन से छू जाने पर एक अजीब किस्म के लिज़लिज़ेपन का अहसास होता है. आप खुद से घिन या नफरत या ऐसा सा ही कुछ करने लगते हैं और ये अहसास पानी की कई बाल्टियां ज़ाया करने के बाद भी धोया नहीं जा सकता. आप selective memory loss जैसे किसी चमत्कार की उम्मीद करते हैं. ये दूसरे किस्म की कहानियां आपके घिनौने सचों को किसी चुम्बक की तरह आकर्षित करती हैं और आप अपनी हक़ीकतों के रौशनी में आ जाने के ख़याल से ही बेतरह बौखला जाते हैं. इस किस्म की कहानियां आपकी गर्दन के चारों तरफ लिपट जाया करती हैं. सांस ऐसे भारी होने लगती है जऐसे सारी कहानी भागते हुये पढी गई है. उंगलियों के बीच कलम को दबाते हुये आप इसे तोड देना चाहते हैं. पता नहीं क्यों आपको लगता है कि ऐसा करना कहानी के असर को ख़त्म कर देगा. लेकिन ना कलम ही टूटती है और न कहानी का असर...

इन कहनियों को पढने का कोई सही वक़्त नहीं होता. ग़म या खुशी दोनों में से किसी भी मानसिकता में आप इन्हें पढें, इन्हें पढने के बाद आप सिर्फ खुद से नफरत ही करते हैं. कई बार खुद से वादे कि अब इन कहानियों को नहीं पढेंगे.. और कई बार ताज्जुब कि लेखक आपकी ज़िन्दगी को इतने करीब से कब देख गया?

ख़ैर... आप खुद से किये गये वादों की तरफ से मुंह फेर कर इन कहानियों को कई बार पढते हैं. शायद तब तक जब तक खुद से नफरत करते-करते थक ना जायें और फिराप खुद को समझाना सीख जाते हैं कि लेखक आपको जानता नहीं तो ज़ाहिर है कि ये आपकी कहानी नहीं और अगर ये आपकी कहानी नहीं तो तय है कि आप अकेले नहीं हैं जो इस कहानी जैसी गलतियां करते हैं या कर चुके हैं. भीड में ध्क्के खाने का ख़याल, भीड से अलग होने के ख़याल से कम डरावना होता है. तो जब आप वापस खुद को भीड का हिस्सा महसूस करने लगते हैं तो ये अवसाद, जो इन दूसरे किस्म की कहानियों से उपजता है, खुद-ब-खुद छंट जाता है. और ऐसा हो इसके लिये इन कहानियों का कई बार पढा जाना निहायत ज़रूरी है.

इन कहानियों कि सफलता का आधार शायद ये इंसानी फितरत है जो खुश होने पर और खुशी तलाशना चाहती है और उदास होने पर अधूरी कहानियों.. अंधेरे कमरों और उदास ग़ज़लों में और भी ग़म ढूंढा करती है.

ख़ैर.. फिलहाल ये दो ही किस्में... शयद फिर कभी किसी और किस्म की कहानी के बारे में लिखूं या पढूं... या शायद नहीं भी

14 comments:

  1. कहानियों का अच्छा विश्लेषण ..

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  2. कल 01/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. बारीकी से विश्लेषण करा है कहानियों का..

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  4. सारगर्भित vishay परोसने के लिए आभार

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  5. अच्छा विश्लेषण , आभार......

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  6. मोनाली जी प्रणाम !
    कहानियों का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है आपने...बधाई हो ...
    साथ में कुछ कहानियों के उदहारण दे दिए जाते तो लेख और उपयोगी बन पड़ता ...
    आपको सपरिवार नवरात्रों की शुभकामनाये...

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  7. तबियत तो ठीक है?
    चिंता कर लूं?
    आशीष
    --
    लाईफ़?!?

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  8. मोनाली जी वाह क्या कहानी विश्लेषण प्रस्तुत किया है. सुंदर आलेख.

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  9. मोनाली जी, सुख का अस्तित्व तो है. इसे हर वक़्त महसूस भी किया जाता है...लेकिन चंचल मन या मानने से इनकार करता है. इसलिए सुख एक छलावा प्रतीत होता है...खासकर अपने लिए जब जब इसकी कामना करते हैं. कहने का मतलब यह है कि सुख सिर्फ़ पाने का नाम ही नहीं है...त्याग में भी सुख है... किसी की सेवा और इस से भी इतर जब आप अलौकिक शक्ति से जुड़ जाते हैं तब जो ख़ुशी...जो आनंद मिलता है...वह अनवरत कायम रहता है...ज़रूरत उस अवस्था में बने रहने की है...
    कहानियों का बारीकी से अध्यन और इसकी व्याख्या का तरीका सराहनीय है. आपने बिलकुल सही लिखा है..
    कहनियों को पढने का कोई सही वक़्त नहीं होता. ग़म या खुशी दोनों में से किसी भी मानसिकता में आप इन्हें पढें, इन्हें पढने के बाद आप सिर्फ खुद से नफरत ही करते हैं. कई बार खुद से वादे कि अब इन कहानियों को नहीं पढेंगे.. और कई बार ताज्जुब कि लेखक आपकी ज़िन्दगी को इतने करीब से कब देख गया?

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  10. bahut accha vishleshan kiya hai kahaniyon ka aapne monali ji .....badhai

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  11. अनूठी पोस्ट ....
    शुभकामनायें आपके लिए !

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  12. कहानियों की बकाया किस्मों के बारे में आपकी राय जानने का इंतज़ार रहेगा।

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