Tuesday, September 13, 2011

पकी उमर के कच्चे ख़याल...


तुम्हारे साथ रात गये तक जागना मानो एक आदत सी बन गई है. ये मुई बुरी आदतें लगती भी तो ज़रा जल्दी ही हैं. वरना मैं, जिसके लिए नींद से बडी नियामत दुनिया में कोई दूसरी ना थी, कितनी आसानी से रात रात भर जागना सीख गई थी. तुम्हारी फिज़ूल, बेसिरपैर की बातें सुनते हुये कभी पलक भी झपकी हो ऐसा मुझे तो याद नहीं पडता. और अब जब सोचती हूं कि जल्दी सोने की आदत डाली जाये तो क्या मज़ाल जो ये आदत सुधरे?

एक ज़माना भी तो बीत गया. ऐसा नहीं कि तब तुम्हारा ख़याल नहीं था मगर उस ख़याल में मां जैसी फिक्र नहीं थी.बस अल्हड ज़िदें थीं.. कितनी ही बार तो बस तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए तुम्हें नींद से जगा देती थी. और कैसे अजीब से ही तो बहाने बनाया करती थी. कभी कोई मनगढंत डरावना सपना.. कभी कोई झूठी बीमारी. जाने तुम इन बहानों का सच समझ जाते थे या नहीं मगर मुझे बहलाने में कोई कसर नहीं रखते थे. उन रातों में मीलों दूर का सफर तय कर के तुम्हारे आलिंगन मुझे पुरसुकून कर जाते थे. फोन पर शब्दों में ढले तुम्हारे होठों के वो उष्ण उत्ताप मुझे जड बना जाते थे. जाने कैसी सी सिरहन होती थी कि कुछ बोलते ना बनता था. और जब तुम हंस कर पूछते थे कि, "क्या हुआ? फ्यूज़ उड गया?" तब मेरी आखों के सामने तुम्हारा शरारती चेहरा साकार हो जाता और मैं मुस्कुरा कर तकिये में सिर धंसाने के सिवा कुछ ना कर पाती.

तुम्हें कच्ची नींद से जगा देने का guilt जब जब सिर उठाता मैं उसे समझा देती कि बस एक class ही तो bunk करनी होगी नींद पूरी करने के लिए. कितनी बेफ़िक्री थी तब के उस अंदाज़ में...

और अब... जब एक करवट का भी फासला नही रहा हम दोनों के दरमियान तो जाने ये कैसी अजनबी सी झिझक हम दोनों के बीच पसरी रहती है इस बिस्तर पर. कितनी ही बार तुम सरेशाम सो जाते हो या remote हाथ में लिये टी.वी. में सिर खपाये रहते हो मगर जाने क्यूं अब तुम्हें छेडने की हिम्मत नहीं होतीं. अपने बचपने को तुम्हारी थकावट की लोरी गा कर सुला देती हूं जबकि जानती हुं कि तुम थके नहीं हो... व्यस्त तो बिल्कुल भी नहीं... और मेरी शैतानियों पर नाराज़ होना तो तुमने जाना ही नहीं फिर भी जाने क्यूं तुम्हें जगाये रखने के ना तो बहाने ही मिलते हैं ना ही जगाये रख कर करने लायक बातें.

झूठी बीमारी.. डरावने सपनों के बहाने तुम एक नज़र में पकड लोगे और फिर ऐसी आंखमिचौली में क्या ही मज़ा जिसमें मैं तुम्हें पहले ही बता दूं कि मैं साथ वाले कमरे में छिपी हूं. मज़ा तो तब है जब तुम्हें बिना बताये छुप जाऊं.. तुम दफ्तर से आ कर घर के हर कमरे में मुझे तलाशो.... बेतरह परेशान हो जाओ और जब थक हार कर हाथों में सिर लिये सोफे पर निढाल हो बैठ जाओ तब मैं हौले से तुम्हारी पलकों पर अपनी हथेलियां रख कर तुम्हें चौंका दूं. और मेरे सुनाये हज़ार झूठे सपनों के जवाब में मुझे खो देने का सच्चा डर लिए तुम मुझे बांहों में भींच लो... एक बार फिर मौन मुखर हो जाये और इस बार तुम्हारे होठों पर मेरे होठों कि छुअन से तुम्हारा फ्यूज़ उड जाये..

मगर ये भी आखिर है तो मेरी सोच ही... अब क्या किसी भीड भरे बाज़ार में खो जाने की मेरी उमर है जो तुम मुझे खोने से डरो. अब तो ज़्यादा से ज़्यादा इस बिस्तर पर तुम्हारे सिरहाने बैठी मैं सोच में ही खो सकती हूं. दिन में गैस के चूल्हे के सामने तपने के बाद, रातों में मैं कुछ ऐसे ही किस्से पकाती हूं... अपनी सोचों की उमस भरी गर्मी से तपा करती हूं. कई बार कुछ ज़ख़्म भी पका करते हैं लेकिन क्या ज़रूरी ही है कि जो पकाया जाये वो परोसा भी जाये???

19 comments:

  1. मन की भावनाओं को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है ... सच कैसे कैसे ख़याल पकाए जाते हैं जिन्हें परोसा नहीं जाता .

    ReplyDelete
  2. मैंने इस निवाले को हर बार चखा है, यूँ कहें निगला है .... स्वाद और निगलने का दर्द पता है

    ReplyDelete
  3. सार्थक लेखन के लिए बधाई

    ReplyDelete
  4. रातों में मैं कुछ ऐसे ही किस्से पकाती हूं... अपनी सोचों की उमस भरी गर्मी से तपा करती हूं. कई बार कुछ ज़ख़्म भी पका करते हैं लेकिन क्या ज़रूरी ही है कि जो पकाया जाये वो परोसा भी जाये?

    वाह वाह बहुत सुंदर. क्या विचारों को डोर में बांधा. एकदम अद्भुत. बधाई.

    ReplyDelete
  5. ओह! बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति.
    सार्थक लेखन के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

    ReplyDelete
  6. mai nahi janti ke aapne ye sab battein kyun likhi hai, but jo bhi likha hai dil ki gehrai se likha hai or ye dil ko chu gaya

    ReplyDelete
  7. कई बार कुछ ज़ख़्म भी पका करते हैं लेकिन क्या ज़रूरी ही है कि जो पकाया जाये वो परोसा भी जाये?
    बहुत खूब कहा है ...।

    ReplyDelete
  8. वाह ...बहुत खुबसूरत अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  9. गहरी भावपूर्ण अभिव्यक्ति ......

    ReplyDelete
  10. सचमुच ही पकी उमर के कच्चे खयाल.अति सुंदर.

    ReplyDelete
  11. bahut umda
    sach me baht kuchh pakta rehta hai mann me pakki umar ke akachche khayal........ sateek title hai

    ReplyDelete
  12. बहुत खुबसूरत अभिव्यक्ति......

    ReplyDelete
  13. हृदय में अंकित अतीत के ये शब्दचित्र जीवन के संबल बन जाते हैं।

    ReplyDelete
  14. वाह वे क्या दिन थे, और आह अब ये दिन । सुंदर प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  15. बहुत खुबसूरत खयाल!

    ReplyDelete
  16. रीयल जि़ंदगी की रील को रिवाइंड बैक करके देखना एक सुखद अहसास है।
    काव्यमयी सुंदर प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  17. अपनी सोचों की उमस भरी गर्मी से तपा करती हूं. कई बार कुछ ज़ख़्म भी पका करते हैं लेकिन क्या ज़रूरी ही है कि जो पकाया जाये वो परोसा भी जाये???
    कितने खयाली पुलाव हम पकाते हैं पर परोसते कहां हैं ।

    ReplyDelete
  18. Sach batau,
    kahani ne suru se hi apne agos me le liya tha.
    antim pankti ne to mano dil me jagah hi bana li.

    abhar
    apka blogg pashand aya
    anusarad kar raha hun...!

    www.ravirajbhar.blogspot.com

    ReplyDelete