यूं तो सब कुछ तुमसे साझा किया है फिर भी एक बात रह ही गई. इसलिये नहीं कि याद नहीं रही बल्कि इस्लिये कि कभी बताने का मन ही नहीं हुआ कि तुम हंस ना दो हमारे बचपने पर.
कई साल पहले.... जब हमारा प्रेम कच्चा ही था और हम दोनों भी कोई खास समझदार नहीं थे तब मिट्टी के एक छोटे से कुल्हड पर clay से अप्ना नाम तुम्हारे नाम के साथ लिखा था. उस वक्त तुम्हारा और अपना नाम साथ देख कर जितनी पुलकन होती थी उतनी तो शायद हमारी शादी का invitation card देख कर भी नहीं हुई होगी.
जानते हो? तब सारे घर से छुपा कर उसे ऐसे रखते थे मानो सूखा ग्रस्त गांव के किसी किसान को एक टुकडा बादल मिल गय हो. रात में सबके सो जाने के बाद एक बार उसे छू कर ज़रूर देखते थे.. शायद मुस्कुराते भि हों. हर घण्टे दो घण्टे में देख के आते थे कि सही सलामत तो है. जाने क्यूं ये डर था कि इसके चटकने पर हमारा रिश्ता भी दरक जायेगा. उन दिनों तुमसे ज़्यादा मेरी सोच पर वो कुल्हड काबिज़ था. बरसों इस डर को जीने के बाद हमने तय किया था कि इक रोज़ हम दोनों के नाम किसी पक्के पत्थर पर गढ़वा लेंगे.
फिर बरस दर बरस बीतते गये और जाने किस किस के आशिर्वाद फले कि तुम और मैं... हम बन ही गये. हमारी साझी छत वाले आशियाने के बाहर जब पहली बार उस लाल पत्थर पर हम दोनों का नाम साथ देखा थ तो मेरे आंसू छलक आये थे. तुम्हारे लाख पूछने पर भी जो वज़ह तुम्हें तब नहीं बतायी थी वो शायद आज मालूम हो गई होगी.
उस दिन के बाद मैं निश्चिंत हो गई. हर डर से आज़ाद ... तुम्हें सहेजना मानो भूलती सी गई. मग़र उस रोज़ जब उस लाल पत्थर को चटके देखा तो मानो सारे डर वापस ज़िन्दा हो गये. भागती हुई तुम्हें बताने अन्दर आई थी.. तुम कुछ गुनगुनाते हुये shaving कर रहे थे और तब ना जाने क्यूं ये खयाल आया था कि तुम जो इतने पास दिखते हो.. कहीं दूर तो कहीं दूर तो नहीं चले गये...
वैसे तो बचपन से ही मां से कुछ share करने की आदत नहीं थी मगर उस रोज़ लगा कि उनके सिवा कोई भी इस डर को समझ नहीं पायेगा. फिर हमारी बात सुन कर उन्होंने भी कोई response नहीं दिया.. बस कहने लगीं कि कला घर आ जाना, तुम्हारे लिये राजमा चावल बना कर रखेंगे. खुद पर इस कदर खीझ उठे थे कि बताया ही क्य़ूं जबकि पता था कि वो नहीं समझेंगी. कोई और दिन होता तो शायद phone पर ही झगड पडते मगर तब केवल उनसे अगले दिन मिलने की हामी भर कर call disconnect कर दिया था.
हमारे पहुंचने पर भी मां ने हमारी उलझन का कोई झिक्र नहीं किया. अपने दामाद और विदुशी की ही फिक्र थी बस उन्हें. लौटते वक्त हमेशा की तरह उपहारों के कुछ डिब्बे हमारे हाथ में थमा दिये थे. अब हम भी ना-नुकुर की formality में नहीं पडते थे. पता था कि हमारी शादी के सात साल बीत जाने के बाद भी आंसू उनकी पलकों के कोर पर ही रहते हैं.
घर वापस आ कर gifts देखने की कोई उत्सुकता नहीं थी मगर विदुषी school से आते ही हर डिब्बा खखोलने लगी थी कि नानी के खज़ाने का कौन सा रतन इस बार उसके हाथ लगा है.
मैं रसोई में थी जब उसकी आवाज़ आई; "Its lovely!!! ये तो मैं ही रखूंगी मां"
और तब मन मां से लिपट जाने को हुआ जब देखा कि ये तो वही मिट्टी का कुल्हड है जिस पर कच्ची उमर में मैंने हमारे नाम लिख दिये थे. साथ में मां का एक ख़त भी था...
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बडकी,
प्रेम सदा बांधा नहीं जा सकता और खोने के डर की चरखी पर लिपटे शक के धागों से तो कतई नहीं.
उसे उडने दो... उन्मुक्त आकाश में. ग़र बांध ही सकती हो तो बांध लेना प्रेम की चरखी पर लिपते विश्वास में.
शायद आज तुम्हें ये शिकायत न हो कि मां तुम्हें समझ नहीं पाती कभी. और अब जबकि विदुषी तुम्हरी ज़िन्दगी में है तो मां को समझना तुम्हारे लिए आसान होगा.
तुम्हारी,
मां
उस शाम के धुंधलके में मां के बुढापे से कांपते हाथों की लिखावट मेरा हर डर चुरा कर ले गई. और रही-सही कसर विदुषी के पढने की मेज़ पर रखा वो मिट्टी का कुलहड कर रहा है जो चाहे खुद कच्चा हो मगर मेरी समझ को पकाने के लिये खुद मद्दम आंच सा तप रहा है.