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जब कभी मैं सोचती हूं...
तुम्हारी वो सितार की झंकार सी बातें...
म्रदु कोमल क्षणों की गवाह बनी रातें...
तुम्हारे किस्से... तुम्हारी हंसी...
कल के स्वप्न... आज के प्रयत्न...
डर के जंगल में रात की रानी सा महकता तुम्हारा सानिध्य...
उस पल मैं चाहती हूं कि ये सब कुछ देर और ठहर जाये...
हो कर तेरी हंसी के घेरों में कैद, मेरा वजूद बेतरह बिखर जाये...
तब...
ना जाने ये रात किस जल्दी में होती है?
मेरी लाख मिन्नतों के बाद भी, कोई पल... एक पल से लम्बा नहीं होता...
भागी चली जाती है मेरे सपनों को रौंद कर
और बिखेर देती है सूरज की लालिमा मेरे कमरे में,
मानो सिन्दूर यहां फैला हो...
मेरे सपनों का प्रवाह पहले थमता फिर टूट जाता है,
मानो रातों रात बना और बिगडा जिन्नों का कोई मेला हो...
मगर...
जब भी मैं सोचती हूं...
मेरी कोई गयी गुज़री हरकत...
तेरे प्यार की झीनी चादर से झांकती कोई नफरत...
मेरी गलती... मेरे पछतावे...
मेरे गुनाहों के रेशमी फंदों के कसते धागे...
मेरी आत्मग्लानि के ज्वालामुखी से निकलते, हमारे प्यार को कुचलते.. कंकड, पत्थर और लावे...
उस पल में दुआ करती हूं कि बातों का हर प्याला रीत जाये...
अमावस से भी अंधेरी ये चांदनी रात बस किसी तरह बीत जाये...
मांगती हूं कि...
सूरज का उजाला हो...
तेरे विश्वास की नरमी से शीतल होती मेरे पश्चाताप की ज्वाला हो...
एक ऐसी दुनिया जहां सब हो... श्वेत...धवल... उज्जवल...
ना कोयला भी वहां काला हो...
तब...
ना जाने क्यूं ये रात सुस्ती ओढ लेती है?
कालिख से भी गहरी कोई कालिमा मुझे घेर लेती है...
हर पल एक सहस्त्राब्दि में बदल जाता है और...
तुम्हारे प्रेम को हर नज़र से बचाने का...मेरी मन्नत वाला ताबीज़...
मेरी करनी के चलते मेरे देख्ते देख्ते पिघल जाता है....