Monday, July 19, 2010

बंजर महफिल


पता नहीं ये कडवाहट का पतझड कब आया और
खिलखिलाहट अधरों से सूखे पत्तों की तरह झर गई
अब तो उन पत्तों के निशान भी नहीं मिलते...

बैठी रहती हूं दिन भर कथित अपनों से घिरी
मगर जिनसे घण्टों तक करूं बेवजह की बातें
ऐसे तो कोई इंसान नहीं दिख्ते....

दूर तक चली जाती हूं जानी पहचानी गलियों में
मगर कजिनके अंदर से आये ठहाकों की आवाज़
मुझको तो ऐसे अब मकान नहीं दिखते...

चुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...

13 comments:

  1. बहुत ख़ूबसूरत नज़्म

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  2. क्या कहूँ बहुत भावुक कर गयी आपकी पोस्ट. पर ये ही आज का सत्य है.
    आभार

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  3. bahut khubasurat rachna....man ke jhrokhe se nikali rachna.......main ye title suggest karanaa chaahunga---ve jo nahi milate...

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  4. आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा नज़्म लिखी है।

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  5. kabhi kabhi title dena mujhe bhi mushkil kaam lagta hai... :) :)

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  6. सच कहा है आपने..लेकिन मेरा एक शेर है:

    सोच को अपनी बदल कर देख तू
    मन तेरा जब यार मुरझाने लगे

    सोच बदलने से सब कुछ बदल जाता है...
    नीरज

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  7. sundar bhav.


    man ki bechainiyan aakhir kahan le jaaoon
    koi mile apna to udel kar khali ho jaaoon

    tittle "apnepan ki talaash "

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  8. बहुत खूब...भावपूर्ण रचना, शब्दों का सटीक प्रयोग.
    इसका शीर्षक "मेरे मन की बात" कैसा रहेगा?

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  9. Bahut hi sunder rachna. Apke blog par aaker bahut hi achha lagaa.

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  10. बहुत खूब !!...खुबसूरत भाव !!

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  11. A suggestion from me for the title of dis poem: "Banjar Mehfil"

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  12. I loved ol da suggestions... bt I found it most relevant bt stl thnk u ol... :)

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  13. bqhut hi umda rachna...
    चुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
    पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
    इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...

    sahi kaha aapne... ab muskaan milna mushkil ho gaya hai ...

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