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पता नहीं ये कडवाहट का पतझड कब आया और
खिलखिलाहट अधरों से सूखे पत्तों की तरह झर गई
अब तो उन पत्तों के निशान भी नहीं मिलते...
बैठी रहती हूं दिन भर कथित अपनों से घिरी
मगर जिनसे घण्टों तक करूं बेवजह की बातें
ऐसे तो कोई इंसान नहीं दिख्ते....
दूर तक चली जाती हूं जानी पहचानी गलियों में
मगर कजिनके अंदर से आये ठहाकों की आवाज़
मुझको तो ऐसे अब मकान नहीं दिखते...
चुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...