Tuesday, June 8, 2010

हम दोनों लडकी हैं


"मां ये काशी सडक पर क्यूं रहती है?"
"क्या पता बिटिया...जाने कौन अभागिन है और भाग्य का कौन सा मज़ाक उसे यहां अनजानों की बस्ती में खींच लाया है?"
"बिरजू काका कह रहे थे कि तुम उसे रोटी देती हो?"
"हां री, जब इतने लोग इस हवेली में मुफ्त की रोटी तोड रहे हैं तो ये पगलिया क्यों नहीं?"
"मां तुम काशी को पगलिया ना कहा करो"
"लो कर लो बात... अब पगलिया को पगलिया ना कहें तो क्या सयानी कहें?"

मां की ये व्यंग्य भरी मुस्कान हमसे सहन नहीं हुई और हम छत पर आ गये. मौसम साफ है, हल्के हल्के बादल हैं मगर बिरजू काका कह रहे थे कि बारिश नहीं होगी अभी. चांद लुकाछिपी का खेल खेल रहा है.बादलों की ओट से झांकता है और तारों को देख कर फिर से छिप जाता है. और काशी...वो भी तो अपनी फटी चुनरी के झरोखों से हमें देखती है और फिर छुप जाती है.

ओहो...ये काशी का फितूर उतर क्यूं नहीं जाता हमारे दिमाग से? कितना अच्छा मौसम है... ऐसे ही बादलों में तो हम और बडे भैया अपनी कहानी के चरित्र गढ़ा करते थे. अब तो बडे भैया भी बडे शहर जा कर हमें याद नहीं करते. बाबूजी की तरह उन्हें भी लगता है कि रानी को बस लत्ते और गुडिया ही चहिये. तो ना करें हमें याद, हमें ही कौन सा उनकी याद आती है और ये खेल तो हम अकेले भी खेल सकते हैं...

वो देखो वो बडा सा राक्षस उस छोटे बच्चे को पत्थर से मारने वाला है...

"रानी बिटिया..अरी ओ रानी बिटिया...जल्दी नीचे आओ. ऊ कमबखत कासी ने स्यामसुन्दर के मौढ़ा को मूढ फोड दओ. जन्दी चल के रोको बा कासी ए..."
"पगला गया है क्या बिरजू. इतनी रात गये रानी कहीं नहीं जायेगी. तेरे मालिक को पता चला तो तेरे साथ साथ मेरी भी टांगें टूट जानी हैं"
"ई पडोस मां तो है ई मलकऐन...बिटिया कूं अभाल संगै लिये आत हैं"
"अरे ये वहां क्या करेगी आखिर और जो उस काशी ने इसे ही पत्त्थर मार दिय तो?"
"नहीं मां, काशी हमें कभी नहीं मारेगी"
"हां मलकएन, रानी बिटिया से तो बडा सनेह मानत है ऊ. हमें तो लागत है के कोई रिस्ता है दोनन का परले जनम का"
"तू पगला गया है बिरजू. जा छत से कपडे उतार और रानी तू भी चुप्चाप सो जा अब"
"और काशी, मां?"
"उसकी चिन्ता तू मत कर.कोई बहन नहीं है वो तेरी"
"मगर है तो वो मेरे जैसी ही..."
"रानी, आज कहा है,आइन्दा मत कहना. उस पगलिया और तुम्हारी क्या समता?"
"मगर मां..."
"चुप...एकदम चुप. सो जा अब."

ये काशी भी न... खुद तो मार खाती है सारे गांव से, हमें भी डांट लगवा दी. और हमारा खेल भी खराब कर दिया. हवा जाने उस बादल को उडा के कहां ले गयी. जैसे काशी का भाग्य उसे यहां ले आया है.

मगर क्या वो हम जैसी नहीं है? फिर मां ने हमें और बिरजू काका को क्यूं डांटा? लगता है कि बाबूजी ने मां को ऊंची ऐढी की चप्पल खरीदने से मना कर दिया होगा, तभी पारा चढा हुआ है और इस काशी के कारण हमारा भी पारा चढ गया है.

"बिरजू काका, आज हम ठण्डा दूध पियेंगे"
"ठीक है बिटिया"
"क्या ठीक है? लाओ ना दूध."
"लो... जे रहौ, तुम्हरे लये ठण्डौ दूध"
"काका, काशी हमरे जैसी है ना?"
"हां बिटिया"
"क्या हां बिटिया? बिना सोचे बस हां में हां मिलाते रहते हो. कैसे है हमारे जैसी?"
"बस है"
"कैसे?"
"उ...ऊ... हां देखो...उसके दुइ हाथ हैं, तुम्हार भी हैं...उसके एक नाक हैम तुम्हारे भी ऐ...दुइ आंख...दुइ पैर.."
"बिरजू..."
"आत हैं मलकऐन..."

मां भी ना... सूची भी पूरी नहीं होने दी. हमें ही बनानी होगी...

१. हम भी स्कूल नहीं जा सकते, वो भी नहीं जा सकती... हम दोनों लडकी हैं
२. हम भी सिर पर पल्लू रखते हैं, वो भी... हम दोनों लडकी हैं
३. हम भी हमेशा बाबूजी के घर नहीं रह सकते, वो भी अपने बाबूजी के घर नहीं रहती... हम दोनों लडकी हैं

मगर मां तो कहती है कि वो पगलिया है. तो क्या एक पागल लडकी और एक सयानी लड्की मे फर्क होता है? शायद हां...

१. हम घर में कैदी है, वो खुली हवा में... हम दोनों लडकी हैं
२. हम सब पा कर रोते है, वो सब खो कर... हम दोनों लडकी हैं
३. हमारी चुनरी सिर से गिरे तो सब डांटते हैं और उसकी गिरे तो सब झांकते हैं... हम दोनों लडकी हैं

मगर ये भेद भी इतने समान से क्यूं लगते है? क्यूं हमें एक पागल और एक सयानी लडकी का फर्क समझ नहीं आता? शायद इसलिये क्योंकि... हम दोनों लडकी हैं.

7 comments:

  1. उफ्फ... फ... फ..सच दिल भर आया बेहद प्रभावशाली रचना

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  2. behad umda kahani hai..

    sadhuwad.

    गाँधी जी का तीन बन्दर का सिद्धांत-एक नकारात्मक सिद्धांत http://iisanuii.blogspot.com/2010/06/blog-post_08.html

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  3. हम घर में कैदी हैं और वो खुली हवा में ...
    कितनी बड़ी त्रासदी है पर कैद दोनो हैं
    बड़ी सहजता से आपने अपनी बात कही है

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  4. bahut hi maarmik our practical poem......sachmuch ek paagal our ek sayaani ladki me koi fark nahi rahane diyaa gayaa hai......ohh.

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  5. बहुत बढ़िया, सवाल ही हैं जो पीछा नहीं छोड़ते. समय के साथ अपनी शक्ल बदल लिया करते हैं. रचना सार्थक है और मेरे भीतर कई भावों का संचरण कर पाने में समर्थ. शुभकामनाएं

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  6. liked it very much ......
    niece piece of writing

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