Sunday, December 20, 2009

दिल्ली


थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी

हर पल भागता है, फिर भी लगे सूना
इसके शोर में भी सन्नाटा सुनाई दे
जमा जमा लगता है ये शहर कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
रिश्तों की क्दर तो इसने कभी नहीं की
हर चीज बनी खिलवाड्, हर चीज से दुश्मनी की
धुआं धुआं लगता है ये शहर कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
ये रंग बदलता है कई रूप ये धरता है
फिर भी न जाने क्यूं मुझे कुरूप ही दिखता है
सूना सूना लगता है ये श्ह्र कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी
ये हंसी को है मारे, हर ग़म को संवारे
हर आदमी दूसरे का काम बिगाडे
फ़ना फ़ना लगता है ये शहर कभी कभी
थमा थमा लगता है ये शहर कभी कभी

6 comments:

  1. ये हंसी को है मारे हर ग़म को संवारे
    हर आदमी दूसरे का कम बिगाड़े
    बिलकुल सही बात है,पर इतने दिन थीं कहाँ आप ?

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  2. kya baat hai bahut sahi dhang se aapne apni kavita ke zariye .....is shahr ke baare bakhaan kiya....bahut achcha laga aapki yeh kavita padhkar bahut khoob....aapki kavita din ba din rang laa rahi hai ....likhte rahiye
    God bless u

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  3. हां होता है ऐसा कभी-कभी. भीड में अकेले होने का अहसास..सुन्दर रचना.

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  4. काव्य, शब्दों और भावों का अदभुत संगम देखा है मैंने अपनी कविता में
    उत्तम प्रयास

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  5. सुन्दरता से दिल्ली को चित्रित किया है.
    बहुत सुन्दर

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