Tuesday, July 7, 2009

सोचा ना था


हर कही अनकही जीनी होगी, सोचा ना था
ये बातें कडवी पीनी होंगी, सोचा ना था
रिश्तों की जिस चादर को ओढ़ॅ, महफू समझते थे खुद को
वो चादर इतनी झीनी होगी, सोचा ना था

जीवन पर अपना वश ना होगा, सोचा ना था
रिश्तों में कोई रस ना होगा, सोचा ना था
जब खुशियां बांटते चलते थे, तब नही किसी ने समझाया
हिस्से में खुशियां थोडी होंगी, सोचा ना था

सब संगी साथी छोड़ने होंगे, सोचा ना था
नाते अप्नों से तोडने होंगे, सोचा ना था
गैरों की जिस महफिल में अजनबी-से लगते थे चेहरे
अब इन्हीं अजनबी चेहरों में फिर से अप्ने खोजने होंगे, सोचा ना था

सब हमसे ऐसे रूठेंगे, सोचा ना था
हम भीड में तन्हा खडे रहेंगे, सोचा ना था
हम तो सोचे बैठे थे, उम्र भर की पूंजी जमा हुयी
रिश्ते भी डाल के ताले तिजोरियों में भरने होंगे, सोचा ना था

5 comments:

  1. रिश्तों की जिस चादर को ओढ़ॅ, महफू समझते थे खुद को
    वो चादर इतनी झीनी होगी, सोचा ना था
    कोई शब्द नही है पास मेरे, इतनी सुंदर कविता है, हर एक शब्द से दर्द बहुत सा मिलता है, पीड बहुत ही सह ली है, ऐसा हमको लगता है

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  2. रिश्तों की जिस चादर को ओढ़ॅ, महफ़ूज समझते थे खुद को
    वो चादर इतनी झीनी होगी, सोचा ना था !

    खूबसूरत पंक्तियाँ है

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  3. achhi hai par tujpar kabse mera asar aa gaya itni negativity...... not suitable to u............

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  4. yeh to lagta he nahi hai ki tune likhe hai.....mujhe to bahut smartness dikh rahe hai ....sentence making bahut he jada acche hai ...
    waise itne acche poem upload mat kiya kar warna log chori karna suru kar denge .....

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  5. oh....yeh kaisi poem hai sharam nahi aati mujhse kuch to sikha hota itne saloon main
    plssssss

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