Tuesday, July 7, 2009

अधूरा ख्वाब


जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी
अपनी सुनहरी यादों की किताब में,
ये अनुभव भी समेटना चाहती थी
अंदाजा था मुझे... है ये क्षणिक, जल्द ही टूटेगा
और कल बनेगा वजह तक्लीफ की

इसलिये जी भर कर हंस लेना चाहती थी

जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी

ख्वाब में थी मैं और धुंधला सा एक साया था साथ
धीरे से आगे बढ कर जिसने हाथों में लिया था हाथ

इस छुअन को बखूबी पहचानती थी
और सच के धरातल पर कभी महसूस ना कर पाऊंगी इसे,
ये भी मानती थी

मगर... ख्वाब में ही सही,
ये सफर पूरा करना चाह्ती थी

जानती थी पूरा ना होगा
फिर भी ये ख्वाब देखना चाहती थी

2 comments:

  1. kuch samjh he nahi aa raha ki kya comment karu bt poem padne ke baad comment karne ka bahut mann ho raha tha to socha kuch likh dete hai ......mujhe yeh poem bahut acche lage ....really excellent ...

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  2. kitne hi khwab aise hain ...jisme hum jeena pasand karte hain....waah...you have written great...

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