Wednesday, November 30, 2011
मासूम धोखे...
परत दर पर्त उधेडते हुये जब तुम मेरे जिस्म को धागा-धागा खोल रहे होते हो, उस पल मैं बहुत चाहती हूं कि ना सोचूं लेकिन ये खयाल आता ही है कि क्या हो जो किसी एक परत के नीचे तुम्हें वो हिस्सा दिख जाये जिसमें मैंने अपनी बेवफाईयां छुपा रखी हैं???
यूं तो उस परत को मैं ने तुम्हारे लिये अपने स्नेह, तुम्हारी जागती रातों की फिक्र, तुम्हारे परिवार के लिए अपने समर्पण से खूब अच्छी तरह ढक रखा है मगर इन सब को छितरा कर बिखेर देने के बाद जब तुम मेरे मन के चोर से पहली बार मिलोगे तब क्या इनमें से मेरी एक भी अच्छाई तुम्हें याद रहेगी?
ख़ैर... ये तो मानोगे कि चोरी कभी खुशी से नहीं की जाती हर चोरी से पहले एक भूख, एक ज़रूरत सिर उठाती है और हर चोरी अपने पीछे एक ग्लानि, एक सुबूत छोड जाती है. मेरी चोरी पकडने पर तुम बस उस सुबूत को ही मत देखना. बल्कि उस ज़रूरत और ग्लानि को महसूस करने की भी कोशिश करना कि जिसे मैं ना चाह कर भी जी रही हूं.
मैं जानती हूं कि मैं बहुत...बहुत...बहुत ज़्यादा मांग रही हूं इसलिये अगर ये सब नहीं भी दोगे तो मेरे मन में तुम्हारी छवि पर नफरत का एक छींटा तक नहीं गिरेगा.. मेरे गीतों में शिकायत के बोल तो क्या धुन भी नहीं पाओगे कभी.
फिर भी मैं हर दिन दुआ करती हूं कि मेरे मन के चोर कभी तुम पर उजागर ना होने पायें. अपने प्रेम को दागदार करने की पीडा से गुज़रने के बाद मैं कभी नहीं चाहूंगी कि तुम्हारे विश्वास पर कोई धब्बा लगे...
Sunday, November 27, 2011
सुनो ना...
तुम जब खुद में बेहद.. माने कि हर हद के बाहर जा कर मशगूल हो जाते हो ना तब मैं भी खुद में खो जाने की कोशिश करने लगती हूं. मेरी पसंदीदा किताबें shelf से बाहर आ जाती हैं... रसोई में होने वाले खतरनाक किस्म के experiments काम वाली बाई को डराने लगते हैं.. playlist से जाने कितने ही गानों को बिना कुसूर के निकाला दे दिया जाता है.. साफ सुथरी मेजों को इतना घिसा जाता है कि बेचारी मेजों को भी लगने लगता है कि आज उनके चेहरे की रंगत बदल के ही रहेगी... सोने की नाकाम कोशिशें की जाती हैं; सपने तकिये के सिरहाने से झांकते रहते हैं और घण्टों मेरी खुली आखों को देखने के बाद थक कर सोने चले जाते हैं.
मगर सब फिज़ूल.... किताबों में तुम्हारी बातें हैं मगर तुम्हारा नाम नहीं... हर dish जब कढाही में कुनमुनाते हुये पूछती है कि मैं "पिया जी" को भाऊंगी या नहीं तो सच मानो मैं गुस्से से जल भुन कर खाक हो जाती हूं और मेरे बाद उसकी भी यही गति होती है. कुछ गानों को इस खुन्नस में सुनने का मन नहीं होता कि कभी तुमने गाये थे और कुछ पर इस बात का गुस्सा निकलता है कि तुमने क्यूं नहीं गाया उन्हें? सपनों से भी तो इस बात की ही तकरार है कि वो अकेले ही चले आते हैं, उनसे भी तुम्हें खींच कर लाये नहीं बनता.
उफ्!! तुम मुझ पर इस कदर हावी हो चुके हो कि तुम्हारे शहर और मेरे बीच की दूरी को नापते मील के पत्थर मुझे उन रास्तों पर भी दिख जाते हैं जो तुम्हारे शहर को जाते ही नहीं.
लेकिन तुम्हारे साथ ऐसा नहीं है ना? तुम्हें तो उन रास्तों पर चलते हुये भी अब मेरा ख़याल नहीं आता जिन पर मेरा पांव फिसलने पर तुम आखिरी बार जी खोल कर हंसे थे. सच ही... जितनी मेरी ज़िन्दगी तुम्हारे बिना बेमानी है, शायद उतनी ही मेरी मौजूदगी तुम्हारे लिये बेमतलब.
कई मर्तबा यूं भी सोचा कि चलो बहुत दिन हुये ज़िन्दगी-ज़िन्दगी खेलते हुये.. अब मौत को मौका दिया जाये. आसान मौत के तरीके भी ढूंढे इसलिये नहीं कि डर है... बस इसलिये कि उस ज़िन्दगी को ज़्यादा तकलीफ नहीं देना चाहती कि जिसने मुझे तुमसे मिलाया.
मरने का इरादा कर के एक आखिरी बार (और ये आखिरी बार कई-कई बार हुआ) तुम्हारे कमरे की चौखट तक गई मगर फिर.. तुमने खाना नहीं खाया या सर्दी में बिना स्वेटर के बैठे हो जैसी बातों में यूं उलझी कि मरने का ख़याल कमरे की देहरी पर ही मर गया.
एक बात बताऊं?
मैं मरना भी इसलिये चाहती हूं कि देखूं कि तुम मेरी याद में मेरी तस्वीरों को सहलाओगे या नहीं? भोर से अपने तकिये पर टंके आसूं छिपाओगे या नहीं? और मर भी इसीलिये नहीं पाती कि कहीं ये सब ना हुआ तो मेरे जीने की तरह मेरा मरना भी ज़ाया हो जायेगा.
इसलिये आज के लिये मैं ये कविता लिख कर ज़िन्दगी.. मौत... मेरे-तुम्हारे सपनों सब के साथ settlement कर लेती हूं....
मर जाने की ख्वाहिश अब भी मरी नहीं ...
मगर सोचती हूं कि शायद मेरी कमी खले अब तुझे...
बस इस आस में;
मरने से पहले तेरे कमरे की देहरी से झांक जाती हूं..
और तू खुद में मशगूल इतना कि,
ना मेरी ज़रूरत न ज़ेहन में मेरा ख़याल ही है...
बस इस सोच में घुलती हूं औ तुझे मालूम भी नहीं होता
मैं तेरी नज़र के सामने हो कर भी.. हर पल थोडा-सा और गुम हो जाती हूं...
लोगों को लगता है कि जीने के बहाने मरने की मोहलत नहीं देते,
उन्हें क्या ही मालूम?
कि किस पल में मैं सदियां जी जाती हूं और...
किस पल में सांसें ले कर भी कई मौत मर जाती हूं...
Tuesday, November 22, 2011
"सुकून" के अपहरणकर्ताओं से...चंद बातें
मैं उन लोगों की तलाश में हूं जिन्होंने "सुकून" का अपहरण कर लिया है.. मगर उन लोगों तक पहुंचने का कोई सिरा नहीं मिलता इसलिये सोचा कि वो सब यहां लिख देना चहिये जो मैं उन से कहती... "सुकून" के अपहरणकर्ताओं से...
मैं चाहती हूं कि वो जानें कि उस शाम जब वो "सुकून" को चुरा कर दूर ले गये थे... अम्मा बहुत रोई थीं और बाबा अपने अंदर का जो कुछ आंसुओं में बहा नहीं पाये, वो हर रात उनकी जागती आंखों से झांकता है और सवेरा होने से पहले-पहले फिर से उनके अंदर कहीं दुबक कर बैठ जाता है.
उन लोगों को शायद पता हो कि उस रात के बाद से दुनिया में कोई नहीं सोया... औरों की तो जाने देते हैं.. मैं पूछना चाहती हूं कि क्या वो खुद ही चैन से सो पाते हैं? हम तो खोये हुये "सुकून" को याद कर के तमाम रात तमाम कर देते हैं मगर "सुकून" की पहरेदारी में लगे उन लोगों की पलकें झपक पाती हैं?
वैसे जिन्होंने खोया और जो पा कर रखवाली कर रहे हैं; उनके बीच भी बहुत से लोग हैं जो इस सोच में चैन से सो नहीं पाते कि ऐसा क्या ही था जिसके जाने से दुनिया 'इस कदर' बदल गई?
फिर, जिन्होंने खोया और जो पा कर रखवाली कर रहे हैं; उनके इर्द-गिर्द भी बहुत से लोग हैं जो इसलिये बेचैन हैं कि उन्हें पल-पल निगाह रखने की फिक्र है कि खोने वालों और पाने वालों की दुनिया 'किस कदर' बदल गई?
तो मेरे प्यारे "सुकून" के चोर/चोरों से मैं बस यही कहना चाहती हूं कि उन्हें पूरी कायनात से बद्दुआऐं मिल रही हैं... उनके सिर सारी दुनिया को जगाये रखने का इल्ज़ाम है. हालांकि मैं कोई बद्दुआ नहीं दे रही क्योंकि मैं और मेरे जैसे कुछ ही और लोग हैं जो जानते हैं कि "सुकून" को चुरा ले जाने वाली रात से आज तक वो लोग भी जाग रहे हैं.
तो उन्हीं लोगों की बेहतरी के लिए मैं कहती हूं कि "सुकून" को लौटा दो वरना मेरी दुआओं का कवच अकेला इतनी बद्दुआओं से तुम्हें बचा नहीं पायेगा...
Friday, November 18, 2011
तुम्हारे ख़यालों के झूले पर मेरी सोच की पींगें...
मातम मनाऊं कि तुम्हें ना मेरी फिक्र, न ज़रूरत, ना चाहत या कि फ़ख्र करूं कि कुछ लम्हों को ही सही मगर तुमने मुझे टूट कर चाहा था और मैं मुतमईन हूं ये सोच कर कि उन चंद लम्हों में मेरे सिवा किसी का ख़याल तक नहीं आया था तुम्हें...
एक और शाम अपनी उदासी और तुम्हारी याद की date plan करने में बर्बाद कर दूं कि अब वो पल तुम्हें एक पल को भी याद नहीं आते या कि बगिया की चिडिया को उससे भी ज़्यादा चहक कर बताऊं कि कल रात तुम्हारा sms आया था. माने कि तुम मुझे नहीं भूले, बस वो लम्हे मिटा दिये हैं अपनी memory से...
चिढ कर, सबसे झगड कर खुद को कमरे में बंद कर के ये सोचूं कि क्यूं तुम मुझे इतना नासमझ समझते हो कि कभी कोई हंसी या कोई आंसू साझा नहीं करते या कि तुम्हारी लिखी इस बात का printout बिस्तर की सामने वाली दीवर पर चस्पा कर दूं कि; "ऐसा सोचते हुये तुम अकेली नहीं होतीं" जाने ये कहते हुये तुमने मेरी कौन सी सोच के बारे में सोचा होगा!!! ये सोच कर ही मैं मुस्कुरा देती हूं.
क्या करूं और क्या ना करूं जैसे कितने ही असमंजसों के बीच झूलती मैं जाने कौन-कौन से काम निबटाये जा रही हूं.और देखो तो... ये क्या किया मैं ने अपनी बेख़याली में...
तुम्हारी image पर छाई गर्द मैंने अपने उजले दुपट्टे से साफ कर दी है. तुम्हारे लिए ऐसा करने को मेरा भविष्य किस निगाह से देखेगा ये तो नहीं पता मगर मेरे-तुम्हारे अतीत से मेरे 'वर्तमान' ने कभी नफरत नहीं की है... जानते हो ना तुम???
Tuesday, November 15, 2011
किसी रात यूं भी लिखा था...
६ नवम्बर' २०११
आधुनिकता वादी होने का दावा करने वाले उन तमाम पुरुषों की तरह तुम्हें भी यही लगता है ना कि तुमने मुझे खुद जितनी ही आज़ादी दी हुई है? वैसे कुछ बहुत ग़लत भी तो नहीं कहते तुम्.. मैं हर वो चीज़ खरीद सकती हूं जो हमारे social status को suit करता हो, हर वो कपडा पहन सकती हूं जिसमें मेरे साथ चलते हुये तुम्हें कोई झिझक ना हो, व्वो सब कुछ लिख-पढ सकती हूं जो तुम्हारे male ego को ठेस ना पहुंचाये, भरे बाज़ारों में चलते हुये सिर ढंकने या झुकाने जैसी कोई बंदिश भी मुझ पर नहीं है.
मगर खुल कर हंसने की ये आज़ादी मुझे नाकाफी मालूम होती है, तुम तो बस मेरी उदासी को तुम्हारी कमीज़ तरबतर कर बह जाने का हक़ दे दो. मेरी सूरत ही तो मेरी सुन्दरता का पैमाना नहीं, मुझे तो बस मेरी तमाम सादगी के साथ कमसूरत लगने का अधिकार दे दो. समझदार बने रहने की कोशिश करते-करते मैं ऊब गई हूं, मुझे मेरी बेफिक्री और लापरवाही के साथ कमअक्ल बने रहने की इजाज़त दे दो...
८ नवम्बर'२०११
मुझे वो किताब बेहद याद आती है जो फकत इसलिये पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कर के फेंक दी कि उसे पढते हुये तुम याद आते थे.
और आज.. आज जब तुम इतने करीब हो कि तुम्हारे चेहरे, चेहरे की हर लकीर को छू सकती हूं.. हर परत को टटोल सकती हूं तो ऐसा करते हुये अक्सर ये ख़याल आता है कि इस चेहरे की जगह वो किताब होती तो तुम्हारा अक्स कितना उजला होता मेरे ख़यालों में!!! तुम्हारा प्यार कितना पाकीज़ा रहता मेरी सोच में!!!
मगर अब वो किताब नहीं और अगर खुद को बहलाने की कोशिशें छोड कर देखूं तो वो पहले वाले तुम भी तो नहीं. बस तुम्हारा और उस किताब का अतीत है जिसे दोहराते हुये निगाहें और लब इतना थक चुके हैं कि ना आंसू शिकायत करते हैं ना बातें ही...
१० नवम्बर' २०११
मैं उस लडकी को जाती तौर पर बिल्कुल नहीं जानती, बस उसकी तस्वीरें देखीं हैं.. किस्से पढे हैं. मुझसे कुछ बरस बडी होगी शायद् उसके हर किस्से में मैं अपनी झलक देखा करती हूं. मैं अक्सर सोचा करती हूं कि अगर मुझे थोडी-सी.. ज़रा-सी आज़ादी और मिलती तो मएं ठीक उस के जैसी होती. मगर इस सब के बावजूद मैं उसे पसन्द नहीं करती. जाने कितने ही लोगों की बेवज़ह तारीफ करती हूं मगर उसके लिखे पर तारीफ का एक बोल भी नहीं जबकि वो उन चंद लोगों में से है जिनका लिखा कहीं गहरे तक धंस जाता है और कई दिनों तक अंदर ही अंदर घुलता-घुमडता रहता है.
जाने क्य़ूं उस लडकी से एक अज किस्म की ईर्ष्या है जिसमें घृणा के किसी भाव के लिए कोई जगह नहीं है.. कुछ कुछ वैसी ईर्ष्या जैसी शायद अपनी बहन से होती है.
खैर.. पिछले कुछ दिनों से लगने लगा है कि ग़र दुनिया के किसी एक शख़्स के लिये भी मन में मैल रखा तो ज़िन्दगी उजली नहीं हो पायेगी. बस इसलिये...
Saturday, November 5, 2011
ख़त जो बस काग़ज़ों ने पढा...
पता नहीं ऐसा सबके साथ होता है या नहीं मगर मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है, किसी किसी दिन मन एक अजीब किस्म के अवसाद से भर जाता है.ज़्यादा खीझ शायद इसलिये होती है क्योंकि इस उदासी.. इस अवसाद का दोष किसी पर मढा नहीं जा सकता सिवाय प्रेमचंद की किसी कहानी या जगजीत सिंह जैसे गायक के लिए श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे गये, अखबार में छपे, उन articles को जिन्हें पढ कर समझना मुश्किल होता है कि लिखने वाले ने इन्हें किसी को श्रद्धांजलि देने के लिये लिखा है या स्वयं के महिमा मण्डन के लिये.
मगर अपने अवसाद का दोष उन दुखांत कहानियों या भारी ग़ज़लों को देने से कोई फायदा नहीं होता. प्रत्युत्तर में ये ग़ज़लें या कहानियां आपसे झगडा नहीं करतीं और क्योंकि किसी तरह की बहस नहीं होती इसलिये ध्यान भी भटकने नहीं पाता.
ऐसे ही किसी दिन में अपने किसी बेहद करीबी से ये सब कह देने का मन होता है मगर फिर एक एक कर के सबके नामों पर गौर करने के बाद आपको अहसास होता है कि आप बेहद practical लोगों से घिरे हुये हैं और कुछ भी कहने से पहले आपको अपनी उदासी की वज़ह बतानी होगी जो यक़ीनन आपके लिये भी नितांत अजनबी है.
और तब मुझे "तुम" याद आते हो. हां, तुम... बताया तो तुम्हें किसी और के सामने मैं बेवकूफ नहीं बन सकती, सबने मुझे 'समझदार' का तमगा दिया हुआ है और मेरी निहायत बेवकूफाना बातें मेरे समझदार होने के भ्रम के साथ साथ उनके इस भरोसे को भी तोड देंगी कि मैं उनकी उलझनें सुलझा सकती हूं. मगर तुम्हारे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं, मैंने पहले दिन से ही तुम्हें समझदार बता कर खुद को बेवकूफ कहलवा लिया है.
कुछ भी तो नहीं जानती तुम्हारे बारे में मगर फिर भी ना जाने क्यूं ऐसी उदास शामों में तुम्हारी बातों के रंग घुले दिखते हैं. मगर पांच रोज़ पहले ही मैंने एक बार फिर खुद को तुम्हारे असर से आज़ाद कराने का वायदा किया है. ritual of 21 days जैसी किताबी बातों को भी अमल में लाने की कोशिश कर रही हूं.
तुमसे दूर रहने का हर संभव प्रयास कर रही हूं. तुम्हें call या message करने से खुद को रोकने के लिए ritual of 21 days का wallpaper चस्पा कर रखा है. अन्तर्जाल से यथासंभव दूरी बनाये हुये हू मगर लगता है मानो फिर से कायनात कोई साजिश रच रही है. हर तरफ दीवारें खडी करने के बाद जब मैं सुकून की सांस ले कर अखबार उठाती हूं तो आज वहां भी तुम्हारा नाम झांक रहा है. आधे घण्टे तक फिज़ूल खबरें पढने की नाकाम कोशिश करती हूं मगर हर २-४ मिनट में तुम्हारी (या तुम्हारे हमनाम किसी शख्स की) लिखी वो २ पंक्तियां पढ लेती हूं जो जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि देने के लिये छापी गई हैं...
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोडा करते
वक्त की शाख से पत्ते नहीं तोडा करते
जाने क्यूं इन २ पंक्तियों में खुद को ढूंढना चाहती हूं. जाने कौन नासमझ ये सुनना चाहता है कि ये तुम्हारी आवाज़ है.. मेरे लिये. ख़ैर, मैं उस नासमझ को इसी ग़ज़ल का दूसरा मिसरा सुना कर समझा लूंगी...
शहद जीने को मिला करता है थोडा थोडा
जाने वलों के लिए दिल नहीं तोडा करते
कभी कभी सोचती हूं कि अपने बचपने भरी ज़िद को थोडा परे सरका पाती तो ये सब तुमसे कह सकती थी मगर मेरी expectations (जो करने का यक़ीनन मुझे कोई हक़ नहीं) मेरे ego को हवा देती जाती हैं और जाने कितना कुछ मेरे अंदर ही अंदर जल जाता है. और तब मुझे अपने आलस को परे धकेल कर diary-pen उठाना पडता है. ये पन्ने मेरे अवसाद को जज़्ब कर पाने की ग़ज़ब की काबिलियत रखते हैं, एक अजीब सी संतुष्टि देते हैं. मानो मैं इनकी महबूबा हूं और मेरा हर दुख, हर आंसू,हर हंसी, हर खुशी ये सहेज लेना चाहते हों. शायद इसीलिये जब सब मेरी उदासी से हार जाते हैं तो मैं कलम के हाथों एक ख़त इन काग़ज़ों के नाम भेज दिया करती हूं.ये काग़ज़ स्याही बन कर बहने वाली मेरी सारी उदासी को सोख लेते हैं.
इन पन्नों में किसी किस्म की insecurity भी नहीं. शायद इनकी मुझमें incredible faith है कि मैं लौट कर इनके पास ज़रूर आऊंगी या शायद दुनिया क तजुर्बा बहुत है और ये जानते हैं कि मैं फिर फिर लौटा दी जाऊंगी.. लोग कभी ना कभी मुझसे थक कर मुंह फेर लेंगे और ऐसा ना होने तक ये मेरा इंतज़ार करते हैं.
तुम्हारी कई लाख पलों तक बाट जोहने के बाद भी जब तुम नहीं आते तो मैं तुम्हारी और तुम्हारे जैसे हर शख्स की बुराइयां इन पन्नों से करती हूं जिन्होंने मुझे hold पर रखा हुआ है.
और आखिर हूं तो लडकी ही.. बुराइयां, निन्दा करने के बाद अवसाद भले ना मरे मगर तुम्हारी याद की शिद्दत में एक कमी-सी आ जाती है.
हर सवाल का जवाब मिलता है सिवाय इस बात के कि ढेर सारे दोस्तों और कई अजनबियों में से बस "तुम".. एक तुम ही क्यूं याद आते हो??? शायद इस्लिये क्योंकि तुम्हें चीज़ों की वज़ह नहीं देनी होती.मेरी फिजूल-सी किसी बात के बाद तुम्हारे मन में एक 'क्यों' नहीं उगता.
जैसे उस रात मेरी गहराइयों में उतरने के बाद जब तुमने कहा था कि, "तुम्हारी आंखें बहुत बोलती हैं, बहुत खूबसूरत हैं.. ठीक तुम्हारी उंगलियों की ही तरह"
और तब हमने ताक़ीद की थी कि हमारी करीबी के इन पलों में हमारी तारीफ मत किया करो.
ऐसी कितनी ही बातें सिर्फ इसलिये कह पाये क्योंकि यकीन था कि तुम पलट कर कोई सवाल नहीं करोगे.
ख़ैर...
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