Sunday, October 3, 2010

स्वप्न अब भी मेरे हैं...



जिस घर की खिडकी के शीशे तेरे खेलों से चटके हों
मैं उस घर में अब पायल छनकाना चाहती हूं
जिस घर के बिस्तर में तूने भी तकिये पटके हों
मैं उस घर के कमरों में गज़रा महकाना चाह्ती हूं
जिस घर की दीवारें तेरे नटखट खेलों की साथी हों
मैं उस घर के आंगन में आंचल लहराना चाहती हूं
जिस घर की क्यारी में तूने भी बीजे बोये हों
वहां के तुलसी चौरे पर मैं दीप जलाना चाहती हूं

जिस घर में तेरी बातें हो... तेरे बचपन की यादें हों...
दादी की मीठी लोरी हो... मां के गुस्से की झिडकी हो...

उस घर के हर कोने को हाथों से सजाना चाहती हूं
मैं अपना आंगन छोड के जीवन तुझ संग बिताना चाहती हूं

तेरे सुख दुख की साझी बन...तुझको अपनाना चाहती हूं

14 comments:

  1. स्वप्नो का यह प्रवाह मुग्ध कर देने वाला है ।

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  2. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों....बेहतरीन भाव....खूबसूरत कविता...

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  3. Monaji ..di
    esa lagta hai jaise meri kahani likh di aapne....

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  4. बड़ा बेताब सा खामोश दर्द उकेरा है आपने
    बधाई

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  5. lajwaab ahsaas....tarif ke liye koi shabad nahin....sch me pyar ise kahte hain...jab ap kisi ka present aur future nahin past bhee jina chahte hain.....kamaal.....

    www.amarjeetkaunke.blogspot.com

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  6. in sapno mein to main bhi kho sa gaya....
    bahut hi khubsurat rachna.....
    मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
    क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें...
    अपनी टिप्पणी ज़रूर दें...
    http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html

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  7. निश्चल प्रेम की पराकाष्ठा है इस रचना में ... बहुत ही लाजवाब रचना ...

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  8. शरद जी सही कहते हैं

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  9. बहुत सुंदर...भाव, कथ्य और शिल्प की दृष्टि से मनोहारिणी कविता ...बधाई

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  10. बहुत ही सुन्‍दर भाव लाजवाब कविता.

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  11. सही बात मोनाली..घर कि दीवारों से भी प्यार हो जाता है.... :)

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