वो अलसुबह तुम्हारा चेहरा देख कर दिन शुरु करना
सब्जी चलाते हुए, आटा गूंथते हुए...
... एक सरसरी निगाह घडी पर डालते रहना
झुंझलाना इस बात पर कि क्यूं कभी तुम्हें तौलिया नहीं मिलता?
तुम्हारी मंथर गति देख कर बिगडना...
नाश्ता खत्म करने को बहलाना...
बच्चों की तरह खाने का डिब्बा पकडाना और,
मफलर ढंग से लपेटने की ताकीद करना
"सुबह सुबह गोकि मैं तुम्हारी मां हो जाती हूं "
फिर दोपहर भर सोचना ये फिज़ूल सी बातें
लिखना तुम्हें वो बेतुकी चिट्ठियां ...
.. और उन्हें अपने सिरहाने की किताब में सुला देना.
पढना वो ख़त तुम्हारे,
कि जिन पर तहों के निशां तले अल्फाज़ धुंधला से गये हैं
कभी मुस्कुरा देना किसी ख़याल पर
और कभी झूठमूठ ही हो जाना नाराज़ किसी बेतुकी सी बात पर..
"तपती दुपहरों में मेरे अंदर अलसाई पडी,
तुम्हारी प्रेमिका अंगडाईयां लेती है."
शाम में खंगालना साग-भाजी की डलिया
बीनना पसंद तुम्हारी और छौंक देना ठीक वैसे जैसे भाये तुम्हें
एक-एक फूली रोटी तुम्हें खाते हुए तकना
और उन कडी जली चपातियों को अपने लिये रखना
ह्ंसना, ठिठोली करना, छीनना-झपटना, भागना-पकडना...
... तब कि जब दिन तुम्हारा अच्छा ग़ुज़रा हो
या फिर चुपचाप बदलना टी.वी. के चैनल कि तुम पर थकान तारी है.
"दिन ढलते-ढलते जागने लगती है तुम्हारी अर्धांगिनी मुझमें"
सब्जी चलाते हुए, आटा गूंथते हुए...
... एक सरसरी निगाह घडी पर डालते रहना
झुंझलाना इस बात पर कि क्यूं कभी तुम्हें तौलिया नहीं मिलता?
तुम्हारी मंथर गति देख कर बिगडना...
नाश्ता खत्म करने को बहलाना...
बच्चों की तरह खाने का डिब्बा पकडाना और,
मफलर ढंग से लपेटने की ताकीद करना
"सुबह सुबह गोकि मैं तुम्हारी मां हो जाती हूं "
फिर दोपहर भर सोचना ये फिज़ूल सी बातें
लिखना तुम्हें वो बेतुकी चिट्ठियां ...
.. और उन्हें अपने सिरहाने की किताब में सुला देना.
पढना वो ख़त तुम्हारे,
कि जिन पर तहों के निशां तले अल्फाज़ धुंधला से गये हैं
कभी मुस्कुरा देना किसी ख़याल पर
और कभी झूठमूठ ही हो जाना नाराज़ किसी बेतुकी सी बात पर..
"तपती दुपहरों में मेरे अंदर अलसाई पडी,
तुम्हारी प्रेमिका अंगडाईयां लेती है."
शाम में खंगालना साग-भाजी की डलिया
बीनना पसंद तुम्हारी और छौंक देना ठीक वैसे जैसे भाये तुम्हें
एक-एक फूली रोटी तुम्हें खाते हुए तकना
और उन कडी जली चपातियों को अपने लिये रखना
ह्ंसना, ठिठोली करना, छीनना-झपटना, भागना-पकडना...
... तब कि जब दिन तुम्हारा अच्छा ग़ुज़रा हो
या फिर चुपचाप बदलना टी.वी. के चैनल कि तुम पर थकान तारी है.
"दिन ढलते-ढलते जागने लगती है तुम्हारी अर्धांगिनी मुझमें"
अच्छी है :)
ReplyDeleteबस टीवी का रिमोट तुम्हारे हाथ में रहा ये गौर करने वाली बात है :) :)
Haan..mera pati to IRCTC ki site me vyast raha na :P
Delete:-) :-)
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअब क्यूँ चिट्ठी लिखती हो... :P
ReplyDeleteवैसे लिखती तो शानदार हो....
शादी के बाद रूमानी बातें बेवकूफाना लगने लगती हैं तब चिट्ठी ही लिखी जाती है.. मगर पोस्ट नहीं की जाती... shadi karo babua tab maloom hoga :P
DeleteSoooo nice :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (28-01-2014) को "मेरा हर लफ्ज़ मेरे नाम की तस्वीर हो जाए" (चर्चा मंच-1506) पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक गृहणी की सोच में सुबह, दोपहर, शाम में होने वाले परिवर्तनों को सशक्त अभिव्यक्ति दी है ! आत्मीयता से परिपूर्ण सुंदर प्रस्तुति !
ReplyDeleteसुबह से रात तक न जाने कितने कार्य, कितने रूप
ReplyDeleteसुन्दर ......
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार आपका।
ReplyDelete<3 so sweet.....
ReplyDeleteदुश्मन बन जाने का कोई लम्हा नहीं :-) अच्छा है...........
stay blessed !!
anu
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...
ReplyDeleteसचमुच शादी के बाद कितना कुछ करना पड़ता है ,लेकिन इसका भी अलग अहसास है ,
ReplyDeleteमाँ बन कर अपना रुआब दिखाने का मौका भी तो मिलता है न… … ;-)
:)
ReplyDelete