Tuesday, October 12, 2010

खुली आंखों का स्वप्न


भोर की पहली किरण से गोधूलि की सांझ तक...
पानी की शीतलता से अग्नि की आंच तक...
मिथ्या की संतुष्टि से सत्य की प्यास तक...
विछोह की पीडा से मिलने की आस तक...
जीवन के प्रारम्भ से म्रत्यु की अंतिम सांस तक...

मैं खुद को तेरी हंसी के उजले सवेरे में देखा करती हूं
मैं खुद को तेरे कल के बसेरे में देखा करती हूं

Monday, October 4, 2010

कवयित्री नहीं कविता हूं मैं...

दर्द की सच्चाई पर चढाती हूं सच का मुलम्मा
पावन नहीं पतिता हूं मैं...

छू कर पल दो पल को ज़िन्दगी तुम्हारी,
आगे निकल जाऊंगी...
ठहरा पानी नहीं, सरिता हूं मैं...

मेरा आना आज हंसी और मेरी याद कल आंसू देगी
और उस पर भी है ये दावा मेरा...
ग़ैर नहीं, वनिता हूं मैं...

Sunday, October 3, 2010

स्वप्न अब भी मेरे हैं...



जिस घर की खिडकी के शीशे तेरे खेलों से चटके हों
मैं उस घर में अब पायल छनकाना चाहती हूं
जिस घर के बिस्तर में तूने भी तकिये पटके हों
मैं उस घर के कमरों में गज़रा महकाना चाह्ती हूं
जिस घर की दीवारें तेरे नटखट खेलों की साथी हों
मैं उस घर के आंगन में आंचल लहराना चाहती हूं
जिस घर की क्यारी में तूने भी बीजे बोये हों
वहां के तुलसी चौरे पर मैं दीप जलाना चाहती हूं

जिस घर में तेरी बातें हो... तेरे बचपन की यादें हों...
दादी की मीठी लोरी हो... मां के गुस्से की झिडकी हो...

उस घर के हर कोने को हाथों से सजाना चाहती हूं
मैं अपना आंगन छोड के जीवन तुझ संग बिताना चाहती हूं

तेरे सुख दुख की साझी बन...तुझको अपनाना चाहती हूं