Tuesday, May 11, 2010

पराजित


मैं अंधेरे में ना जाने किस से समर किया करती हूं
मैं कुछ अपनों और कुछ परायों की मौत हर रोज़ जिया करती हूं

हासिल नहीं इस ज़द्दोज़हद से कुछ भी,
फिर भी जाने क्यूं ज़िद किया करती हूं?

समझाते हैं सभी कि,
ग़र मेरा है तो कहीं जा नहीं सकत और
ग़र पराया है तो मुझे पा नहीं सकता

मग़र मैं उसे पाने को 'रब से मन्नत' औ 'ज़माने से मिन्नतें' किया करती हूं
मैं कुछ अपनों और कुछ परायों की मौत हर रोज़ जिया करती हूं

3 comments:

  1. हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ,मैं अपनो और परायों कि मौत रोज जिया करती हूँ और जो अपना है मिल कर ही रहेगा .....सच तो यही है .यही है जीवन का यथार्थ पर इस सच पर कई बार यकीन करने को दिल नहीं करता दिल में गहरे बैठ गई आपकी ये प्रस्तुती
    और हाँ मेरे ब्लॉग पर इतनी प्यारी सी प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार

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  2. mann ko choo lene waali panktiyaan...
    seedhe dil mein utar gayi......
    bahut hi behtareen...
    yun hi likhte rahein..
    regards..
    http://i555.blogspot.com/

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  3. monali jee aapki kavitayen dekhi.sambhavna se ot-prot hain.shubhkamnayen.

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