Monday, September 30, 2013

...बिखरे बिखरे ख़याल!!!

अकेले सूने घर में बर्तन धोते-धोते अचानक कटोरी को पटिया पर फेंक कर खडी हो जाती है, सलवार झाडने लगती है. कुछ भी तो नहीं है.. लगा जैसे कुछ रेंग रह हो अंदर. चूहे, छिपकली, कांतर सभी कुछ तो है इस मकान में और परले साल तो एक संपोला भी निकल आया था उपलों वाली कुठरिया में.

"तू कब से डरने लगी?"
"जब से अकेले रहने लगी."
"ह्म्म्म् अब तो रघु भी नहीं है यहां"
"था भी तब भी कहां ही था.. तब भी अकेली ही थी जब पलंग पर उसके पांव दबाते दबाते नींद से जूझती रहती थी."

क्या ऊल-जुलूल सोचे पडी है. अकेले रहते रहते शायद दिमाग कुछ चल गया है वरना कोई यूं खुद से ही बात करता है. ग़र खुद ही जवाब देना हो तो फिर सवाल रहा ही कहां?

लेकिन बात है तो सही.. ये डर सचमुच अकेलेपन से ही उपजा है. अम्मा के घर में तो कभी नहीं लगा डर.. सांप, बिच्छू, छिपकली तो वहां भी थे मगर भरोसा सा था कि कोई बचा लेगा और ना भी बचा पाये तो कितने ही ढेर सारे लोग होंगे जो घेर कर आंसू बहायेंगे.

ये भी कैसा अजीब सा सुकून है कि आपके मर जाने पर कितने लोग रोएंगे जबकि कोई रोए या ना भी रोए, कौन सा कुछ पता चलना है मौत के बाद. लेकिन फिर भी एक सुकून है.. नहीं, सुकून 'था'. अब तो मर जाना भी डरावना लगने लगा है. और बीमार या चोटिल हो जाना.. बेतरह भयानक.

जाने कितने ही दिन बुखार में तपेगी, भूख से आंतें इठीं जाती होंगी मगर खाना पकाने की ताकत नहीं होगी.
कभी आंगन में पैर फिसल जायेगा, मोरी की ईंट माथे में घुस जायेगी..खूब खूब खून बह जायेगा मगर उठ जाने की हिम्मत नही होगी.

और ऐसे ही कभी बुखार में तपते या वहीं मोरी के पास औंधे मुंह पडे मौत आ जाएगी. कौन बैठा है जो किसी को कुछ मालूम होगा? तो क्या चूहे कुतर डालेंगे देह को... कीडे पड जाएंगे? सडांध फैलना शुरू होगी तब कोई दरवाजा तोड कर कहेगा; "ओहो, मर गयी बेचारी. उंहू.. म्युनिसपैलिटी वालों को खबर करो, कैसी सडांध फैल रही है. फूंकने-फांकने का इंतज़ाम करो."

और फिर वो 'कोई' मुंह पर कपडा रखे रखे ही बहर चला जायेगा. तो क्या इतनी लम्बी छ्ब्बीस साला ज़िन्दगी में एक 'कोई' ही जुटा मेरे हिस्से में? मैंने तो भरे-पूरे कुनबे के सपने सजाये थे. दादी सास लाड लडाएगी... सास चिढ कर कम दहेज का ताना देगी, मैं भी शुरु के कुछ साल सुनूंगी फिर उल्टे जवाब देना सीख जाऊंगी. ननद मेरा सामान बांटेगी, मैं बस कुढ कर रह जाऊंगी. देवर ठिठोली करेगा... "अपने भतीजे-भतीजियों को बिगाडे दे रहे हो तुम, लल्ला जी" ऐसा ताना दूंगी मैं. और एक "तू" होगा जो आते-जाते कोई इशारा कर देगा और मैं घूंघट को और आगे खींच कर ओट में ही शर्म से दुहरी हो जाऊंगी.

लेकिन तू तो यूं ही बीच में धोखा दे कर चला गया. क्या इसी दिन को मैं सब आगा-पीछा भूल कर तेरे संग चली आई थी? क्या हक़ था तुझे ऐसे मझधार में मुझे छोड जाने का?

तेरे तो सब कर्मकाण्ड मैंने किसी तरह निबटा डाले लेकिन मेरा अंतिम संस्कार किसके भरोसे छोड कर चल दिया तू? कहते हैं सब सही से ना हो तो आत्मा भटकती है.. जीते जी जो भटक रही हूं, क्या मरने के बाद भी मेरे हिस्से चैन नहीं आना है?


कुछ तो छोड कर जाता मरे. कोई आस, कोई औलाद. हां, जानती हूं कि तेरे जैसे लम्पट और मेरे जैसी कुलच्छिनी का जना सपूत तो ना होना था मगर कोई तो होता जिसे कोसने में उमर तमाम होती रहती.

कोई जमीन-जायदाद.. अपनी नहीं, रेहन-गिरवी रखी छोड जाता जिसे छुडाने के नाम पर मैं किसी रोज़ खुद को बेच डालती. कुल्टा हो जाने का "कोई एक बहाना भर" ही छोड जाता रे!

तू तो बस ख़याल छोड गया है. मैं ख़याली पुलाव पकाती ही चली आयी तेरे संग... तेरा ख़याल ही रखती रही इतने बरस और अब भी क्या ही है हाथ में? अतीत के ख़याल ... भविष्य के ख़याल .. जी पाने के ख़याल .. मर जाने के ख़याल.

ख़याल...ख़याल...ख़याल...फक़त ख़याल... 


Thursday, September 12, 2013

"फिक्र की खुराक इश्क का ज़ायका खराब किये दे रही है..."


कोई किसी जाहिल को इतना याद कर सकता है???
जबकि पता हो कि तुम होते भी तो इस वक़्त तक सो गये होते,
इस बात से बेपरवाह कि मैं करवटें बदलती हूं रात सारी...
तुम्हें जगाना चाह कर भी जगा नहीं पाती, हालांकि  मालूम है मुझे कि;
"फिक्र की खुराक इश्क का ज़ायका खराब किये दे रही है..."

कोई किसी जाहिल को इतना याद कर सकता है???
जबकि पता हो कि तुम होते भी तो इस वक़्त तक सो गये होते
तब तुम्हारी उस बेपरवाह नींद को मैं सारी रात खुली आंखों से निहारती,
चाहती उठ जाना और टहलना यूं ही इस सूने, बिना आंगन वाले घर में...
किसी किताब से अपनी मनपसंद पंक्तियां पढ लेने की शदीद इच्छा को दबा देती कि;
कहीं तुम जाग ना जाओ...

कोई किसी जाहिल को इतना याद कर सकता है???
जबकि पता हो कि तुम होते भी तो इस वक़्त तक सो गये होते ...
चिढती, खांसती- खखारती मगर ऐसे कि;
कोई खलल ना पडे तुम्हारी नींद में...
और सोचती कि तुम्हारा होना- ना होना बराबर सा ही है...

मगर जब बिस्तर में तुम्हारी जगह एक निरा निश्चल तकिया भर पडा देखती हूं तो मालूम होता है कि तुम्हारा नींद में करवट भर बदल लेना भी एक सुकून है..
कभी यूं ही कच्ची नींद मे पूछ लेना कि "सोयी नहीं अब तक" और मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना ही फिर करवट बदल कर सो जाना भी एक सुख है...

जब तक खो ना जाये, तब तक निरा अनजाना ही रहता है बहुत कुछ

Saturday, August 31, 2013

ज़रा संभल कर...मेरी ख्वाहिशों को छूने की ग़लती ना कर बैठना !!!

तुम अब भी याद आते हो. ना... उतना तो नहीं कि जितना आया करते थे मगर फिर भी एक दम गायब नहीं हुये हो अब तक. हालांकि अब तुम्हारी याद में वो धार नहीं रही कि सोच पर फेरते ही ख़याल कट कर रह जाये, बस किसी नरम पंख जैसी छुअन भर बाकी है.

अभी भी किसी-किसी रात तुम्हारी याद का कोई टुकडा सिर उठाता है जैसे हारमोनियम के किसी सुर पर से तार फिसल के हट गया हो लेकिन अब जीवन का राग बेसुरा नहीं होने देती मैं. कोई सुन पाये उससे पहले ही सब कुछ वापस उसकी जगह पर करीने से लगा देती हूं. टूटा-फूटा यादों का वो कोलाज अपनी बातों के सजावटी गुलदान के पीछे छिपा देती हूं.

जानते हो आज भी किसी के उंगली के पोरों  में मेरा जिस्म तुम्हारी छुअन टटोलता है. आंखों को मींच के खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि हां, ये तुम ही हो लेकिन रूह छिलती-सी चली जाती है. सुबह मैं वहां तुम्हारी नज़रअंदाज़ी का मरहम लगा देती हूं. कोशिश करती हूं कि ज़ख़्म भर जाये लेकिन खुद घाव को ही ग़र मरहम से ज़्यादा दर्द प्यारा हो तो भला आराम कहां मुमकिन है!

मैं जानती हूं कि तुम अपनी स्ंपूर्ण पूर्णता के साथ कहीं और हो फिर क्यूं हमेशा तुम्हारे ख़यालों की चिंदी-चिंदी कर बिखेर दी कतरनें मुझे अपने आस-पास उडती दिखाई देती हैं?
इस सवाल के जवाब में मैं खुद से एक बेहद खूबसूरत झूठ कह देना चाहती हूं कि; "मैं भी तुम्हारे भीतर कहीं ज़िन्दा हूं अब तक... दिल में ना सही, दिमाग के किसी अंधेरे, सीलन भरे ज़रा से टुकडे में तुमने मेरी याद को मर जाने के लिये अकेला छोड दिया है."

अगर इतनी बेरूखी से भी तुम कभी-कभी मुझे याद करो तो मुझे चैन मिल जायेगा... मेरी सांसें थोडी कम मुश्किल हो जायेंगी... मेरी धडकन कुछ कम भारी... मेरा जीन ज़रा कम तकलीफदेह.

मैं कोशिश करती हूं कि कम से कम य कि ना ही लिखूं लेकिन अक्सर मेरा स्वार्थ मेरे अहम पर भारी पड जाता है. कभी- कभी ही सही मैं हर संभव तरीके से तुम्हें जता देना चाहती हूं कि मेरा तुम पर नेह शायद उतना उथला नहीं जितना तुमने या खुद मैंने समझा था.

मैं जानती हूं कि तुम ये सब पढ रहे हो मगर ज़रा संभल कर... बडी मुश्किल से सुलाई मेरी इन ख्वाहिशों को पढ या देख भले लो मगर इन्हें छूने की ग़लती ना कर बैठना क्यों कि तुम्हारे छूने भर से ये जान कर ज़िन्दा हो जायेंगी और फिर हम दोनों को चाहे या अनचाहे ताउम्र आंखों में एक-दूसरे का अक्स लिये फिरना होगा.

ख़ैर...

Thursday, May 2, 2013

संगमरमरी देह पर कोयले घिसने के दिन..

सफ़ेदी मानो कालिमा से ढंकती जा रही है. हर ओर शुभ्रता पर हौले-हौले कालिख फैलायी जा रही है... किसी गहरी साज़िश के तहत. कहीं बडी गहरी, बेहद भीतरी तहों से शुरु हुआ था ये सब... पहले-पहल मन मैला हुआ था.

अगर अभी याद्दाश्त पर काला पर्दा नहीं पडा है तो शायद रंगीन इन्द्रधनुषी रंगों के, बारिशों की नमी के दिन थे जब प्यार का लबादा पहने किसी ने दस्तक दी और मेरे भीतर पसरना शुरु किया. मैंने तो बस उसे एक कमरा भर दिया था मगर उसने हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लिया, मेरे भीतर से सबको एक-एक कर के कब बाहर कर दिया, पता भी नहीं चला. होश तो तब आया जब मुझे भी एक रोज़ मेरे अंदर से बाहर फेंक दिया. मेरी देह, मेरे आत्म पर एकक्षत्र राज्य हो गया उसका.

उसकी छाया मेरे उगाये त्याग, संस्कार के नन्हे पौधों पर पडी और वो मुरझा गये. प्यार और अपनेपन वाली भी सारी पौधें सड गईं. पहले पीली पडीं फिर मिट्टी बनी और कई सदियों जाने कितना कुछ भुगतने के बाद काले पत्थरों में तब्दील हो गईं. लपलपाती ज़ुबान से आग बरसी और कोयलों ने दहकना शुरू किया. एक कोने से दूसरे कोने तक सबके भीतर बचे र्ंगों के आखिरी हिस्सों ने अपने अपने हिस्से की आखिरी सांसें लीं. लाल, पीली, नीली, नारंगी लौ उठीं और उसके बाद.. राख़, सिर्फ राख़.

जाने कौन कह मरा था कि बंजर ज़मीनों में कुछ नहीं उगता. अगर उसने राख़ में बेरूखी की धूल, बेपरवाही की खाद मिला कर देखा होता तो उसे मालूम होता कि उसने बेवफाई की फसल के लिये दुनिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी तैयार की है. रात के अंधेरों में सर्र्-सर्र की डरावनी आवाज़ें होतीं और सुबह ग्लानि के आंसुओं का छिडकाव करते हुये मालूम होता कि फसल खूब बढ रही है... वासना के खर-पतवार भी दिखने लगे थे कहीं-कहीं कि ज़रूरी नहीं कि जो बोया जाये वही काटा भी जाये हर बार. बल्कि बिना बोये जो उग आता है उसे ही काटना ज़्याद मुश्किल होता है.

ख़ैर... अब तो इस सब को भी उजडे हुये अर्सा हो गया. अपनी बर्बादी की याद तब आयी जब भीतर की कालिमा देह की झीनी चादर से झलकने लगी. ओह! मन की कालिख तन पर भी चढने लगी है अब शायद.

ख़ैर...

मेरी जिन खूबियों के चलते मैं भा गई थी तुमको,
वो सब तो अब गुज़रे हुये कल की बातें हैं
     और उस पर तुम्हारा कहना कि;
     "कुछ भी नहीं बदला"
              मेरा दिल रखने की ये कोशिश बडी नाकाम लगती है...

मेरी जिस पावन गरिमा पर खुद गर्व था मुझको,
वो सब इतिहास के पन्नों में जडी मुर्दा रातें हैं
  और उस पर तुम्हारा कहना कि;
  "गंगाजल नहीं सडता"
     ये बात मेरे ही अंतस में हंसता कोई इल्ज़ाम लगती है...

Tuesday, April 23, 2013

"आवाज़ों के शहर वाला दोस्त"

मेरा और उसका आवाज़ भर का रिश्ता था और मैं उसे "आवाज़ों के शहर वाला दोस्त" कहती थी.

उसका और मेरा रिश्ता जिस दुनिया में बनता और पनपता था, वो दुनिया रात के अंधेरों में ही उजली होती थी. रातों.. खासकर सूनी खामोश रातों में ही देखी जा सकती थी. सूरज की किरणें पडते ही वो ख़ाक में तब्दील हो जाती थी या कि मन के घुप्प अंधेरों में छुप जाती थी.

ऐसा नहीं था कि दिन के उजाले में उसके और मेरे बात करने पर कोई बंदिश थी लेकिन जाने क्यूं रौशनी बातों में बनावट के अजीब गंदले रंग भर देती थी. जबकि रात में... अंधेरे में... उन सचों को भी टटोल कर पढा जा सकता था जो ज़ुबान का रास्ता तक नहीं जानते थे.

लेकिन अब वो अंधेरी रातें मेरी उमर के पटल से गायब होने वाली थीं. मुझे इस बात का अहसास था कि मैं उसकी आवाज़ के ठहराव में उसकी सिगरेट के कशों की महक को महसूस नहीं कर पाऊंगी... सन्नाटों में उसकी सांसों से डर कर उससे कुछ बोलने की गुज़ारिश करने की भी ज़रूरत नहीं पडेगी.. उसके शहर की हवा की ठण्डक सिहरन बन कर मेरी आवाज़ को अब फिर नहीं कंपायेगी...
... ऐसी ही कई सच्चाईयां शायद उस पर भी हर रोज़ ज़ाहिर हो रही होंगी लेकिन हम दोनों में से कोई भी बिछडने की बात नहीं कर रहा था. उन दिनों मैं चुप थी... बेहद चुप. कुछ भी कहने-सुनने को जी ना चाहता मगर उसे तो वही करना होता जो मैं ना चाहूं हांलाकि ये भी सच है कि हम दोनों की चाहत का सिरा एक ही जगह खुलता था और वो मुझे मुझसे बस थोडा-सा... ज़रा-सा ही ज़्यादा जानता था.


ख़ैर.. जाने कैसा अजीब सा लगा... जाने क्या तो जल-बुझ सा गया अंदर ही अंदर जब उसने कहा कि;

"अब तुम गायब होने वाली हो"
"मैं शहर बदल रही हूं, मर नहीं रही"

कहने को कह गई मैं मगर जानती थी कि वो लडकी जिसकी रगों उसका इश्क़ बहता है, उस नये शहर की हवा को सांसों में भरते ही मर जायेगी. ओह! उसने क्यूं कहा? क्यूं याद दिलाया कि मैं उससे दूर जाने वाली हूं जबकि ये राज़ आखिर तक मैं खुद से छिपा कर रखना चाहती थी.

उस रोज़ के बाद से मैं हर दिन असम्ंजस के हिंडोले पर पींगे लेती रही कि उससे दूर जाने से पहले ही गायब हो जाना चाहिये जिससे मेरा जाना किसी किस्म का कोई vacuum create  ना करे उसकी ज़िन्दगी मे या कि बचे हुये पलों में ज़्यादा से ज़्यादा जी लेना चाहिये.

यूं तो दोनों में से कोई रास्ता मुश्किल नहीं.. मुश्किल है तो बस ये समझ पाना कि किस रास्ते के कांटे उसे खुद से बच कर निकल जाने देंगे... मुश्किल है तो ये समझना कि कौन सा रास्ता किसी रोज़ मेरी वाली सडक को समकोण पर काटेगा और उस चौराहे पर उससे मिल कर उसके तलवों के ज़ख़्मों से रिसते लहू को हल्दी डाल कर थामा जा सकेगा.. अपने दुपट्टे को फाड कर उसकी तकलीफों पर लपेटा जा सकेगा...

Monday, February 18, 2013

हमारी नई दोस्ती को हमेशा याद रखने के लिये...

घर लौटते हुये वो दो बच्चियां रोज़ वहीं बैठी दिखती हैं... बडी शायद ९-१० साल की होगी और छोटी ४-५ साल की, मां बाप शायद आस-पास बन रही किसी इमारत में मजदूरी करते हैं. शुरु-शुरु में मैं उन्हें देख कर मुस्कुराती तो दोनों शर्मा के नज़र फेर लेती, फिर कुछ दिन बाद एक नन्हीं सी मुस्कान दिखाई देने लगी, फिर कुछ और दिनों बाद हाथ हिला कर टाटा भी कहा जाने लगा. बस इत्ती सी दोस्ती हुई हमारी ...

अभी कुछ रोज़ पहले जैसे ही वहां से गुज़री तो देखा बडी गायब है और छोटी चिल्ला चिल्ला के रो रही है, अभी सो कर ही जागी थी शायद और आस पास बहन को ना पा कर डर गई थी. मैं वहीं सीमेंट के बोरों पर बैठ के उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी मगर उसे हिन्दी नहीं आती और मुझे गुजराती.. तो बात आगे बढे कैसे?

मगर जैसे ही मैंने कहा, 'चॉकलेट खाती हो?'
बच्ची एक दम चुप, मुस्कुरा के गर्दन हां में हिलाई. तब तक बडी भी आ गई जिसे टूटी फूटी हिन्दी आती थी.. दोनों को चॉकलेट दिला कर मैंने हमारी दोस्ती पक्की कर ली है.. :)

Moral of the story : टॉफी चॉकलेट की भाषा सबसे आसान है... बचपन मिठास को सुनता गुनता है ..