सफ़ेदी मानो कालिमा से ढंकती जा रही है. हर ओर शुभ्रता पर हौले-हौले कालिख फैलायी जा रही है... किसी गहरी साज़िश के तहत. कहीं बडी गहरी, बेहद भीतरी तहों से शुरु हुआ था ये सब... पहले-पहल मन मैला हुआ था.
अगर अभी याद्दाश्त पर काला पर्दा नहीं पडा है तो शायद रंगीन इन्द्रधनुषी रंगों के, बारिशों की नमी के दिन थे जब प्यार का लबादा पहने किसी ने दस्तक दी और मेरे भीतर पसरना शुरु किया. मैंने तो बस उसे एक कमरा भर दिया था मगर उसने हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लिया, मेरे भीतर से सबको एक-एक कर के कब बाहर कर दिया, पता भी नहीं चला. होश तो तब आया जब मुझे भी एक रोज़ मेरे अंदर से बाहर फेंक दिया. मेरी देह, मेरे आत्म पर एकक्षत्र राज्य हो गया उसका.
उसकी छाया मेरे उगाये त्याग, संस्कार के नन्हे पौधों पर पडी और वो मुरझा गये. प्यार और अपनेपन वाली भी सारी पौधें सड गईं. पहले पीली पडीं फिर मिट्टी बनी और कई सदियों जाने कितना कुछ भुगतने के बाद काले पत्थरों में तब्दील हो गईं. लपलपाती ज़ुबान से आग बरसी और कोयलों ने दहकना शुरू किया. एक कोने से दूसरे कोने तक सबके भीतर बचे र्ंगों के आखिरी हिस्सों ने अपने अपने हिस्से की आखिरी सांसें लीं. लाल, पीली, नीली, नारंगी लौ उठीं और उसके बाद.. राख़, सिर्फ राख़.
जाने कौन कह मरा था कि बंजर ज़मीनों में कुछ नहीं उगता. अगर उसने राख़ में बेरूखी की धूल, बेपरवाही की खाद मिला कर देखा होता तो उसे मालूम होता कि उसने बेवफाई की फसल के लिये दुनिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी तैयार की है. रात के अंधेरों में सर्र्-सर्र की डरावनी आवाज़ें होतीं और सुबह ग्लानि के आंसुओं का छिडकाव करते हुये मालूम होता कि फसल खूब बढ रही है... वासना के खर-पतवार भी दिखने लगे थे कहीं-कहीं कि ज़रूरी नहीं कि जो बोया जाये वही काटा भी जाये हर बार. बल्कि बिना बोये जो उग आता है उसे ही काटना ज़्याद मुश्किल होता है.
ख़ैर... अब तो इस सब को भी उजडे हुये अर्सा हो गया. अपनी बर्बादी की याद तब आयी जब भीतर की कालिमा देह की झीनी चादर से झलकने लगी. ओह! मन की कालिख तन पर भी चढने लगी है अब शायद.
ख़ैर...
मेरी जिन खूबियों के चलते मैं भा गई थी तुमको,
वो सब तो अब गुज़रे हुये कल की बातें हैं
और उस पर तुम्हारा कहना कि;
"कुछ भी नहीं बदला"
मेरा दिल रखने की ये कोशिश बडी नाकाम लगती है...
मेरी जिस पावन गरिमा पर खुद गर्व था मुझको,
वो सब इतिहास के पन्नों में जडी मुर्दा रातें हैं
और उस पर तुम्हारा कहना कि;
"गंगाजल नहीं सडता"
ये बात मेरे ही अंतस में हंसता कोई इल्ज़ाम लगती है...
अगर अभी याद्दाश्त पर काला पर्दा नहीं पडा है तो शायद रंगीन इन्द्रधनुषी रंगों के, बारिशों की नमी के दिन थे जब प्यार का लबादा पहने किसी ने दस्तक दी और मेरे भीतर पसरना शुरु किया. मैंने तो बस उसे एक कमरा भर दिया था मगर उसने हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लिया, मेरे भीतर से सबको एक-एक कर के कब बाहर कर दिया, पता भी नहीं चला. होश तो तब आया जब मुझे भी एक रोज़ मेरे अंदर से बाहर फेंक दिया. मेरी देह, मेरे आत्म पर एकक्षत्र राज्य हो गया उसका.
उसकी छाया मेरे उगाये त्याग, संस्कार के नन्हे पौधों पर पडी और वो मुरझा गये. प्यार और अपनेपन वाली भी सारी पौधें सड गईं. पहले पीली पडीं फिर मिट्टी बनी और कई सदियों जाने कितना कुछ भुगतने के बाद काले पत्थरों में तब्दील हो गईं. लपलपाती ज़ुबान से आग बरसी और कोयलों ने दहकना शुरू किया. एक कोने से दूसरे कोने तक सबके भीतर बचे र्ंगों के आखिरी हिस्सों ने अपने अपने हिस्से की आखिरी सांसें लीं. लाल, पीली, नीली, नारंगी लौ उठीं और उसके बाद.. राख़, सिर्फ राख़.
जाने कौन कह मरा था कि बंजर ज़मीनों में कुछ नहीं उगता. अगर उसने राख़ में बेरूखी की धूल, बेपरवाही की खाद मिला कर देखा होता तो उसे मालूम होता कि उसने बेवफाई की फसल के लिये दुनिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी तैयार की है. रात के अंधेरों में सर्र्-सर्र की डरावनी आवाज़ें होतीं और सुबह ग्लानि के आंसुओं का छिडकाव करते हुये मालूम होता कि फसल खूब बढ रही है... वासना के खर-पतवार भी दिखने लगे थे कहीं-कहीं कि ज़रूरी नहीं कि जो बोया जाये वही काटा भी जाये हर बार. बल्कि बिना बोये जो उग आता है उसे ही काटना ज़्याद मुश्किल होता है.
ख़ैर... अब तो इस सब को भी उजडे हुये अर्सा हो गया. अपनी बर्बादी की याद तब आयी जब भीतर की कालिमा देह की झीनी चादर से झलकने लगी. ओह! मन की कालिख तन पर भी चढने लगी है अब शायद.
ख़ैर...
मेरी जिन खूबियों के चलते मैं भा गई थी तुमको,
वो सब तो अब गुज़रे हुये कल की बातें हैं
और उस पर तुम्हारा कहना कि;
"कुछ भी नहीं बदला"
मेरा दिल रखने की ये कोशिश बडी नाकाम लगती है...
मेरी जिस पावन गरिमा पर खुद गर्व था मुझको,
वो सब इतिहास के पन्नों में जडी मुर्दा रातें हैं
और उस पर तुम्हारा कहना कि;
"गंगाजल नहीं सडता"
ये बात मेरे ही अंतस में हंसता कोई इल्ज़ाम लगती है...
:) thank u :)
ReplyDelete"गंगाजल नहीं सडता"
ReplyDeleteये बात मेरे ही अंतस में हंसता कोई इल्ज़ाम लगती है...
विश्वास और वास्तविकता अलग अलग है -बढ़िया प्रस्तुति
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
lateast post मैं कौन हूँ ?
latest post परम्परा
all well? ye kis khushi mein?
ReplyDeleteYeah.. ol z well... puraana likha hua h, share ab kiya h.. :)
ReplyDeletenice
ReplyDeleteअद्भुत लिखती हैं आप...क्या बारीकी है। क़ुरबान।
ReplyDeleteज़रूरी नहीं कि जो बोया जाये वही काटा भी जाये हर बार. बल्कि बिना बोये जो उग आता है उसे ही काटना ज़्याद मुश्किल होता है.
ReplyDeleteअत्यंत संवेदनशील और गहरी सोच से उपजा सृजन.
कौन हो बिटिया तुम ? कौन गली ???
ReplyDelete:P
DeleteZaada samajhdaar na bano be.. :/
वाह मोनाली ..पहली बार पढ़ा आपको ..कितना अच्छा लिखती हैं .....इतना सारा दर्द....गरल, उससे जुड़ी पीड़ा .....निरर्थकता .....और एकाकीपन .......हर शब्द चीख चीखकर बस इन्ही एहसासों को ज़ुबां दे रहा है
ReplyDeleteaapne title hi itna jordar diya tha ki bas padhne ka mann kar gya. ultimate ji.
ReplyDeletebahut badhiya monali...!
ReplyDelete...... गहरी सोच
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