Wednesday, August 24, 2011
ग्लानि
डिगता नहीं एतबार एक पल को भी तुमसे
बस खुद पर ही भरोसा कभी मुक्कमल नहीं होता
तुम हर घडी हर दौर क सहारा बने रहे
मरीचिका के पीछे पडा मेरा ही मन मेरा संबल नहीं होता
भले खुद को दे दूं ये दिलासा कि तुमसे कुछ नहीं छिपाया
मगर ये भी तो सच है कि बतान जैसा कुछ नहीं बताया
एक ही थी गलती दोनों की पर थोप दी तुम पर
प्रेम पा कर भी मेरा मन उज्जवल नहीं होता
तुम्हें पा कर सोचती हूं क्या लायक हूं तुम्हारे
मैं रेत्. तुम सागर्. शायद इसीलिये घुल गये किनारे
अम्रित पा कर भी विष की तृष्णा नहीं मरती
तुझसे वंदित हो कर भी मन निर्मल नहीं हुआ
हर रोज़ बस ये मांगती हूं खुद से और खुदा से
बख्शे मुझे मोती इबादत और वफ़ा के
ये भी नहीं कि पतित हुई मैं ज़माने के रिवाज़ से
मगर जाने क्यूं... गंगोत्री से जनम कर भी मेरा मन गंगाजल नहीं हुआ
Friday, August 19, 2011
बयार परिवर्तन की
आज मेरी कलम ने नम आंख नहीं लिखी
आज स्याही में कोई याद नहीं लिखी
आज उलझनों से पन्ने नहीं भरे
आज लेखनी ने नहीं किये ज़ख़्म हरे
कि आज जब लगी है आग सारे देश में
कि जब जन जन हुंकार भरे क्रांतिकारी वेष में
कि जब संसद की सर्वोच्चता सडकों पर आ जाये
कि जब फौलाद-से इरादे नभ तक पर छा जाये
कि जब बारिश ना भिगो पाये किसी जन का जज़्बा
कि जब अंधेरे में हाथ पकड कोई दिखा दे नई राह
तब मेरी कलम ने प्रेम के तराने नहीं लिखे
आज स्याही में वफ़ा के फसाने नहीं लिखे
कि जब बरसों से पकता कोई फोडा अचानक फूट जाये
कि जब दरका हुआ भरोसा किरच किरच टूट जाये
कि जब नामुमकिन-सा कोई स्वप्न साकार दिख जाये
कि जब संघर्ष की गाथा से दर-औ-दीवारें पट जाये
कि जब जागें युवा ऐसे, जैसे नींद खुद बिस्तरों से खींचे
कि जब भागें सभी ऐसे, जैसे यम पडा हो पीछे
तब मेरी कलम ने विरह की आंच नहीं लिखी
आज स्याही में मन की कोई प्यास नहीं लिखी
Wednesday, August 10, 2011
मां और कच्ची मिट्टी
यूं तो सब कुछ तुमसे साझा किया है फिर भी एक बात रह ही गई. इसलिये नहीं कि याद नहीं रही बल्कि इस्लिये कि कभी बताने का मन ही नहीं हुआ कि तुम हंस ना दो हमारे बचपने पर.
कई साल पहले.... जब हमारा प्रेम कच्चा ही था और हम दोनों भी कोई खास समझदार नहीं थे तब मिट्टी के एक छोटे से कुल्हड पर clay से अप्ना नाम तुम्हारे नाम के साथ लिखा था. उस वक्त तुम्हारा और अपना नाम साथ देख कर जितनी पुलकन होती थी उतनी तो शायद हमारी शादी का invitation card देख कर भी नहीं हुई होगी.
जानते हो? तब सारे घर से छुपा कर उसे ऐसे रखते थे मानो सूखा ग्रस्त गांव के किसी किसान को एक टुकडा बादल मिल गय हो. रात में सबके सो जाने के बाद एक बार उसे छू कर ज़रूर देखते थे.. शायद मुस्कुराते भि हों. हर घण्टे दो घण्टे में देख के आते थे कि सही सलामत तो है. जाने क्यूं ये डर था कि इसके चटकने पर हमारा रिश्ता भी दरक जायेगा. उन दिनों तुमसे ज़्यादा मेरी सोच पर वो कुल्हड काबिज़ था. बरसों इस डर को जीने के बाद हमने तय किया था कि इक रोज़ हम दोनों के नाम किसी पक्के पत्थर पर गढ़वा लेंगे.
फिर बरस दर बरस बीतते गये और जाने किस किस के आशिर्वाद फले कि तुम और मैं... हम बन ही गये. हमारी साझी छत वाले आशियाने के बाहर जब पहली बार उस लाल पत्थर पर हम दोनों का नाम साथ देखा थ तो मेरे आंसू छलक आये थे. तुम्हारे लाख पूछने पर भी जो वज़ह तुम्हें तब नहीं बतायी थी वो शायद आज मालूम हो गई होगी.
उस दिन के बाद मैं निश्चिंत हो गई. हर डर से आज़ाद ... तुम्हें सहेजना मानो भूलती सी गई. मग़र उस रोज़ जब उस लाल पत्थर को चटके देखा तो मानो सारे डर वापस ज़िन्दा हो गये. भागती हुई तुम्हें बताने अन्दर आई थी.. तुम कुछ गुनगुनाते हुये shaving कर रहे थे और तब ना जाने क्यूं ये खयाल आया था कि तुम जो इतने पास दिखते हो.. कहीं दूर तो कहीं दूर तो नहीं चले गये...
वैसे तो बचपन से ही मां से कुछ share करने की आदत नहीं थी मगर उस रोज़ लगा कि उनके सिवा कोई भी इस डर को समझ नहीं पायेगा. फिर हमारी बात सुन कर उन्होंने भी कोई response नहीं दिया.. बस कहने लगीं कि कला घर आ जाना, तुम्हारे लिये राजमा चावल बना कर रखेंगे. खुद पर इस कदर खीझ उठे थे कि बताया ही क्य़ूं जबकि पता था कि वो नहीं समझेंगी. कोई और दिन होता तो शायद phone पर ही झगड पडते मगर तब केवल उनसे अगले दिन मिलने की हामी भर कर call disconnect कर दिया था.
हमारे पहुंचने पर भी मां ने हमारी उलझन का कोई झिक्र नहीं किया. अपने दामाद और विदुशी की ही फिक्र थी बस उन्हें. लौटते वक्त हमेशा की तरह उपहारों के कुछ डिब्बे हमारे हाथ में थमा दिये थे. अब हम भी ना-नुकुर की formality में नहीं पडते थे. पता था कि हमारी शादी के सात साल बीत जाने के बाद भी आंसू उनकी पलकों के कोर पर ही रहते हैं.
घर वापस आ कर gifts देखने की कोई उत्सुकता नहीं थी मगर विदुषी school से आते ही हर डिब्बा खखोलने लगी थी कि नानी के खज़ाने का कौन सा रतन इस बार उसके हाथ लगा है.
मैं रसोई में थी जब उसकी आवाज़ आई; "Its lovely!!! ये तो मैं ही रखूंगी मां"
और तब मन मां से लिपट जाने को हुआ जब देखा कि ये तो वही मिट्टी का कुल्हड है जिस पर कच्ची उमर में मैंने हमारे नाम लिख दिये थे. साथ में मां का एक ख़त भी था...
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बडकी,
प्रेम सदा बांधा नहीं जा सकता और खोने के डर की चरखी पर लिपटे शक के धागों से तो कतई नहीं.
उसे उडने दो... उन्मुक्त आकाश में. ग़र बांध ही सकती हो तो बांध लेना प्रेम की चरखी पर लिपते विश्वास में.
शायद आज तुम्हें ये शिकायत न हो कि मां तुम्हें समझ नहीं पाती कभी. और अब जबकि विदुषी तुम्हरी ज़िन्दगी में है तो मां को समझना तुम्हारे लिए आसान होगा.
तुम्हारी,
मां
उस शाम के धुंधलके में मां के बुढापे से कांपते हाथों की लिखावट मेरा हर डर चुरा कर ले गई. और रही-सही कसर विदुषी के पढने की मेज़ पर रखा वो मिट्टी का कुलहड कर रहा है जो चाहे खुद कच्चा हो मगर मेरी समझ को पकाने के लिये खुद मद्दम आंच सा तप रहा है.
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