जीजी का आखिर ख़त पढ़कर लगा कहीं कुछ चटक गया हो। कितनी खोखली जिंदगी जीते हैं न हम। ज़िंदा समाज हजारों साल की गुलामी के बाद मर गया है। हमने अपनी जिंदगी को ही गुलाम बना दिया है आने वाली नस्ल फिर कैसे नहीं गुलाम होगी।
कितने ही दरिया मिलते हैं सागर में, मुहब्बत के प्यासे, वस्ल की तलब में! कौन सी नदी बताओ मगर तुम, पहुँच पाती है सागर के मन में? सागर शुरू से साहिल का ही है! वर्ना क्यूँ आता यूँ मुड़-मुड़ के? नदिया से पूछूँ, बुरा जो ना माने..... छोड़ा है उसने भी बालू को अधर में? ना नदिया है दोषी, ना कुसूर है सागर का प्यादे सभी हैं वक़्त के हाथों में! इसलिए... मुहब्बत करो ये जान कर ऐ रफीकों, ज़रूरी नहीं है मिलन हो क़िस्मत में! लिल्लाह! ज़िंदगी को सीर्यसली नहीं सिंसिअर्ली लीजिये...... खुश रहिये! आशीष
आशीष भैया ही जवाब दे सकते हैं.. हम तो कमेंट मार के खाना पकायेंगे.. बहुत भूखा रह लिया इस छोड़ तोड़ जोड़ के चलते... अरे!! दूसरे को फिक्र नही तो हम क्यों करें..
क्या करें ऐसा भी/ही होता है
ReplyDeleteohh ! Ye dard.. Bahut hi dukhi kar diya.. Achhi rachna.
ReplyDeleteसोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...
ReplyDelete.....अपनी तो आदत है मुस्कुराने की !
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
ऐसा भी होता है लेकिन जिंदगी रुकने का नाम नहीं है ...इसे चलना ही पड़ता है और चलना ही चाहिए..
ReplyDeleteदर्द से भरी गज़ल.
behatarin panktiyan
ReplyDeleteजीजी का आखिर ख़त पढ़कर लगा कहीं कुछ चटक गया हो। कितनी खोखली जिंदगी जीते हैं न हम। ज़िंदा समाज हजारों साल की गुलामी के बाद मर गया है। हमने अपनी जिंदगी को ही गुलाम बना दिया है आने वाली नस्ल फिर कैसे नहीं गुलाम होगी।
ReplyDeleteजवाब हम देंगे.....
ReplyDeleteमगर........
शाम को.....
अभी चला दफ्तर....
लिल्लाह!
आशीष
मै नदी बन कर जिसमे सामना चाहती थी
ReplyDeleteउसी सागर ने साहिल की लकीर खीच दी
वाह बहुत खूब कहा आपने
कितने ही दरिया मिलते हैं सागर में,
ReplyDeleteमुहब्बत के प्यासे, वस्ल की तलब में!
कौन सी नदी बताओ मगर तुम,
पहुँच पाती है सागर के मन में?
सागर शुरू से साहिल का ही है!
वर्ना क्यूँ आता यूँ मुड़-मुड़ के?
नदिया से पूछूँ, बुरा जो ना माने.....
छोड़ा है उसने भी बालू को अधर में?
ना नदिया है दोषी, ना कुसूर है सागर का
प्यादे सभी हैं वक़्त के हाथों में!
इसलिए...
मुहब्बत करो ये जान कर ऐ रफीकों,
ज़रूरी नहीं है मिलन हो क़िस्मत में!
लिल्लाह!
ज़िंदगी को सीर्यसली नहीं सिंसिअर्ली लीजिये...... खुश रहिये!
आशीष
आशीष भैया ही जवाब दे सकते हैं..
ReplyDeleteहम तो कमेंट मार के खाना पकायेंगे.. बहुत भूखा रह लिया इस छोड़ तोड़ जोड़ के चलते... अरे!! दूसरे को फिक्र नही तो हम क्यों करें..
कुछ लकीरों के आगे उन से भी बड़ी लकीर खींचने कि जरुरत महसूस होती है अक्सर
ReplyDeleteजिसके साथ सफर तय करना था
ReplyDeleteउसी ने मंज़िल से पहले बांहें छोड दीं.....
ulti pulti duniya me aisha hi hota hai...
very nice post..
जीवन के नाज़ुक पलों को अच्छा संजोया है आपने
ReplyDeleteमोनाली जी
ReplyDeleteसस्नेह अभिवादन !
अच्छी कोमल भावनाओं को शब्द दिए हैं आपने
मैं नदी बन कर जिसमें समाना चाहती थी
उसी सागर ने साहिल की लकीर खींच दी
दुर्भाग्य है उस सागर का …
देखिए , सबको मनचाहा नहीं मिला करता ।
मुहब्बत की राहों में चलना संभल के
यहां जो भी आया गया हाथ मल के
नहीं नहीं , मेरी कविता नहीं , पुराना फिल्मी गीत है … सुना ही होगा आपने ।
बहरहाल , बढ़िया रचना के लिए बधाई
और शुभकामनाएं
- राजेन्द्र स्वर्णकार